ये लेख, हमारी पूर्व असिस्टेंट एडिटर सौम्या ने कोरोना और देश के गरीबों के लिए सबसे भयावह काल के दौरान, जुलाई 2020 में लिखा था। जब लॉकडाउन की मानव (इसे सरकार भी पढ़ सकते हैं)-निर्मित विभीषिका का 1 साल पूरा हो रहा है, तो हमको ये साझा करना बेहद ज़रूरी लगा। अतः इसे हम पुनः साझा कर रहे हैं। – संपादक
दृश्य 1
पर्दा उठता है। ड्रॉइंग रूम में एक अभिनेता फ़्रंट सीट लेता है। मुमकिन हैं उसके पास इस सीट के लिए एक उच्च वर्ग और उच्च जाति का टिकिट मौजूद है। अपने टीवी की स्क्रीन पर प्रवासी मज़दूरों को पैदल चलता हुआ देखकर वो मायूस हो जाता है। बहुत ही तत्परता से वो अपने आप को लाचार और बेबस महसूस “कराता” है। जैसे क्रिकेट मैच देखते वक़्त दर्शक चीख़ते हैं, अपने ड्रॉइंग रूम से ही खिलाड़ी को निर्देश दे रहे होते हैं इस उम्मीद में कि ऐसा करके वो खेल के परिणाम को किसी तरह बदल देंगे, ठीक वैसे ही अभिनेता भी तुरंत फ़ेसबुक और ट्विटर पर दुःखी इमोजीस और स्माइली के साथ इन मज़दूरों पर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर करता है। उसको ये उम्मीद होती है कि इससे मज़दूरों का और देश का भविष्य बदल जाएगा। ऐसा करके उसको लगता है कि उसने नागरिक होने का कर्तव्य निभा लिया है। सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया से वह वोट भी दे देता है। पर्दा गिरने लगता है, तभी एक सिसकी की आवाज़ आती है, अभिनेता की खिड़की के बाहर से मज़दूर पैदल चल कर जा रहे होते हैं पर टीवी के शोरगुल में उसको वो सुनाई नहीं देता।
दृश्य 2
पर्दा उठता है। मंच पर सुबह सुबह का दृश्य है। नाटक के अभिनेता की नींद आज फिर 4 जीबी डेटा के साथ खुली है। अभिनेता अपने सोशल मीडिया का हीरो है, नायक है – वो हर मुद्दे पर आवाज़ उठाता है, यहाँ तक की वो देश के लिए या जिसे वो देश समझता है उसके लिए लड़-भिड़ जाता है। नाटक के सूत्रधार की आवाज़ गूँजती है कि “काश डेटा कभी ना ख़त्म हो, ताकि मेरी विचारधारा की साँसें चलती रहे”। अभिनेता को पता है कि सरकार उसके बारे में सब सोच रही है, इसलिए कभी कभार तो अभिनेता सोचना भी बंद कर “डेटा” है। अभिनेता आज टिकटॉक नाम की ऐप अन-इंस्टॉल कर रहा है, ऐसा कर के देश की सरहद की रक्षा होगी। हिंदुस्तानी आदमी की फिर ग़लती भी क्या है कि उसके पश्चिम में पाकिस्तान है,उत्तर में चीन और बाक़ी हर ओर पानी। उसके पास कोई जगह ही नहीं बची सरहद के मुद्दे से बचने की। पर्दा गिरने लगता है, तभी हमारे नायक के फ़ोन पर एक अप्डेट आती है- PayTm का नया वर्ज़न आया है। PayTm में भी निवेश सरहद पार से आया था, पर ये निवेश उसी टिकिट पर आया है, जो पुराने अभिनेता के पास था, वही..उच्च वर्ग और उच्च जाति वाला।
“लॉकडाउन सिनेमा की एनाटमी (शरीर संरचना)”
साल भर पहले, घरों में बैठे हम सब लोगों ने लॉकडाउन को एक सिनेमा-दर्शक की तरह देखा। लॉकडाउन के दौरान जो बड़ी ख़बरें आयी उस पर दर्शकों की तरह हमारी क्या प्रतिक्रिया रही, मैं सिर्फ इसका विश्लेषण करने का प्रयास कर रही हूं। शरीर रचना या एनाटॉमी (Anatomy) को पढ़ने और समझने का आज भी एक प्रभावशाली तरीक़ा अंग-विच्छेदन या डिसेक्शन(dissection) को माना जाता है। एक्स-रे, एम॰आर॰आई॰, अल्ट्रासाउंड जैसी तमाम तकनीकें आने के बाद भी , शवों का विच्छेदन कर के ही मानव शरीर का और भी गहन अध्ययन किया जा सकता है। इस लेख के शीर्षक में समाज को समझने के लिए, शरीर-रचना के विज्ञान से तुलना करने को आप एक काल्पनिक अतिशयोक्ति भी मान सकते हैं। लेकिन ये शीर्षक चुनने का बड़ा कारण यह था कि शायद आज समाज के अंदर कहीं ना कहीं हम जीवन से ज़्यादा मृत्यु की मौजूदगी देखते हैं – फिर वो चाहे कोरोना के संक्रमण से हुई मृत्यु हो या सरहद पर हुई सैन्यकर्मियों की मृत्यु, या फिर प्रशासन के अतिरेक बल प्रयोग से हुई मृत्यु – जैसे कि तमिलनाडु में जो हुआ, या फिर एक हाथी का दुख़द अंत हो, या उत्तर प्रदेश में हुई पुलिस कर्मियों की निर्मम हत्या। इसलिए समाज की शव से तुलना करना, महज़ एक संयोग नहीं है। अस्पतालों के एनाटॉमी विभाग में शवों पर रसायन लगा कर उन्हें सड़ने से रोकने की कोशिश की जाती है, इस लेख को हमारे दम तोड़ते समाज को सड़ने से बचाने की भी कोशिश समझा जाए।
