चंद्रशेखर की नयी पार्टी असपा दूसरी बसपा ही होगी, उससे अलग नहीं

भीम आर्मी के नेता चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपने ही नाम से अपनी नयी राजनीतिक पार्टी बना ली- आज़ाद समाज पार्टी। इस पार्टी का राजनीतिक एजेंडा क्या है, वह अगर सत्ता में आयी तो उसका आर्थिक कार्यक्रम क्या होगा, यह चन्द्रशेखर ने स्पष्ट नहीं किया है। भीम आर्मी के नेता के रूप में उनकी अब तक की अल्प विचार यात्रा को देखते हुए मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उनकी अपनी कोई वैचारिकी नहीं है। उनका विज़न भी स्पष्ट नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे नहीं लगता कि वह कोई क्रांतिकारी या वैकल्पिक राजनीतिक कार्यक्रम देंगे। इसलिए नयी पार्टी असपा भी दूसरी बसपा ही होगी।

जब मैंने यह ख़बर पढ़ी कि चंद्रशेखर आज़ाद ने आज़ाद समाज पार्टी के नाम से एक नयी पार्टी बना ली है, तो मुझे  ऐसा  लगा कि जैसे उन्होंने बहुजन समाज पार्टी से अलग होकर अपने नाम से एक अलग आज़ाद गुट बना लिया है। जैसे किसी समय जगजीवनराम की ‘कांग्रेस जे’ थी। ऐसी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता है। एक प्रकार से वो व्यक्ति केंद्रित पार्टियां होती हैं। इसलिए कोई शक नहीं कि आज़ाद समाज पार्टी भी व्यक्ति केंद्रित पार्टी ही साबित होगी। जिस तरह से बसपा में सारे निर्णय मायावती के अधीन हैं, कांग्रेस जे में सारे निर्णय जगजीवनराम के अधीन थे, उसी प्रकार असपा में भी सारे निर्णय चन्द्रशेखर आज़ाद के अधीन होंगे। इसलिए ऐसी पार्टियों से किसी परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती।

दूसरी बात चन्द्रशेखर ने यह कही है कि उनकी पार्टी कांशीराम के सिद्धांतों पर चलेगी। यह बयान देकर उन्होंने अपना नायक कांशीराम को माना है। वह यह कहना चाहते हैं कि मायावती ने कांशीराम के सिद्धांतों को त्यागकर बसपा को खत्म कर दिया है। इसलिए वह कांशीराम के पदचिन्हों पर चलकर असपा को बसपा का विकल्प बनाएंगे।

उनके बयान से लगता है कि चन्द्रशेखर कांशीराम के बारे में एक बहुत बड़ी गलतफहमी के शिकार हैं। इस गलतफहमी के शिकार बहुत सारे अन्य बसपाई भी हैं। वे भी समझते हैं कि कांशीराम सही थे, मायावती ग़लत हैं। लेकिन यह सोच ठीक नहीं है। हर गुरु अपने शिष्य को वही सिखाता है, जो वह जानता है।

दर्जी अपने शिष्य को कपड़े काटना और सिलना ही सिखाता है, लोहार अपने शिष्य को लोहा ही काटना पीटना सिखाता है, उसी प्रकार कांशीराम ने भी अपनी शिष्या मायावती को वही राजनीति सिखाई है, जिसके वह प्रवर्तक थे। अब सवाल है कि कांशीराम की राजनीति क्या थी? यह किसी रहस्य की तरह कोई गूढ़ प्रश्न नहीं है। पूरा देश जानता है कि उनकी राजनीति क्या थी? फिर चन्द्रशेखर इसे क्यों नहीं समझ सके?  इसे समझना चाहिए। इसे हम मायावती की राजनीति से भी समझ सकते हैं क्योंकि यह सारभौमिक सत्य है कि शिष्य में गुरु का ही अक्स दिखाई देता है। पर अगर लोगों के दिमाग़ में यह बैठा हुआ है कि मायावती जो राजनीति कर रही हैं वह कांशीराम की राजनीति के विपरीत है, तो अवश्य ही हमें कांशीराम के राजनीतिक जीवन का अवलोकन करना होगा।

