खुल गया बेशुमार सुरक्षित ऊर्जा का दरवाज़ा

लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लैबोरेट्री (एलएलएनएल) की ओर से फ्यूजन एनर्जी के क्षेत्र में एक बड़े ब्रेकथ्रू की घोषणा हुई है। अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में स्थित यह प्रयोगशाला कार्बनमुक्त और अक्षय स्रोत वाली बड़े पैमाने की ऊर्जा हासिल करने की विश्वव्यापी आकांक्षा के सिर्फ एक पहलू पर लंबे समय से काम कर रही है। उसका फोकस सिर्फ फ्यूजन एनर्जी के लिए ट्रिगर विकसित करने पर है। ट्रिगर यानी कोई ऐसा तरीका, जिससे हाइड्रोजन आइसोटोपों की बहुत जरा सी मात्रा से बहुत ज्यादा ऊर्जा का विस्फोट हो सके।

ऐसी कोशिशें दुनिया भर में पिछले तीन दशकों से जारी हैं लेकिन उनमें निकलने वाली ऊर्जा इस काम में लगाई गई ऊर्जा से कम ही रहती आई है। एलएलएनएल ने पिछले साल 1.9 मेगाजूल ऊर्जा लगाकर 1.35 मेगाजूल ऊर्जा हासिल करने की बात कही थी। लागत ऊर्जा की लगभग 70 प्रतिशत प्राप्ति की को भी एक बड़ी उपलब्धि की तरह देखा गया था। लेकिन इस बार उसने 2.1 मेगाजूल ऊर्जा लगाकर 2.5 मेगाजूल ऊर्जा हासिल करने की घोषणा की है, जिसे यकीनन उसका बहुत बड़ा कमाल कहना होगा। इससे एक बात तो साबित हो गई कि फ्यूजन के जरिये पावरहाउस में ऊर्जा का नेट उत्पादन संभव है।

एलएलएनएल की टेक्नीक समझने में ज्यादा मुश्किल कभी नहीं रही। तीन फुटबॉल मैदानों जितने लंबे-चौड़े इलाके में 192 लेजर गन लगाई गई हैं। उनके बीच में होह्लेरम नाम का एक सोने का सिलिंडर रखा है। जाहिर है, इस काम में सोने का इस्तेमाल उसकी कीमत और चमक-दमक देखकर नहीं, उसके अनोखे भौतिक और रासायनिक गुणों को ध्यान में रखते हुए किया गया है। यह लेजर की ऊर्जा को कम से कम सोखता है और उसका फोकस बनाए रखने में भी इससे मदद मिलती है। होह्लेरम सिलिंडर में हाइड्रोजन के दोनों भारी आइसोटोपों ड्यूटीरियम और ट्रिटियम की थोड़ी सी मात्रा एक कैप्सूल में बंद रखी जाती है। लेजर के जरिए इस फ्यूल को कई करोड़ डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाता है। इतने ऊंचे तापमान पर फ्यूल के नाभिक आपस में जुड़ने लगते हैं और फ्यूजन एनर्जी पैदा होती है।

जाहिर है, इस सरसरी व्याख्या से कई सारे सवाल पैदा होते हैं। पहला तो यही कि धरती पर सोने समेत कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो 5000 डिग्री से ज्यादा तापमान पर भाप न बन जाए, फिर होह्लेरम या कोई भी सिलिंडर करोड़ों डिग्री का टेंपरेचर बर्दाश्त कैसे कर पाता है? इसे ऐसे समझा जाए कि अभी हम बहुत छोटी जगह पर बहुत कम समय के लिए होने वाले फ्यूजन की बात कर रहे हैं। बाल की मोटाई से भी काफी छोटी जगह में सेकंड के हजारवें हिस्से में घटित हो जाने वाली करोड़ों डिग्री सेल्सियस की कोई घटना सोने के सिलिंडर को भला कितना नुकसान पहुंचा पाएगी? वैसे भी, अभी के चर्चित प्रयोग में 2.1 मेगाजूल लगाकर पाई गई 2.5 मेगाजूल ऊर्जा में कुल प्राप्ति 0.4 मेगाजूल की है, जिससे सिर्फ एक केतली पानी उबाला जा सकता है। इसका पैमाना बड़ा होगा तो होह्लेरम सिलिंडर वाकई किसी काम नहीं आएगा।

एक दो बातें ड्यूटीरियम और ट्रिटियम के बारे में भी कही जा सकती हैं। ये दोनों हाइड्रोजन के ही विरल और काफी विरल रूप हैं। हाइड्रोजन के परमाणु में एक इलेक्ट्रॉन एक प्रोटॉन का चक्कर काटता है। वह प्रोटॉन ही यहां परमाणु के नाभिक की भूमिका निभाता है। ड्यूटीरियम के परमाणु में बाकी सब वैसा ही होता है, सिर्फ उसके नाभिक में एक प्रोटॉन के अलावा एक न्यूट्रॉन भी मौजूद होता है।

