नोबेल शांति पुरस्कार: विदेशों में भी कोरोना से जूझते क्यूबा के डॉक्टरों से बेहतर कौन ?

कई बार ऐसे दृश्य, ऐसी तस्वीरें खींचे जाते वक्त़ ही कालजयी बने रहने का संकेत देती हैं।

वह एक ऐसी ही तस्वीर थी। मिलान, जो इटली के सम्पन्न उत्तरी हिस्से का मशहूर शहर है, वहां अपने डॉक्टरी यूनिफॉर्म पहनी एक टीम मालपेन्सा एयरपोर्ट पर उतर रही थी और मिलान के उस प्रसिद्ध एयरपोर्ट में जमे तमाम लोग खड़े होकर उनका अभिवादन कर रहे थे। (18 मार्च 2020)

यह क्यूबा के डॉक्टर तथा स्वास्थ्य पेशेवर थे जो इटली सरकार के निमंत्राण पर वहां पहुंचे थे। एयरपोर्ट में खड़े लोगों में चन्द श्रद्धालु ऐसे भी थे,  जिन्होंने अपने सीने पर क्रॉस बनाया, अपने भगवान को याद किया क्योंकि उनके हिसाब से क्यूबा के यह डॉक्टर किसी ‘फरिश्ते’ से कम नहीं थे।

मिलान वही इलाका है जो कोरोना से बुरी तरह प्रभावित इटली के लोम्बार्डी क्षेत्र में स्थित है। दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था कही जानेवाली इटली- जिसकी स्वास्थ्य सेवाओं की दुनिया में काफी बेहतर मानी जाती हैं, क्यूबाई डॉक्टरों की टीम जब उस मुल्क में पहुंची तब वहां कोरोना के चलते मरने वालों की तादाद वहां 9,000 पार कर गयी थी। (28 मार्च 2020) इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त मरनेवालों की यह संख्या 34,610 तक पहुंची है, अलबत्ता अब कुल मिला कर स्थिति बेहतर होने की दिशा में है।

अगर मार्च महिने के अख़बारों को पलटें तब क्यूबा की इस अंतरराष्टीयतावादी पहल को रेखांकित किया गया था क्योंकि इटली उन मुल्कों में शुमार रहा है, जिसने क्यूबा पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने में हमेशा अमेरिका का साथ दिया है, लेकिन क्यूबा की सरकार ने तथा वहां के प्रबुद्ध लोगों ने इस बात पर इस समय गौर करना मुनासिब नहीं समझा।

इटली के लोगों को क्यूबा के डॉक्टरों की जरूरत थी और जब उनके पास ऐसा प्रस्ताव आया तो उन्होंने तुरंत उन्हें भेजने का फैसला लिया था।

क्यूबा के डॉक्टरों के इटली पहुंचने की इस घटना को लेकर इक्वाडोर के पूर्व राष्टपति राफेल कोरिया का वह बयान भी चर्चित हुआ था- ‘एक दिन ऐसा आएगा जब हम अपने बच्चों को बताएंगे कि कई दशकों के सिनेमा और प्रचार के बाद, जब परीक्षा की घड़ी आयी, जब इन्सानियत को जरूरत पड़ी, जबकि महाशक्तियां दुबकी बैठी थीं, तब क्यूबाई डॉक्टर पहुंचने लगे, वापस कुछ पाने की मंशा के बगैर।’

व्यापक इन्सानियत के प्रति क्यूबाई जनता के सरोकार की एक अन्य मिसाल मार्च महीने के मध्य में समूची दुनिया के मीडिया में आयी थी, जब उसने ब्रिटेन के ऐसे जहाज को अपने यहां उतरने की अनुमति दी, जिस जहाज पर सवार कई यात्री कोविड 19 बीमारी का शिकार हुए थे और कैरेबियन समुद्र में वह जहाज महज पानी में तैर रहा था और यह ख़बर मिलने पर कि वहां सवार यात्री कोविड 19 का शिकार हुए हैं, किसी मुल्क ने उन्हें अपने यहां उतरने की अनुमति नहीं दी थी।