कांशीराम कहते थे कि उनका यह सिद्धांत है कि जिनके साथ वो समझौता करते हैं, उनके साथ संघर्ष नहीं करते और जिनसे उनका संघर्ष है, उनसे समझौता नहीं करते। कांशीराम ने अपने जीवन में ही इस सिद्धांत को तोड़ दिया था। उन्होंने समाजवादी पार्टी से समझौता किया था और चुनावों में गठबंधन किया था। इस गठबंधन ने ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ अभूतपूर्व विजय प्राप्त की थी। पर ग्यारह महीने बाद ही उन्होंने जिनके साथ समझौता था, उनके ख़िलाफ़ संघर्ष शुरू कर दिया और गठबंधन को तोड़ दिया। उन्होंने उस भाजपा से समझौता कर लिया जिससे उनका संघर्ष था।

उन्होंने एक बार नहीं, तीन बार भाजपा से समझौता किया और गठबंधन करके सरकार बनायी। वह जनता को भ्रमित करने के लिए कहते थे कि कांग्रेस नागनाथ है और भाजपा सांपनाथ है। वह भाजपा से समझौता करने के बाद बयान देते थे कि हमें नागनाथ से लड़ने के लिए सांपनाथ से समझौता करना ही पड़ेगा। पर असल में उन्हें अपने स्वार्थ सिद्ध करने थे, जो भाजपा में ही हो सकते थे। सवाल यह है, कि जब नागनाथ बुरा है तो सांपनाथ अच्छा कैसे हो सकता है? लेकिन यह सवाल उनके अनुयायी कभी नहीं पूछते थे क्योंकि सवाल पूछने वालों को वे कभी पसन्द नहीं करते थे।

वह कांग्रेस के दलित नेताओं को चमचा कहते थे और उनकी आलोचना में उन्होंने चमचा एज किताब भी लिखी थी। पर हक़ीक़त में वह स्वयं भी ऐसे ही लोगों को पसंद करते थे, जो आंख मींचकर उनकी बात मानते थे और कोई सवाल नहीं पूछते थे। इसलिए जब उन्होंने भाजपा से समझौता किया, तो उनके किसी भी भक्त ने उनसे यह नहीं पूछा कि जिससे संघर्ष है, उससे समझौता क्यों किया गया? कुछ ने पूछने का साहस किया था, पर उन्हें उन्होंने बाहर का रास्ता दिखा दिया था। वह बहुत चालाकी से रैलियों में भाजपा की आलोचना करते थे, पर भीतर से वह उसके साथ थे। इससे बड़ा प्रमाण उनके भाजपा प्रेम का और क्या हो सकता है कि वे गुजरात में दंगों के बाद गुजरात के दलितों से मोदी के लिए वोट मांगने गए थे।

उन्होंने भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी कहने वालों की भी आलोचना की थी और बाकायदा बयान दिया था कि भाजपा साम्प्रदायिक पार्टी नहीं है। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या कांशीराम की ये नीतियां बहुजन समाज के हित में थीं? क्या वह बहुजनों के सहारे हिन्दूवादी ताकतों को मजबूत नहीं कर रहे थे? क्या ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ बहुजन राजनीति उन्हीं के कारण अवसान की ओर नहीं गयी? क्या उन्हीं के कारण भाजपा सत्ता में नहीं आयी? जो अब भी कांशीराम को सही समझते हैं, उन्हें उस पूरी पृष्ठभूमि को देखने की जरूरत है, जो कांशीराम के पीछे की है।

कांशीराम आरपीआइ (रिपब्लिकन पार्टी) के ख़िलाफ़ या उसके पतन के बाद मैदान में आये थे। सबसे पहले उन्होंने दलित, पिछड़े, और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के सरकारी कर्मचारियों का संघ बामसेफ़ बनाया था, जिनके द्वारा दिए गए मासिक चंदे से वह सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण की गतिविधियों को अंजाम देते थे। इन गतिविधियों का उद्देश्य राजनीतिक था, जिसे आरएसएस ने भांप लिया था। फलतः आरएसएस के साथ उनका गुप्त समझौता हुआ और वे कांग्रेस के विरुद्ध आरएसएस के मिशन पर सक्रिय हो गए। यह मिशन था दलितों को कांग्रेस के खेमे से बाहर निकालना। कांग्रेस के सिंहासन के चार पायों में दलित और मुसलमान दो मजबूत पाया थे।

