यूपी सरकार का नया फैसला या बेईमानी? मज़दूरों को संवेदनाएं मिलेंगी, बस हक़ नहीं मिलेगा!

मजदूरों को हक़ नहीं मिलता , सिर्फ दुआएं मिलती हैं

पिछले कई हफ़्तों से मजदूरों को अखबारों में, सम्पादकीय लेखों में, हमारे सोशल मीडिया में और हमारी बातों में बहुत जगह मिल रही है – हाँ ये बात और है कि उनके लिए हमारे शहरों में जगह नहीं है। पिछले दिनों उनकी काफी चर्चा हुई, वो सड़कों पर भटकते हुए खुद रहे या न रहे, पर शुक्र मनाइए उनकी चर्चा तो होती रही। ये बात भी माननी पड़ेगी कि मजदूरों का प्रमोशन हुआ है, क्योंकि अब उनको हमारी दुआओं और बातों में बाकायदा जगह मिल रही है। कितना श्रम लगता है, उनके बारें में सोचने में? क्योंकि आप ये सोच पाएंगे, तो आप अपना श्रम सोचकर ही याद कर पाएं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 7 मई को एक अध्यादेश या आर्डिनेंस के तहत उद्योगों को श्रम अधिनियम में तीन साल तक छूट प्रदान करने का निर्णय लिया है। सरकार के अनुसार उद्योग कोरोना महासंकट के चलते बंद हैं या कमजोर हैं, उन्हें श्रम कानून में नरमी से फिर से चालू किया जा सकेगा। श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने बताया कि, इस छूट से बाहर से जो प्रवासी श्रमिक प्रदेश में लाए जा रहे हैं उन्हें बड़े पैमाने पर काम मिल सकेगा। 

उद्योगों पर नरमी, मजदूरों पर सख्ती

श्रम कानूनों में जो छूट मिली है उनके अनुसार अब उद्योगों को सिर्फ अब चार नियमों का पालन करना होगा;

उन्हें मजदूरों को समय पर वेतन देना होगा

बंधुआ मजदूरी के कानूनों का सख्त पालन करना होगा

कार्यस्थल पर स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का ध्यान रखना होगा

अगर कोई मजदूर चोट ग्रसित होता है तो उसको और उसके परिवार को उचित मुआवजा देने का प्रबंध करना होगा। 

पर लगता है कि, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भूस गए कि जब पिछले हफ्ते, कोरोना संकट में, सड़क पर पैदल चल रहे मज़दूरों के दुख से द्रवित होकर – उन्होंने 1 मई को अपने कामगारों और श्रमिकों के हितों के संरक्षण का संकल्प लिया था

तब योगी आदित्यनाथ ये बताना भूल गए कि इस संकल्प की कुछ शर्तें भी हैं। क्योंकि श्रम कानूनों में नरमी बरतते हुए, उन्होंने श्रमिकों पर थोड़ी सख्ती बरत दी। इस आर्डिनेंस के तहत अगले तीन साल उद्योग/नियोक्ता न तो मजदूरों को न्यूनतम आय देने के लिए बाध्य हैं, ना ही औरतों को बराबर वेतन देने के लिए बाध्य हैं और ना ही औरतों को भेदभाव सम्बंधित शिकायतों के लिए कोई राहत मिलेगी। और तो और उद्योगों को औद्योगिक विवाद नियम से भी रियायत मिल गयी है तो मजदूरों को बिना सरकार की सहमति के बड़ी तादाद में काम से निकाला भी जा सकता है। अगर मजदूरों को निकाला गया तो उन्हें उसका मुआवजा मिलें उसका भी अब अगले तीन साल के लिए कोई प्रावधान नहीं होगा। राज्य के श्रम मंत्री का कहना है कि इससे श्रमिकों को खूब रोज़गार मिलेगा। परन्तु, क्या उन्हें वो परिस्थतियाँ मिलेगी जिसमें वो अपने श्रम का उचित पारिश्रमिक ले सके? 

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धंधा है पर गन्दा है?

एक बात ध्यान देने लायक है की देश में मजदूरों की स्थिति अभी भी कोई ख़ास अच्छी नहीं है। इकनोमिक सर्वे 2018-19 के मुताबिक़, 3 में से 1 मजदूर को न्यूनतम आय नहीं मिलती हैं. दूसरा वेज कोड-2019 क़ानून के मुताबिक़, मजदूर अपनी आय सम्बंधित दिक्कत को लेकर किसी अदालत के पास नहीं जा सकते. वो सिर्फ किसी अर्धन्यायिक संस्था या किसी अपीलेंट न्यायाधिकरण के पास जा सकते हैं. इस वजह पहले से ही देश के करीब 93% मजदूर जो अनौपचारिक तरीके से काम कर रहे हैं, या 80% मजदूर जिनके पास  लिखित में कॉन्ट्रैक्ट नहीं है और 10% ऐसे मजदूर जो किसी ट्रेड यूनियन का हिस्सा नहीं हैं, वो अपने मौलिक अधिकारों के लिए लड़ने से पहले ही वंचित थे. तो फिर जब उद्योगों को ऐसी छूट मिलेगी तब हमारे मजदूरों के मानवाधिकारों का क्या होगा?