माना जाता है कि दस टन समुद्री पानी से सिद्धांततः एक से डेढ़ किलो तक भारी पानी निकाला जा सकता है, जिसकी इलेक्ट्रोलिसिस से हासिल की गई हाइड्रोजन लगभग पूरी की पूरी ड्यूटीरियम होती है। विश्व बाजार में भारी पानी और ड्यूटीरियम की खरीद-बिक्री होती है, हालांकि परमाणु अप्रसार की शर्तों के साथ। रही बात ट्रिटियम की तो इसे प्राकृतिक रूप से निकाल पाना लगभग असंभव होता है। हाइड्रोजन के इस सबसे भारी आइसोटोप के परमाणु में नाभिक की जगह पर एक प्रोटान और दो न्यूट्रॉन मौजूद होते हैं। इसका उत्पादन एटमी बिजलीघरों के बायप्रॉडक्ट की तरह होता है, खुले बाजार में यह नहीं मिलती।

अगला सवाल यह कि क्या लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लैबोरेट्री की इस कामयाबी के बाद दुनिया में फ्यूजन एनर्जी के युग की शुरुआत हो गई है? जवाब में इतना ही कहा जा सकता है कि यह सिर्फ हाथी की पूंछ या सूंड़ या कान जैसा कुछ है, पूरा हाथी अभी कहीं दूर टहल रहा है। ध्यान रहे, 1980 के दशक का पहला आधा हिस्सा गुजर जाने तक इंसानी उपयोगिता वाली फ्यूजन एनर्जी की कल्पना भी नहीं की जाती थी। परमाणु क्षमता वाले पांचो देश- अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन फ्यूजन की ही धारणा पर आधारित हाइड्रोजन बम का विस्फोट कर चुके थे, लेकिन इसके रचनात्मक उपयोग पर कोई गंभीर विमर्श तक नहीं हुआ था। कई तकनीकों का विध्वंसक इस्तेमाल ही हो पाता है। बारूद, डाइनेमाइट या टीएनटी का रचनात्मक उपयोग पहाड़ तोड़ने जैसे कामों में भले हो जाए, इनसे बिजली बनाने की फिक्र कौन करता है?

लेकिन 1980 के दशक के दूसरे हिस्से में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध खत्म करने की बैठकें शुरू हुईं तो रूसी नेता मिखाइल गोर्बाचेव ने इस कसरत को सकारात्मक मोड़ देने के लिए कई सुझाव दिए, जिनमें एक मिल-जुलकर फ्यूजन एनर्जी की संभावना पर काम करने का भी था। इसकी तकनीकी जटिलताओं पर बात करें तो शुरुआती अनुमान के आधार पर ऐसे 19 क्षेत्र खोजे गए हैं, जिनमें तकनीकी ब्रेकथ्रू हासिल करके सन 2035 तक प्रायोगिक आधार पर फ्यूजन के जरिये बिजली बनाने का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। एलएलएनएल का काम इन 19 में से एक पर केंद्रित है।

सभी 19 क्षेत्रों की जानकारी यहां दे पाना संभव नहीं है लेकिन जटिलता का अंदाजा लगाने के लिए कुछेक का जिक्र किया जा सकता है। सबसे पहली यह कि परमाणु नाभिकों का स्वभाव अति सघन धनात्मक आवेश वाला होता है और वे जितना एक-दूसरे के करीब आते हैं, उतनी ही ज्यादा ताकत से एक-दूसरे से दूर जाने का प्रयास करते हैं। जबर्दस्त ऊर्जा वाली लेजर किरणें भारी तापमान और दबाव पैदा करके उन्हें जोड़ने का प्रयास करती हैं लेकिन लाख-करोड़ नाभिकों में दो-चार को ही वे जोड़ पाती हैं, बाकी छितराकर इधर-उधर हो जाते हैं। कुल मिलाकर यह बहुत छोटी और क्षणिक घटना बनती है। ऐसे में माना यही जाता है कि लेजर फ्यूजन ऊर्जा उत्पादन के लिए ज्यादा कारगर तरीका नहीं है। दक्षिण कोरिया और चीन ने इसके लिए दूसरे तरीके अपनाकर फ्यूजन को तकरीबन पौने दो मिनट तक टिकाए रखने के उपाय किए हैं, लेकिन उनमें हासिल की गई ऊर्जा फ्यूजन में लगाई गई ऊर्जा से बहुत-बहुत कम रही है।

