उल्टी तीर, कमान को डाँटे – ‘दौर मूल्यांकन का – किस्सा अवमूल्यन का!’

दोस्तों ये दौर जितना मूल्यांकन का है उतन ही अवमूल्यन का भी है। महान राजनीतिज्ञ सुश्री सुषमा स्वराज के संसद में गूंजते वे स्वर, आज भी कानों में घूमते हैं, ”जैसे – जैसे करेंसी गिरती है, वैसे – वैसे देश की प्रतिष्ठा गिरती है…” और वे ये तब बोल रही थीं कि जब भारतीय रुपये की कीमत डाॅलर के मुकाबले 68 रुपये के आसपास थी, मौसम खुशनुमा था, भाजपा विपक्ष में थी और सत्ता में कांग्रेस थी।

आज पढ़ा कि रुपये की कीमत गिरकर 77.50 हो गई है। सोचता हूं सुषमा जी होती तो देश की इस गिरती प्रतिष्ठा पर क्या कहती? बुज़ुर्ग कह गए हैं, रुपया आनी-जानी चीज़ है। सोचता हूं गलत कह गए हैं..आज के दौर को देखकर तो लगता है कि रुपया सिर्फ ‘जानी-जानी’ चीज़ है। जब से देश संभाला है, रुपया जा ही रहा है..कहीं से आता दिखाई नहीं देता। कहीं से आने की संभावना होती है, तो उस पर लाॅकडाउन लग जाता है।

कुछ एक दो महान व्यापारियों को छोड़ दिया जाए, जिनकी व्यापारिक मेधा में 2014 के बाद जबरदस्त उछाल आया है। “साथ ही उनके व्यापारिक विकास और संपति के भंडार में भी” तो उन्हें छोड़ कर इस देश के हर व्यक्ति और हर वस्तु की हालत अवमूल्यन की ही है। सामाजिक अवमूल्यन हो रहा है, धार्मिक अवमूल्यन हो रहा है, रोजगार के क्षेत्र में अवमूल्यन होता जा रहा है और जैसा कि सुषमा स्वराज जी ने कहा था, लगातार देश की करंसी और प्रतिष्ठा का भी अवमूल्यन ही हो रहा है।


ऐसी हालत में भी कुछ स्वयंसेवी किस्म के लोग हैं, जो सकारात्मक मूल्यांकन की ज़िद पकड़ कर बैठे हैं और अवमूल्यन के इस दौर को दरकिनार करना चाहते हैं। साहसी लोग हैं, जो 1100 रुपये का सिलेंडर लेकर भी महंगाई के अस्तित्व को नकारते हैं। ऐसे साहसी लोगों से सबक लेना चाहिए। प्रधानमंत्री पूरी दुनिया को खाना खिलाने का दावा कर रहे हैं और उनके अपने देश में भुखमरी से जनता बेहाल पड़ी है। “घर में नहीं हैं दाने – अम्मां चली भुनाने” का इससे सटीक उदाहरण आपको पूरे इतिहास और भूगोल में नहीं मिलेगा। यही हाल तब था जब कोरोना के इंजेक्शन पर मारामारी चल रही थी। इधर देश की जनता को स्लाॅट नहीं मिल रहा था, उधर प्रधानमंत्री पूरी दुनिया में कोरोना इंजेक्शन बांटने की घोषणा कर रहे थे। प्रधानमंत्री अपना मूल्यांकन इतिहास पुरुष के तौर पर करवाने की ज़िद पर अड़े हैं, इसलिए हर बात की दहलीज़ पर खड़े हैं। अभी कुछ समय पहले ये भी सुना कि वो विश्व शांति के लिए नोबल पुरस्कार पाने का जुगाड़ भी कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि मिल ही जाए, जब बराक ओबामा को इसलिए मिल सकता है कि वो राष्ट्रपति चुने गए, तो प्रधानसेवक को मिल जाना कोई आश्चर्य नहीं होगा।

मुझे तो तब भी कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि प्रधानमंत्री को ये नोबेल, चिकित्सा के क्षेत्र में, ”कोरोना वायरस के खात्मे के लिए थाली के साउंड इफेक्ट, और दिए के लाइट इफेक्ट की व्याख्या” या भौतिकी के क्षेत्र में, ”नाले की गैस से चाय बनाने, और हवा से ऑक्सीजन जमा करके ऑक्सीजन की कमी को पूरा करने की काल्पनिक तकनीक” के लिए मिल जाए।
खै़र मूल्यांकन पर किसी का निजी अधिकार नहीं है और जिसके जी में, जैसा आए – वैसा मूल्यांकन करने के लिए वो स्वतंत्र है और स्वतंत्र होना ही चाहिए। लेकिन अवमूल्यन के मूल्यांकन पर क्या कहा जाए। है कोई ऐसा? जो सुषमा जी की तरह देश की प्रतिष्ठा और करंसी के अवमूल्यन पर संसद में इस तरह का शानदार बयान दे सके। रुपये के यूं बिना किसी इज्जत की परवाह किए गिरते जाना वाकई बहुत दुखद है। खुद रुपये से ये पूछा जाना चाहिए कि वो मोदी के इतना खिलाफ क्यों है कि लगातार गिरता ही जा रहा है। हालांकि ये सवाल ‘डाॅलर’ से भी पूछा जा सकता है, लेकिन हो सकता है वहां से जवाब की जगह डांट मिल जाए। लगातार ”अवमूल्यित” होते ”विद्वजन ध्यान दें, नया शब्द खोजा है” रुपये की इस हालत पर चचा ग़ालिब ने एक शेर कहा था

वो गिरता जाए है आहिस्ता आहिस्ता
हमें देश की प्रतिष्ठा की चिंता होती है….

इसे ग़ालिब का ही शेर माना जाए, क्योंकि ऐसे शेर ग़ालिब के ही होते हैं। शुक्रिया…

 

(उल्टी तीर-कमान को डांटे, फिल्मकार-संस्कृतिकर्मी कपिल शर्मा के नियमित व्यंग्य स्तंभ के तौर पर मीडिया विजिल पर प्रकाशित होगा।)

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