बच्चों के गीतों से रोशन है इलाहाबाद का ये बाग

नागरिकता कानून (CAA) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में विश्वविद्यालयों के छात्रों, युवाओं, वकीलों और महिलाओं आदि की भूमिका पर तो मीडिया में चर्चा और ख़बरें आती रही हैं किन्तु इन आंदोलनों में जहां मांएं शामिल हैं वहां उनके साथ बच्चे भी बराबर शरीक हैं किन्तु इन बच्चों की मौजूदगी की चर्चा शायद ही कहीं-कहीं हुई है. जंतर मंतर से लेकर शाहीन बाग़ और अब इलाहाबाद के रोशन बाग़ में जहां हजारों की संख्या में महिलाएं नागरिकता कानून के खिलाफ धरने पर बैठी हैं, वहीं उन मांओं के साथ बच्चे भी इस आन्दोलन में शिरकत कर रहे हैं. ये बच्चे केवल इसलिए वहां नहीं हैं क्योंकि उनकी माँ या दादी वहां बैठी हैं, ये बच्चे भी अपने स्तर पर भगत सिंह, गांधी, बिस्मिल, आंबेडकर आदि बनकर इस आन्दोलन का हिस्सा बन रहे हैं. एकता के नारे लगा रहे हैं, कविता पाठ कर रहे हैं. यह समय न केवल सभी वयस्क नागरिकों के लिए आन्दोलन और संघर्ष का वक्त है, बल्कि यह समय भारत के बच्चों के लिए भी एक ऐतिहासिक दौर है. इन आंदोलनों में बच्चों को देख कर आज़ादी की लड़ाई के वक्त गांधी के आगे चलते उस बच्चे की तस्वीर उभर आती है जेहन में. इलाहाबाद से सीमा आज़ाद की यह रिपोर्ट पढ़िए, तस्वीरें देखिये: (संपादक)


इलाहाबाद में रोशन बाग़ का मंसूर अली पार्क। यहां कल तक अम्बेडकर और गांधी जी थे, आज यहां भगत सिंह, अशफ़ाक उल्ला खां, बिस्मिल, अबुल कलाम आज़ाद भी आ पहुंचे थे। सभी हल्का हल्का मुस्कुरा रहे थे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तो खैर CAA, NRC और NPR के खिलाफ चलने वाले आंदोलन का न अलगा सकने वाला हिस्सा बन चुके हैं। “इन आंदोलनों से क्या होगा?” इसका जवाब आज के अनुभव से अच्छे से दिया जा सकता है। इसका ये जवाब तो है कि जिस बात के लिए आंदोलन है, वो हासिल हो सकता है, लेकिन इसके और बहुत से पहलू हैं।

पार्क में ऐसे कई बच्चे और किशोर दिख जाएंगे, जो माइक पर अपनी कविता या किसी दूसरे की लिखी कविता सुनाने की तैयारी करते दिख जाएंगे। इस मौके पर सुनाने के लिए के लिए बच्चे कुछ न कुछ लिख रहे हैं। शगुफ्ता अंजुम अपनी सहेलियों के बीच अपनी कविता सुनाने की रिहर्सल कर रहीं थी, थोड़ी देर में उन्हें माइक पर बुलाया जाना था। मैंने भी सुना, फिर थोड़ा झिझक कर कहा, “नक़ाब हटाकर सुनाओ न”

थोड़ा शरमाते हुए सहेलियों के कहने पर उन्होंने नक़ाब हटा दिया और अपनी रचना रिकॉर्ड कराई, उन्होंने तय किया था कि कविता के अंत में नारा भी लगाना है, सो सहेलियों के साथ उसका रियाज़ भी किया।

उमर मुश्ताक का भी बहुत मन कर रहा था कि वे भी माइक पर कुछ सुनाएंगे, अम्मी अब्बू से कहा तो उन्होंने फ़ैज़ की नज़्म “हम देखेंगे” लिख कर दी। उमर ने बहुत संजीदगी के साथ उसे माइक हाथ में लेकर पढ़ा, लोगों ने तालियों के साथ उनका साथ दिया। फिर वे गदगद होकर भागे, और दोस्तों को गर्व से भर कर देखा।

और कई बच्चे अपना नाम लिखा चुके थे, और अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे, भाषण उन्हें बोर कर रहे थे, लेकिन नारे अच्छे लगते हैं, वे उछल कर हाथ उठाकर मुट्ठी तानकर नारे में अपना सुर मिलाते हैं। कुछ बच्चियों ने अपने चेहरे पर रंग से तिरंगा झंडा बनाया हुआ है, बाकी कईयों का मन बनाने को ललच रहा है।

एक झुंड ने मेरे पास आकर पूछा “हमको भी चेहरे पर झंडा बनाना है, कहां बन रहा है?” मैंने उनकी मदद के लिए वालंटियर से पूछा, तो उन्होंने बताया सब घर से बना कर आए हैं, बच्चियों का चेहरा उतर गया, मैंने उनसे कहा, “अच्छा मैं कल रंग लाकर बना दूंगी”, लेकिन उन्हें तो अभी ही बनाना था।

एक बच्ची से मैंने पूछा “झंडा किसने बनाया चेहरे पर? उसने बताया “मैंने” मैने उसे बताया कि उसने झंडा उल्टा बना लिया है, तो मुंह पर हाथ रख खिस से हंस पड़ी और भाग गई। इतने तिरंगे झंडे देख कर एक लड़का अपने दोस्त से कह रहा है “यार 26 जनवरी वाली फीलिंग आ रही है।”

कई लड़कियों से पूछा, यहां आने के लिए घर में किसी ने मना नहीं किया? उन्होंने बताया “नहीं, अम्मी अब्बू सभी आए हैं। सलेहा जी आज अपनी 9 वीं में पढ़ने वाली बेटी को लाने में कामयाब रहीं, उनका कहना है, उसे ये सब भी सीखना चाहिए, सिर्फ पढ़ना ही काफी नहीं।

शाहिना बाहर रहने वाले अपने पति को बोल कर आई हैं कि कल बच्चों की छुट्टी है, इसलिए वे रात में भी यही रुकेंगी। एक वॉलंटियर ने बताया कल रात जाकर उसने घर में सबका खाना बनाया मेहमान आ गए तो उनका भी बनाया, और फिर यहां आ गई। भाई ने कहा “तुम नहीं सुधरोगी।” मैंने पूछा “भाई से खाना बनाने में मदद नहीं ली?” ” नहीं मैं सब कुछ कर सकती हूं, लेकिन यहां आऊंगी ज़रूर।”

17 से 25 साल तक के वालंटियर लड़के लड़कियां बिना किसी टैबू के एक दूसरे से बात कर रहे हैं, व्यवस्था संभाल रहे हैं, कईयों का गला खराब हो गया है।

इस आंदोलन में लड़के-लड़कियां, मां बाप, भाई बहन पति पत्नी सब दोस्त हो रहे हैं। पाश के शब्दों में “सभी संबंधों का दोस्त में बदल जाना” यहां दिख रहा है।

आंदोलन की प्रक्रिया ही बहुत कुछ पुराने को तोड़ नए में बदलती है, इसे देखना हो तो रोशन बाग़ आइए।

हम सबने आजादी की लड़ाई नहीं देखी, ये कैसी रही होगी, रोशन बाग़ में इसकी झलक मिल रही है।

नागरिकता कानून के खिलाफ चलने वाला यह आंदोलन नागरिकों को भी बदल रहा है। देखिए तो ज़रा।



 

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