मुस्लिम पाया 1992 में कांग्रेस की हुकूमत में बाबरी मस्जिद विध्वंस से टूट गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव आरएसएस के समर्थक थे, जिन्होंने भाजपा और संघ परिवार के लिए बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए अनुकूल माहौल पैदा किया था। मुसलमान नरसिंह राव से नाराज़ होकर कांग्रेस से अलग हो गया। अब रह गया दलित, जो अब भी कांग्रेस से जुड़ा था। सो दलित को कांग्रेस से अलग करने में कांशीराम की भूमिका सबसे बड़ी थी। मुख्य रूप से, कांग्रेस का विरोध ही बहुजन समाज पार्टी की बुनियाद में था। जब बसपा का निर्माण भी नहीं हुआ था, तब उन्होंने कांग्रेस के विरोध में पूना पैक्ट धिक्कार रैली निकाली थी, हालांकि यह गढ़े मुर्दे उखाड़ना था, जिसमें वह डॉ.आंबेडकर और गांधी के बीच इतिहास में हुए संघर्ष को उभार कर दलितों की भावनाओं को भुना रहे थे। इसमें उन्हें उसी तरह सफलता मिली, जिस तरह आरएसएस हिन्दू इतिहास और मिथकों को उभार कर हिन्दू उन्माद भड़काने में सफल होता है।

पूना पैक्ट इतिहास का विषय है, जो अब पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता क्योंकि स्वतंत्र भारत के संविधान में उसका समावेश हो चुका है। उसके विरुद्ध कोई नयी वैकल्पिक व्यवस्था कांशीराम के पास नहीं थी और न उनके अनुयायियों ने उनसे पूछा कि पूना पैक्ट के विरुद्ध वह कौन सी नयी व्यवस्था लागू करना चाहते थे? कांशीराम के ज्यादातर भाषण प्रकाशित हो चुके हैं, जिनसे हमें उन्हें ठीक से समझने में मदद मिल सकती है। उनका पुनर्मूल्यांकन किये जाने की जरूरत है। डॉ.आंबेडकर ने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद इन दोनों को दलितों का शत्रु बताया था और उनके विरुद्ध वे आजीवन संघर्षरत रहे थे।

किंतु कांशीराम, जो अपने आपको डॉ. आंबेडकर का अनुयायी बताते थे, कांग्रेस और कम्युनिस्टों को दलितों का शत्रु कहते थे और उन्होंने आजीवन दोनों के ख़िलाफ़ ही आवाज उठाई थी। वह कम्युनिस्टों को हरी घास का हरा सांप कहते थे। वह इस बात का दावा करते थे कि जब भी पश्चिम बंगाल जाएंगे, तो कम्युनिस्टों को बंगाल की खाड़ी में फेंक देंगे। उनका उद्देश्य पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्टों को कमजोर करके भाजपा को सत्ता में लाना था, मगर वह वहां सफल नहीं हो सके।

इसमें संदेह नहीं कि डॉ. आंबेडकर भी कम्युनिस्टों के विरुद्ध थे, पर यह विरोध नीतिगत था और उन कम्युनिस्टों से था जो ब्राह्मणवाद से लड़े बिना ही मजदूर एकता चाहते थे। वे मार्क्सवाद के ख़िलाफ़ नहीं थे। वह कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो को एक क्रांतिकारी दस्तावेज मानते थे और मजदूर वर्ग के प्रत्येक सदस्य को उसे अनिवार्य रूप से पढ़ने को कहते थे। कांशीराम न केवल कम्युनिस्टों के, बल्कि मार्क्सवाद के भी खिलाफ़ थे। क्या यह आकस्मिक है कि आरएसएस और भाजपा भी कांग्रेस और कम्युनिस्टमुक्त भारत चाहते हैं, और कांशीराम भी इन दोनों को भारत से विदा करना चाहते थे? यह सचमुच आकस्मिक नहीं हो सकता।

अगर चन्द्रशेखर आज़ाद इन्हीं कांशीराम को अपनी राजनीति का आदर्श मानते हैं, तो निश्चित रूप से वह भी अपनी पार्टी को वहीं ले जाएंगे, जहाँ कांशीराम का अनुकरण करके मायावती बसपा को ले गई हैं।


कँवल भारती प्रख्यात दलित चिंतक और लेखक हैं।

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