रायटर्स ने लिखा ‘कम्युनिस्ट शासित क्यूबा ने ब्रेमार नामक उपरोक्त जहाज को ब्रिटिश सरकार की गुजारिश पर अपने यहां उतरने की अनुमति दी, जबकि बार्बाडोस और बहामास जैसे मुल्क- जो खुद ब्रिटिश कामनवेल्थ का हिस्सा हैं- इन्कार कर चुके थे।

मालूम हो कि इटली पहुंचने वाली यह कोई पहली टीम नहीं थी जो क्यूबा से दूसरे मुल्कों में रवाना हुई थी। इसके पहले कोरोना से जूझने के लिए क्यूबा की टीमें पांच अलग अलग मुल्कों में भेजी गयी थी: वेनेजुएला, जमाएका, ग्रेनाडा, सुरीनाम और निकारागुआ।

और 1 मई तक ऐसे मुल्कों की तादाद 22 तक पहुंच गयी थी, जहां क्यूबा के 1,450 मेडिकल कर्मी कोविड 19 संक्रमण रोकने के काम में स्थानीय डाक्टरों के साथ खड़े थे, जिनके नाम थे रू एण्डोरा, अंगोला, एंटीगुआ और बरबुडा, बार्बाडोस, बेलीजे, केप वर्दे, डॉमिनिका, ग्रेनाडा, हैती, होण्डुरास, इटली, जमैका, मेक्सिको, निकारागुआ, कतार, सेण्ट लुसिया, सेंट किटस और नेविस, सेन्ट विन्सेन्ट और दे ग्रेनाडिन्स, दक्षिण अफी्रका, सुरीनाम, टोगो और वेनेजुएला।

एक ऐसे समय में जब विकसित कहे जाने वाले मुल्कों में कोरोना नामक फिलवक्त़ असाध्य लगने वाली बीमारी से मरनेवालों की तादाद बढ़ती जा रही है, अस्पतालों से महज मरीजों की ही नहीं बल्कि डॉक्टरों एवं स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की मरने की ख़बरें आना अब अपवाद नहीं रहा, इस छोटे से एक करोड़ आबादी के इस मुल्क ने अपनी दखल से जबरदस्त छाप छोड़ी है।

Virus Outbreak Italy

आलम यह है कि कोरोना के चलते उपजे वैश्विक संकट से जूझने की अग्रणी कतारों में क्यूबा दिखा है।

आप कह सकते हैं कि क्यूबा की इस भूमिका को देखते हुए ही अंतरराष्टीय स्तर पर वह याचिका व्यापक जनसमर्थन जुटा रही है, जिसे कुछ समाजसेवियों ने तैयार किया है, जिसमें इस वर्ष का शांति का नोबेल पुरस्कार क्यूबा को देने की मांग की गयी है।

नोबेल शांति पुरस्कार कमेटी के नाम जारी इस याचिका में कहा गया है- “आधुनिक इतिहास की इस अभूतपूर्व वैश्विक महामारी के दौर में एक छोटे से मुल्क के एक समूह ने दुनिया भर के लोगों को उम्मीद और प्रेरणा प्रदान की है: वे हैं क्यूबाई डॉक्टर्स और नर्सें जो हेनरी रीव इंटरनेशनल मेडिकल ब्रिगेड का हिस्सा हैं, जो आज की तारीख में कोविड 19 के खिलाफ 22 मुल्कों में सक्रिय हैं। उनके निस्वार्थपन और उन्होंने दिखायी अदभुत एकजुटता को स्वीकार करते हुए, जिन्होंने अपनी खुद की जान जोखिम में डाल कर हजारों लोगों की जान बचायी है, हम आप से यह गुजारिश करते हैं कि इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार उन्हें ही प्रदान किया जाए।