प्रेक्षण
इस महामारी के उन महीनों को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है। समय को ऐसे टुकड़ों में बाँटना थोड़ा आसान तरीक़ा है परिस्थितियों को समझने का, पर किसी भी तरह से ना इसे पर्याप्त मापदंड माना जाए ना ही कोई मानक। पहला भाग है दर्शकों की प्रवासी मज़दूरों पर प्रतिक्रिया, दूसरे भाग में आप समझेंगे दर्शकों की केरल में हुए हाथी के अंत पर प्रतिक्रिया, तीसरे भाग में दर्शकों की सरहद पर पर सैन्य दल की शहादत पर प्रतिक्रिया, चौथे में तमिलनाडु में हुई पुलिस हिरासत में हत्या पर प्रतिक्रिया और अंत में पुलिस दल की निर्मम हत्या पर दर्शकों की प्रतिक्रिया।
प्रेक्षण 1-प्रवासी मज़दूरों के हालात पर दर्शकों की प्रतिक्रिया
सरकार और प्रशासन की लापरवाही के चलते मई में लाखों प्रवासी मज़दूर पैदल ही, हज़ारों मीलों की दूरियाँ तय करते हुए, अपने घरों की तरफ़ निकल पड़े। यह ही मज़दूर बड़ी तादाद में कभी सूरत में तो कभी दिल्ली में तो कभी मुंबई में सड़कों पर उतरे, ट्रेनों की माँग करने के लिए ताकि वो घर लौट सकें। 8 मई को औरंगाबाद में 16 प्रवासी मज़दूर, एक मालगाड़ी के नीचे आकर पटरियों पर अपना दम तोड़ देते हैं। दिशा का अंदाज़ा रहे इसलिए मज़दूर पटरियों के किनारे चल रहे थे, शायद वहीं थक के चूर हो गए होंगे और मालगाड़ी के नीचे आ गए।
टीवी की ख़बरों ने हम दर्शकों को मौक़ा दिया की हम इनकी मुश्किलों को देख सके बिना उन मुश्किलों को जिए, हम उनके दुःख में शरीक हो सकें बिना उनका दुःख बाँटें। हम सब दर्शक ग्लानि से भर गए। ग्लानि सबसे आसानी से महसूस होने वाली भावना होती है और सबसे ज़्यादा पराजित महसूस कराने वाली भी। बिना कुछ करे या बिना अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए सिर्फ़ ग्लानि महसूस कर के संतुष्ट हो जाना भी आज हमारे समाज की बहुत बड़ी ख़ूबी है। सिर्फ़ ग्लानि महसूस कर के हम कहीं ना कहीं ख़ुद को समाधान की प्रक्रिया से भी दूर कर लेते हैं। क्योंकि कहीं ना कहीं हम उस ग्लानि के भाव में ये कह रहे होते हैं कि दुःख और आक्रोश ज़ाहिर करने के अलावा हम कर ही क्या सकते हैं या फिर हमने इतना तो कर दिया। जब सिर्फ़ ग्लानि महसूस कर कर, हम सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं तो हम ख़ुद को समाज में नैतिकता का प्रवक्ता बना देते हैं। ऐसा प्रवक्ता जो समाज की क्रूरता पर टिप्पणी करता है या प्रतिक्रिया ज़ाहिर करता है या वाद-विवाद में हिस्सा लेता है क्योंकि शायद वो समाज से ऊपर है समाज का हिस्सा नहीं। जब हमने अपना घर बनवाते वक़्त कम मज़दूरी दी थी, जब हमने मज़दूरों को अपने फ़र्नीचर पर नहीं बैठने दिया था या जब हमने कच्ची बस्तियों को अपने शहर का हिस्सा नहीं माना था – हमने उसी दिन, अपने घरों की नींव मज़दूरों से रखवाकर – इस असमान समाज की नींव रख दी थी। ग्लानि पहला क़दम हो सकता है एक नागरिक के तौर पर अपने दायित्व समझने का, पर आख़िरी नहीं। ग्लानि शुरुआत है अच्छा इंसान बनने का अंत नहीं।
प्रेक्षण 2-केरल में हाथी के अंत पर प्रतिक्रिया
“शहर से सोचता हूँ
कि जंगल क्या मेरी सोच से भी कट रहा है
जंगल में जंगल नहीं होंगे
तो कहाँ होंगे ?