एक और अहम सवाल है – 3 साल तक सारे मानवाधिकारों के उल्लंघन से कैसे जूझा जाएगा, ये पता करना हमारे कमज़ोर वर्गों के लिए ज़रूरी है. क्या सरकार ने आपातकालीन परिस्थितियों के लिए कोई प्रावधान स्थापित किया है?

अर्थशास्त्र 1, सवाल कई

चलिए एक बार के लिए मान लेते हैं कि कोरोना संकट के चलते चरमारायी हुई अर्थ्व्यव्यस्था के लिए एक अत्यावश्यक और शीघ्र निर्णय लेना भी जरूरी है. और ये बात भी ठीक है की मजदूरों को जल्द से जल्द काम भी मिलना चाहिए, इसके लिए सरकार को हमारे पूंजीवादी उद्योगपतियों को कुछ रियायतें देनी होगी. परन्तु सबसे पहला सवाल कि नियमों में 3 साल की छूट क्यों हैं? हमारे पास 2008 की आर्थिक मंदी का उदाहरण है कि अगर लम्बे वक़्त तक एक बड़े वर्ग को उसकी आय नहीं मिलेगी तो अर्थव्यव्यस्था मुश्किल में भी जा सकती है. 2008 में भारत में मनमोहन सिंह सरकार ने, RBI से उधार लेकर उपभोक्ताओं और गरीबों तक आर्थिक सहायता भेजी थी जिससे उनकी खरीदने की क्षमता कम ना हो और बाज़ार में डिमांड बनी रहे. पर ये सिर्फ एक आर्थिक मुश्किल का नहीं, सामाजिक और सेहत सम्बन्धी मुश्किल का भी दौर है, और हाँ यहाँ पूर्णरूप से 2008 का मॉडल नहीं इस्तेमाल कर सकते. परन्तु ऐसे वक़्त में कम विदेशी डिमांड के चलते, सारा भार घरेलू मांग पर आ जाएगा, इसलिए ज़रूरी है कि मजदूरों की खरीदने की क्षमता बनी रहे. \

उत्तर प्रदेश की न्यूनतम आय, अकुशल और कुशल श्रमिकों के लिए 315-390 के बीच है, जो वैसे भी बहुत कम है. तो सरकार सिर्फ श्रमिकों को कम दरों पर और शीघ्र कार्य दिलाकर शांत नहीं बैठ सकती. इन नियमों में छूट देकर सरकार ने उद्योगपतियों को तो मना लिया , पर इसकी कीमत मजदूरों को अपने मानवधिकारों का बलिदान देकर चुकानी पड़ रही है. ये बात सुनकर अदम गोंडवी कि वो मार्मिक पंक्तियाँ याद आ जाती हैं, 

“वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है”

हाँ, ये मुश्किल समय है, और शायद सरकार के लिए कुछ फैसले लेना ज़रूरी था परन्तु इसके साथ उसे मजदूरों की मूलभूत ज़रूरतों के लिए भी कुछ बड़े पैकेज मुहैया कराने होंगे. जैसे उदाहरण के तौर पर सरकार को तमिलनाडु की तरह यूनिवर्सल पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम लागू करना चाहिए ताकि कोई गरीब भूखा ना सोये. इसके साथ ही क्या हमारी स्वास्थ्य सेवाएं अच्छी और निशुल्क चिकित्सा व्यवस्था दे सकती हैं?

इन नए नियमों के अनुसार अगले तीन साल महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान अपने मालिकों से कोई अतिरिक्त मदद नहीं मिलेगी और ना ही उद्योगपतियों को उन्हें समान वेतन देना पड़ेगा. जब न्यूनतम आय से छूट दे ही दी गयी थी, तब इस तरह से महिलाओं के लिए ऐसा क्यों करना पड़ा?

ऐसे निर्देशों के चलते बार बार हम ये सोचने पर मजबूर होते हैं की क्या सिर्फ मजदूरों के बारे में सोचा जाता है उनकी ज़रूरतों के बारे में नहीं? बल्कि क्या हम उनको देश की नागरिकता का ठीकठाक अधिकारी मानते भी हैं या नहीं?

लेखिका सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।

 

 


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