याद रहे कि हेनरी रीव एक 19 साल का अमेरिकी नौजवान था जो न्यूयॉर्क के ब्रुकलिन स्थित अपने घर का परित्याग करते हुए 19वीं सदी के अंतिम दौर में स्पेनिश हुक्मरानों के खिलाफ क्यूबाई संघर्ष से जुड़ गया था। उसके नाम से बनी इस ब्रिगेड का निर्माण क्यूबा के पूर्व नेता फिदेल कास्टरो ने वर्ष 2005 में तब किया था जब कैटरीना तूफान के वक्त 1,500 क्यूबाई डाक्टरों को वहां भेजने का प्रस्ताव अमेरिका ने ठुकराया था।

इस ब्रिगेड के गठन के बाद से, इस ब्रिगेड के मेडिकल कर्मी, जिनकी संख्या 7,400 स्वैच्छिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की है, वह आपदा राहत कार्यों के अगली कतारों में रहते आए हैं। कोविड 19 के पहले इसने 21 मुल्कों के 35 लाख लोगों का इलाज किया था जो गंभीर प्राक्रतिक आपदा और महामारियों का शिकार हुए थे। अगली कतारों में रहते हुए ब्रिगेड द्वारा दी गयी सेवाओं का ही परिणाम था कि अनुमानतः अस्सी हजार लोगों की जान बचायी जा सकी है।

अगर क्यूबा ने कोविड महामारी के दिनों में अंतरराष्टीयतावाद की भावना का परिचय दिया है,  वहीं इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी है कि उसने अपने मुल्क में भी कोविड संक्रमण को बेहद नियंत्रण में रखा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक कोरोना वायरस से उपजी महामारी का अगला केन्द्र लातिन अमेरिका होगा, मगर एक मुल्क इसमें अपवाद दिखता है और वह है क्यूबा- जहां कोविड 19 से उपजे मामले लगातार कम हो रहे हैं। अगर क्यूबाई लोगों की लातिन अमेरिका के अन्य मुल्कों के निवासियों से तुलना करें तो पता चलता है कि डोमिनिकन रिपब्लिक के निवासियों के तुलना में उन्हें कोविड का संक्रमण होने की 24 गुना कम संभावना है, तो मैक्सिको के नागरिकों की तुलना में 27 गुना कम संभावना है।

एक आंकड़ा तो सबसे चकित करनेवाला है ब्राजिल के निवासियों की तुलना में- जहां के राष्टपति दरअसल कोविड 19 संक्रमण की भयावहता से ही इन्कार करते रहे हैं और उसे फ्लू से अधिक कुछ नहीं समझते रहे हैं- क्यूबाई लोगों के संक्रमित होने की 70 गुना कम संभावना है।

 

आखिर ऐसा कैसे संभव हो सका है?

इसके पीछे हम क्यूबा की अभूतपूर्व चिकित्सा प्रणाली की कामयाबी को देख सकते हैं। गार्डियन की रिपोर्ट के मुताबिक ‘राज्य ने दसियों हजार फैमिली डॉक्टरों, नर्सों और चिकित्सा क्षेत्र के विद्यार्थियों को इस मुहिम में तैनात किया है ताकि वह घर घर दस्तक दें और परिवारों के स्वास्थ्य की पड़ताल करें।

यह इसी प्रणाली को प्रभावी ढंग से लागू करने का नतीजा है कि ‘क्यूबा में अभी तक महज 2,173 मामले आए हैं और जिनमें से महज 83 लोगों की मौत हुई है।’

कोविड संक्रमण को रोकने के लिए इस बात को बार बार रेखांकित किया जाता है कि आप संभावित मरीजों को जल्द से जल्द अलग कर दें तथा दूसरे संक्रमण की चेन को भी देखें ताकि इसके फैलाव को रोका जाए। क्यूबा में इस काम को भी बखूबी अंजाम दिया जा सका है। दरअसल ‘आज की तारीख में क्यूबा में डॉक्टर और मरीजों का अनुपात दुनिया में सबसे ज्यादा है। यहां हम उन 10 हजार डॉक्टरों को शामिल नहीं कर रहे हैं, जो विदेशों में सेवाएं दे रहे हैं। और भले ही राउल कास्टरो के जमाने में स्वास्थ्य पर खर्चा थोड़ा कम हुआ है, क्यूबा समूचे क्षेत्र में स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का सबसे अधिक अनुपात खर्च करता है। इतना ही नहीं एक तरफ जहां लातिन अमेरिका और कैरेबियन मुल्कों की 30 फीसदी जनता के पास वित्तीय कारणों से कोई चिकित्सकीय सुविधा नहीं हासिल है, वहीं क्यूबा में सभी लोग कवर्ड हैं।’