शहर की सड़कों के किनारे के पेड़ों में होंगे ।“
ये किसान वन्य जीवन के सबसे नज़दीक रहते हैं। जैसे किसानों की गतिविधियों का जानवरों पर असर पड़ सकता है वैसे ही जानवरों से उनकी खेती को नुक़सान पहुँच सकता है। हमारी सोशल मीडिया की हड़बड़ी में क्या हमने उन किसानों के बारे में सोचा जो भारी क़र्ज़ लेकर अपनी खेती करते हैं? हमने ख़बरों को सिनेमा बना दिया है, इसलिए हर बार एक दर्शक की तरह विलेन की तलाश में होते हैं, बिना परिस्थितियों की जटिलता को समझे। हमें किसानों और वन्य जीवन दोनो को बचाना है, सिर्फ़ हमारी सोशल मीडिया छवि को नहीं।
प्रेक्षण 3-सरहद पर सैन्य कर्मियों की शहादत पर प्रतिक्रिया
प्रेक्षण 4 – तमिलनाडु में हुई पुलिस हिरासत में हत्या पर प्रतिक्रिया
प्रेक्षण 5-पुलिस दल की निर्मम हत्या पर दर्शकों की प्रतिक्रिया
हर म्यूटेशन अच्छा नहीं होता!
हम ख़बरों के दर्शक बन गए हैं। हम ख़बरों पर दूर दूर से या तो ताली पीटते हैं, या आँसू बहाते हैं, या गाली देते है या तुरंत उन पर कोई सिनेमाई नतीजा चाहते हैं। ख़बरें भी इस तरह ही दिखायी जाती हैं कि कैसे हमें दर्शक की तरह मनोरंजन दिया जाए ना कि नागरिक की तरह सूचना। दर्शक की तरह अपने लॉकडाउन की बोरियत से बचने के लिए कभी हमें नए नए बालकनी वाले टास्क चाहिए होते हैं तो कभी अपनी टीवी स्क्रीन पर कुछ रोमांचक और जोखिमपूर्ण ख़बरें। क्योंकि ख़बरों को एक तरीक़े से दिखाया जाता है हम उस तरीक़े से शायद अपनी ज़िंदगी को जीने लग गए हैं – वहीं ब्रेकिंग न्यूज़ की सनसनी का अहसास, वही हर चीज़ में तेज़ी की उम्मीद और उसी तरह हर चीज़ में एक तीखी प्रतिक्रिया की माँग। हमारी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं का जीवनचक्र भी ख़बरों जितना रह गया है। तभी जब तक टीवी और डेटा चलता रहता है हम हर ख़बर पर प्रतिक्रिया देते रहते हैं, और शायद ख़बरें भी आजकल प्रतिक्रिया निकलवाने के लिए ही दी जाती हैं। हर प्रतिक्रिया अपने आप में एक सांस्कृतिक प्रदर्शन बन गयी है, जो भी किसी दर्शक के लिए ही दी और की जा रही है, जैसे हमारी सोशल मीडिया पोस्ट के दर्शक हमारे दोस्त हैं। हमें अपनी प्रतिक्रिया पर भी प्रतिक्रिया चाहिए। शायद हमें अब दर्शक नहीं विश्लेषक बनने की ज़रूरत है, क्योंकि समाज को उत्तेजित प्रतिक्रिया नहीं गहरे सवालों और स्थायी हलों की ज़रूरत है।आपको अब सिर्फ़ देखना नहीं, समझना भी होगा। देखने से ज़्यादा समझने पर ध्यान देंगे, तो ख़बरों को हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए आपस में सनसनी और मसाले की प्रतिस्पर्धा नहीं करनी पड़ेगी।
लेखिका सौम्या गुप्ता, मीडिया विजिल की असिस्टेंट एडिटर और डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर मीडिया विजिल के साथ काम कर रही हैं।
मीडिया विजिल का स्पॉंसर कोई कॉरपोरेट-राजनैतिक दल नहीं, आप हैं। हमको आर्थिक मदद करने के लिए – इस ख़बर के सबसे नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
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