इससे आगे की समस्या अति उच्च तापमान से जुड़ी है। ऐसी तकनीकों पर काम चल रहा है जो ऊर्जा को तेजी से बाहर करें, फ्यूजन वाली जगह में उसे ज्यादा देर तक टिकने ही न दें। फिर भी वहां का तापमान लगातार दस हजार डिग्री से तो ऊपर ही रहेगा। क्या समय से कोई कृत्रिम पदार्थ ऐसा बनाया जा सकेगा, जो इस तापमान पर भाप बन जाना तो दूर, पिघलने या टेढ़ा-मेढ़ा होने से भी बचा रहे? एक बहुत बड़ी समस्या बेहद ताकतवर चुंबकों के निर्माण की है, जो फ्यूल को बहुत छोटी जगह में बिल्कुल अधर में लटकाए रखें और वहीं उसे तेजी से घुमाते भी रहें, ताकि वह किसी भी सूरत में बिखरने न पाए।

यहां से आगे भयानक गर्मी को बहुत तेजी से कामकाजी बिजली में बदलने की चुनौती है। अभी कोयले और गैसे से चलने वाले ताप बिजलीघरों से लेकर एटमी बिजलीघरों तक यह किस्सा आठ सौ डिग्री सेल्सियस से छह हजार डिग्री सेल्सियस तक पर भाप बनाने और उससे डायनेमो के पंखे घुमाने तक सीमित है। इस तापमान की रेंज सौ, हजार या लाख गुनी हो जाने पर कहां की भाप और कहां का डायनेमो! जाहिर है, इस मामले में कई सारे छोटे-छोटे पहलुओं पर बिल्कुल नई नजर से काम हो रहा है।

फिर फ्यूजन से पैदा होने वाली बिजली के ट्रांसमिशन का मामला भी बाकी बिजली जैसा नहीं होगा। एक अनुमान के मुताबिक इसका पोटेंशियल बहुत ज्यादा होगा और इसकी आवाजाही के लिए ग्रिड में भी कुछ बड़े बदलाव करने पड़ सकते हैं। वैज्ञानिकों को इन जटिलताओं इन्हें सुलझाने में आने वाले खर्चे का कुछ अंदाजा रहा है। सन 2006 से दक्षिणी फ्रांस में जारी परियोजना इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (इटेर) इसीलिए बनाई गई थी कि सारे देश इसके विविध पहलुओं पर अलग से भी प्रयोग करते रहें, लेकिन इसके साथ-साथ इटेर में उनकी साझा आजमाइश भी होती रहे। भारत शुरू से ही इटेर का हिस्सा रहा है और नियमित रूप से इसके बजट का नवां हिस्सा सामान या नकदी के रूप में अदा करता है। बदले में भारत के शोधार्थी इसमें काम करते हुए फ्यूजन के विविध पहलुओं से वाकिफ होते हैं।

सन 2025 से 2035 के बीच का समय कई मामलों में दुनिया के लिए निर्णायक होने जा रहा है। इस अवधि में ग्लोबल वॉर्मिंग के टिपिंग पॉइंट तक पहुंच जाने के लक्षण साफ दिखाई दे सकते हैं, हालांकि वे आज भी कुछ कम नहीं दिखाई दे रहे हैं। एक खतरा पेट्रोलियम और गैस के सोते ही सूख जाने का भी है, जिसके मुताबिक अरब देशों ने पहलकदमियां लेनी शुरू कर दी हैं, लेकिन 2008-09 में मंदी गहराने के साथ ही इस खतरे पर बात होनी बंद हुई तो वह आज तक बंद ही है।

सन 2035 के बाद दुनिया के कार्बन उत्सर्जन में नेट तौर पर कमी आने लगे, इस साझा ग्लोबल लक्ष्य के मुताबिक दुनिया भर की सरकारें अपनी नीतियां बना रही हैं। इसके लिए कार्बन वाले ऊर्जा स्रोतों में कमी लाने और अक्षय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ाने का काम लगातार करना होगा। इसमें मुश्किल यह है कि सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, दोनों की आपूर्ति अनियमित है। कुल आपूर्ति में इनका हिस्सा बढ़ने पर बीच-बीच में ग्रिड ही ठप हो जाने का खतरा रहता है। ग्रिड स्टेबिलिटी सुनिश्चित करने वाली सुरक्षित और स्वच्छ ऊर्जा फ्यूजन एनर्जी ही हो सकती है। इस दृष्टि से अमेरिका से आने वाली खुशखबरी का स्वागत है। उम्मीद करें कि ऐसी बहुत सारी खुशखबरियां आने वाले दिनों में मिलती रहेंगी और वक्त रहते हम सर्वनाश से बचने के तरीके खोज लेंगे।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

 

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