क्यूबा की यह प्रचंड सफलता इस वजह से भी अधिक काबिले तारीफ दिखती है क्योंकि उस पर अमेरिका की तरफ से पचास साल से अधिक समय से आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं और अमेरिका की इस अन्यायपूर्ण हरकत का तमाम पूंजीवादी मुल्कों ने साथ दिया है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इन प्रतिबंधों को संयुक्त राष्ट संघ की तरफ से गैरकानूनी घोषित किया गया है और क्यूबा का आकलन है कि सदियों से चले आ रहे इन प्रतिबंधों ने उसे 750 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद वहां आर्थिक स्थिति पर काफी विपरीत असर पड़ा है। गौरतलब है कि क्यूबा में लोगों की औसतन उम्र 78 साल के करीब पड़ती है जो संयुक्त राज्य अमेरिका के बराबर है, और अगर प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर खर्चे को देखें तो वहां अमेरिका की तुलना में महज 4 फीसदी खर्च होता है। कहने का तात्पर्य कि चाहे निजी बीमा कम्पनियां हों, गैरजरूरी इलाज हो, बीमारियों का निर्माण हों या अस्पताल में अधिक समय तक भर्ती रखकर होने वाले छूत के नए संक्रमण हो, अमेरिका में मरीजों का खूब दोहन होता है। वहां स्वास्थ्य रक्षा का फोकस बीमारी केन्द्रित है वहीं क्यूबा में वह निवारण केन्द्रित है।

मालूम हो कि चीन में कोरोना से मरने वाले मरीजों में तेजी से कमी आ सकी थी जिसमें एक महत्वपूर्ण कारक के तौर पर क्यूबा द्वारा विकसित एंटीवायरल डग अल्फा 2 बी का उल्लेख करना जरूरी है।

यह दवाई वर्ष 2003 से चीन में निर्मित हो रही है जहां क्यूबा सरकार की मिल्कियत वाली फार्मास्युटिकल कम्पनी के साथ मिल कर यह उत्पादन हो रहा है। इसे इंटरफेरॉन कहते हैं जो एक तरह से प्रोटीन्स होते हैं जो मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। शायद ‘मुनाफे के लिए दवाईयां’ के सिद्धांत पर चलने वाले मौजूदा मॉडल में ऐसी कामयाबियों पर गौर करने की फुरसत नहीं है।

क्यूबा ने इस दवा को डेंगू जैसी बीमारी से लड़ने में बेहद प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया है।

घाना देश की रहने वाली तथा इन दिनों अमेरिका में डॉक्टरी कर रही सरपोमा सेफा बोआक्ये- जिन्होंने क्यूबा में मुफ्त में अध्ययन किया- बताती हैं कि ‘‘आप अमेरिका में क्यूबा की स्वास्थ्य जगत की उपलब्धियों के बारे में नहीं सुनते हें। उसके मुताबिक आज की तारीख में अफ्रीका में क्यूबाई डाक्टरों की तादाद अफ्रीकी डाक्टरों से ज्यादा है। और समूचा अफ्रीका जितने डॉक्टरों को तैयार करता है, उससे ज्यादा डॉक्टर अकेले क्यूबा तैयार करता है।

आखिर क्यूबा इस स्थिति में कैसे पहुंचा यह लम्बे अध्ययन का विषय है। फिलवक्त़ इतना ही बताना काफी रहेगा कि क्यूबा की सार्वभौमिक स्वास्थ्य प्रणाली, जिस ‘चमत्कार’ को लेकर पश्चिमी जगत के तमाम विद्वानों ने कई किताबें भी लिखी हैं और बीबीसी जैसे अग्रणी चैनलों ने उस पर विशेष डाक्युमेंटरी भी तैयार की है। अपनी चर्चित किताब ‘सोशल रिलेशन्स एण्ड द क्यूबन हेल्थ मिरैकल’ में सुश्री एलिजाबेथ काथ बताती हैं कि ‘क्यूबा में स्वास्थ्य नीति पर अमल में व्यापक स्तर पर लोकप्रिय सहभागिता और सहयोग दिखता है, जिसे सार्वजनिक स्वास्थ्य को वरीयता देने की सरकार की दूरगामी नीति के तहत हासिल किया गया है। सरकार का इतना राजनीतिक प्रभाव भी है कि वह शेष जनता को इसके लिए प्रेरित कर सके।’

मंथली रिव्यू के अपने आलेख में (दिसम्बर 2012) डोन फित्ज बताते हैं कि क्यूबाई प्रणाली का सबसे आकर्षित करने वाला पहलू है कि वहां डाक्टर एवं नर्स की टीम समुदाय का ही हिस्से होते हैं और वह पास में रहते हैं, जिसकी वजह से वह लोगों को जानते होंते हैं और उनके स्वास्थ्य की छोटी मोटी दिक्कतों को दूर करते हुए जरूरत पड़ने पर उन्हें इलाके के बड़े अस्पताल में भेजते हैं। क्यूबाई लोग अपनी इस प्रणाली को समग्र सामान्य चिकित्सा कहते हैं। इस प्रणाली का परिणाम है कि सीमित संसाधनों के बावजूद क्यूबा के लिए पोलियो (1962) या टीबी मेनिनजाइटिस (1997) आदि तमाम संक्रमणजन्य एवं दीर्घकालीन बीमारियों को समाप्त करने में सफलता मिल सकी है। इतना ही नहीं क्यूबा की स्वास्थ्य प्रणाली की खासियत है वहां के डाक्टरों का आपदा के वक्त़ दुनिया के अन्य हिस्सों में जाने के लिए तैयार रहना।

क्यूबा की इस चमत्कारी लगने वाली स्वास्थ्य प्रणाली का ही नतीजा रहा है कि उसने यह भी प्रमाणित किया है कि एडस मुक्त पीढ़ी की दिशा में मानवता कदम बढ़ा सकती है।

एक ऐसे वक्त़ में जब एचआईवी संक्रमण तथा एड्स के प्रसार एवं इससे प्रभावित लोगों के साथ भेदभाव की घटनाएं आम हो चली हैं, यह विचार थोड़ा हवाई लग सकता है, मगर छोटे से मुल्क क्यूबा ने पांच साल पहले ही इसे प्रमाणित किया है।

क्यूबा द्वारा कायम एक अन्य नज़ीर

विश्व स्वास्थ्य संगठन की डाइरेक्टर जनरल मार्गारेट चान ने खुद क्यूबा की इस उपलब्धि की ताईद की थी। संगठन की तरफ से यह कहा गया कि क्यूबा ने ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में अब तक के सबसे उंची उपलब्धियों में शुमार किए जा सकने वाला मुक़ाम हासिल किया और वह दुनिया का पहला ऐसा मुल्क बना है जिसने मां के जरिए बच्चे तक होने वाले एचआईवी एवं सिफिलिस के संक्रमण को रोक लगाने में कामयाबी हासिल की है।’

कोई पूछ सकता है कि इसे कैसे तय किया जाता है। दरअसल इसे प्रमाणित करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का अपना पैमाना है, जिसके तहत एक लाख जनमों के पीछे अगर पचास बच्चों तक संक्रमण सीमित किया जा सके तब भी यह माना जाता है कि उपरोक्त मुल्क ने इस जानलेवा संक्रमण को काबू में कर लिया, मगर स्वास्थ्य के मामले में दुनिया भर में अपने परचम गाड रहे क्यूबा ने उससे बेहतर आंकड़े पेश किए। वर्ष 2013 में वहां महज दो बच्चे ऐसे जनमे जिन्हें एचआईवी का संक्रमण हुआ था और पांच बच्चे ऐसे थे, जिन तक सिफिलिस का संक्रमण पहुंचा था।

एक ऐसे समय में जबकि एचआईवी संक्रमण और उसके जरिए असाध्य समझे जाने वाले एडस जैसी गंभीर बीमारी का खतरा बढ़ रहा है, तब यह ख़बर हवा की ताज़ी बयार की तरह प्रतीत हुई थी। मालूम हो कि वर्ष 2013 में दुनिया भर में इससे मरने वालों की तादाद 15 लाख तक थी। एक मोटे अनुमान के हिसाब से आधिकारिक तौर पर पूरे दुनिया में 1 करोड़ साठ लाख महिलाएं एचआईवी संक्रमण से पीड़ित बतायी जाती है, जिनमें से हर साल 14 लाख स्त्रियां गर्भवती होती हैं, जिन्हें अगर एचआईवी निराकरण की दवाइयां नहीं दी गयी तो जिनमें से 45 फीसदी मामलों में बच्चे में संक्रमण फैलने की गुंजाइश रहती है।

2015 की इस उपलब्धि के बाद चीजें वहीं तक नहीं रूकी हैं। क्यूबा में एडस पर स्थायी नियंत्राण पाने के लिए दवाएं विकसित करने पर प्रयोग चल रहे हैं, पिछले साल यह भी ख़बर आयी थी कि वहां एक सूबे में मुफ्त में निवारक एचआईवी गोली देने का सिलसिला भी प्रायोगिक स्तर पर शुरू हुआ था। डाक्टरों के मुताबिक यह गोलियां, एचआईवी का वायरस से संक्रमित होने की संभावना को 90 फीसदी कम कर देती है।

भारत जहां दुनिया में एचआईवी पीड़ितों की तीसरी बड़ी संख्या रहती है और एशिया-पैसिफिक के इलाके में जहां एडस से जुड़ी मौतों में से लगभग आधी मौतें घटित होती है, वहां इस उपलब्धियों की अहमियत बनती है। यह जानना भी जरूरी है कि चूंकि इस बीमारी को फिलवक्त़ लाइलाज समझा जाता है, जो बात सच नहीं है, इस वजह से ऐसे संक्रमण से ग्रसित लोगों के मानवाधिकारों का भी खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता रहता है। अभी पिछले साल यूपी के हवाले से मेरठ के सरकारी अस्पताल की ख़बर प्रकाशित हुई थी कि किस तरह वहा भर्ती गर्भवती महिला के बेड पर हाथ से लिख कर कागज चिपकवाया था कि वह एचआईवी पीड़ित है और सरकारी डाक्टरों ने खुद उसके जरिए ही गन्दगी साफ करवायी थी।

विडम्बना ही है कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक फीसदी खर्च किया जाता है, जो दुनिया के देशों में न्यूनतम में शुमार किया जाता है और जहां खर्च कटौती के नाम पर भारत सरकार ने एडस/एचआईवी नियंत्रण कार्यक्रम कें लिए आवंटित बजट में पिछले दिनों तीस फीसदी से अधिक कटौती की है।

क्यूबा की कामयाबी को लेकर यह सवाल तुरंत उठता है कि एक करोड से थोड़ी अधिक आबादी वाले क्यूबा ने जिसने पचास साल से अधिक समय तक अमेरिका की आर्थिक घेराबन्दी को झेला है और सोविएत संघ के विघटन के बाद जहां आर्थिक स्थिति पर काफी विपरीत असर पड़ा है, उसने यह मुकाम कैसे हासिल किया। फौरी तौर पर देखें तो मां से बच्चे तक एचआईवी संक्रमण को न्यूनतम करने के लिए वहां 2010 से पहल ली गयी, जिसमें ऐसे संक्रमणों की जांच एवं इलाज तक पहुंच सुगम बनायी गयी,  जरूरत पड़ने पर सीजेरियन पद्धति से प्रसूति का इन्तज़ाम और मां के दूध के विकल्प के तौर पर कुछ सामग्री आसानी से उपलब्ध करायी गयी।

कोरोना महामारी के वक्त़ जब पूरी दुनिया गोया तबाही के कगार पर खड़ी है, नोबेल शांति पुरस्कार की बुनियादी भावना को प्रतिबिम्बित करने वाली क्यूबा के डॉक्टरों की ऐसी सक्रियता नोबेल पुरस्कार कमेटी को सोचने के लिए मजबूर करेगी या नहीं पता नहीं, लेकिन उनके जबरदस्त कामों के चलते वह दुनिया भर के सम्मान पाती रही है।

वर्ष 2017 में उन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बेहद प्रतिष्ठित समझे जानेवाले डा ली जांग बुक मेमोरियल प्राइज फार पब्लिक हेल्थ से नवाजा था।

वजह थी वर्ष 2014-15 के दरमियान ब्रिगेड द्वारा हाथों में लिया गया वह अदभुत अभियान। जब पश्चिमी अफ्रीका में इबोला महामारी का कहर बरपा हो रहा था। हेनरी रीवज ब्रिगेड से सम्बद्ध 400 डाक्टर, नर्सें और अन्य स्वास्थ्य कार्यकर्ता वहां पहुंचे थे, और उन्होंने ऐसे क्षेत्रों में काम किया था जहां स्वास्थ्य सेवाएं न्यूनतम थीं और रोड तथा कम्युनिकेशन के साधनों का भी जबरदस्त अभाव था। सिएरा लियोन, गिनिया और लाइबेरिया में इस टीम द्वारा सबसे बड़ा चिकित्सकीय अभियान हाथ में लिया गया था।

क्यूबा यहीं पर नहीं रूका। ‘चूंकि कई मुल्कों को मालूम नहीं था कि इस बीमारी का मुकाबला कैसे करना है, क्यूबा ने अन्य मुल्कों के प्रशिक्षित स्वयंसेवकों को हवाना के संस्थान में प्रशिक्षित किया। कुल मिला कर इसने 13,000 अफ्रीकी नागरिकों को; 66,000 लातिन अमेरिकियों को और 620 कैरेबियाई निवासियों को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया कि खुद संक्रमित हुए बगैर इबोला का इलाज कैसे किया जा सकता है? स्वास्थ्य प्रणाली को किस तरह संगठित किया जाए, इसके बारे में समझदारी बांटना निश्चित ही सबसे उच्च कोटी का ज्ञान देना होता है।

निश्चित ही कोरोना का कहर अभी जारी है और जैसा कि जानकार बता रहे हैं कि आने वाला समय समूची विश्व की मानवता के लिए जबरदस्त चुनौतियों का समय है, कितने लोग इसमें कालकवलित होंगे और कितने बच निकलेंगे इसका अनुमान लगाना संभव नहीं, लेकिन एक बात तो तय है कि आपदा के ऐसे समय में इस आपदा का लाभ उठाने में कार्पोरेट सम्राटों की क्या कारगुजारियां चल रही हैं, वह भी साफ दिख रहा है, लेकिन उसी वक्त़ चिकित्सकीय अंतरराष्टीयतावाद की भावना से आगे बढ़ रहे क्यूबा के डॉक्टर भी दिखते हैं।

क्यूबाई इन्कलाब के महान नेता चे गेवारा- जो 1967 में सीआईए के गूर्गों के हाथों शहीद हुए थे- उन्होंने अपनी जनता को लिखे अंतिम पत्र में लिखा था- ‘अनटिल विक्टरी, आलवेज’ (Hasta la victoria siempre, Cuba!) विजयी होने तक हमेशा।

क्या यह कहना गैरवाजिब होगा कि क्यूबा की जनता आज भी उनके संदेश को दिलों में संजोये है।


 
सुभाष गाताडे, मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक-पत्रकार हैं।

 


 

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