यूपी: अपराधियों से निपटने का अपराधी तरीक़ा !

उत्तर प्रदेश की पिछली समाजवादी पार्टी की सरकार की हार में बढ़ते अपराध और राजनीतिक गुण्डागर्दी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। लेकिन मौजूदा सरकार अपराध और अपराधियों से निपटने के नाम पर जो कुछ भी कर रही है वह अपने आप में एक अपराध और राजनैतिक गुण्डागर्दी ही है। जिसके हाथ में सत्ता है, कानून भी उसी के हाथ में है, इसलिए इस राजनीतिक अपराध के लिए उनके खिलाफ कोई मुकदमा नहीं लिखा जा सकता, कोई कार्रवाई नहीं हो सकती।

अपराधियों पर मुकदमा दर्ज कर जेल भेजने के बजाय, कानून को खुल्लम-खुल्ला धता बताते हुए उन्हें ‘ठोंक देने’ की बात मुख्यमंत्री खुद मौके-बेमौके कई बार बोल चुके हैं। न सिर्फ बोल चुके हैं, बल्कि उत्तर प्रदेश में ‘ठोंक देने’ यानि बढ़ते एन्काउण्टर की गूंज देश की सर्वोच्च अदालत तक भी पहुंच चुकी है, फिर भी ये रूके नहीं हैं, जबकि अनेक मीडिया रिपोर्टें छान-बीन के बाद ये बता रही हैं कि एन्काण्टर में मारे जाने वाले लोग कोई बड़े अपराधी नहीं, बल्कि मामूली अपराध करने वाले छोटे अपराधी थे, कुछ मामलों में अपराधी नहीं भी थे।

रिपोर्टें ये भी बता रही हैं कि वे किसी मुठभेड़ में नहीं मारे गये, बल्कि ठण्डे दिमाग से उन्हें उत्तर प्रदेश की पुलिस ने मारा है। ये तथ्य भी सामने आ चुका है कि मारे जाने वालों में दलित, पिछड़े वर्ग और मुसलमान समुदाय के लोग अधिक थे। सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार को जवाब तलब करने के बाद ‘ठोंक देने’ की रफ्तार भले ही रूकी न हो, लेकिन थोड़ी कम जरूर हुई है। हाल ही में जुलाई के महीने में विकास दुबे की पुलिस अभिरक्षा में मौत पर अभी भी सन्देह के बादल हैं कि वह एन्काउण्टर था या नही। जिस तरीके से विकास दुबे के भागने की बात पुलिस द्वारा बताई गयी है, उसमें ही कई तरह के सन्देहों के लिए स्थान है। इन मुद्दों पर सिर्फ इसलिए चुप नहीं रहा जा सकता कि मारा जाने वाला गुण्डा/बदमाश था। यदि वह था भी तो उससे निपटने के लिए भी कानूनी प्रक्रिया है। वरना अपराधियों और कानून को लागू कराने वाली सरकार में फर्क ही क्या रह जायेगा। लेकिन सच्चाई यह है कि कानून का पालन करने के मामले में इन दोनों के बीच का फर्क तेजी से मिटता ही जा रहा है।

विकास दुबे के मारे जाने के बाद से ही उत्तर प्रदेश की सरकार अपराध से निपटने का एक नया गैर कानूनी तरीका प्रयोग में ला रही है, वह है माफिया/अपराधियों से जुड़े लोगों के साथ उनके सम्बधियों परिचितों के घरों को बुलडोजर से गिरवाना। आप सबको याद होगा जून में विकास दुबे और पुलिस के बीच की असली मुठभेड़ के बाद, जिसमें कई पुलिस वाले भी मारे गये थे, पुलिस ने न सिर्फ विकास दुबे का, बल्कि उसके गांव के कई घरों को तहस-नहस कर दिया था। बताया ये गया कि उन घरों को गांव वालों ने ही तोड़ा है, लेकिन बाद में ऐसे कई वीडियों सामने आये जिसमें पुलिस वाले ही घरों को तोड़ रहे हैं। ‘गुण्डे’ का घर तोड़ा जा रहा है, ये सोचकर लोग चुप रहे, और अब ये सिलसिला आगे बढ़ गया है। यह उत्तर प्रदेश और उसके बाहर भी सत्ता की चिर-परिचित कार्यशैली बन गयी है। महाराष्ट्र की सरकार कंगना रानौत से नाराज हुई, तो बुलडोजर लेकर उसके घर पहुच गयी और मिनटो में घर को जमींदोज कर दिया। कंगना की हरकतों से किसी को नाराजगी हो सकती है, लेकिन इसके लिए उसका घर गिरा दिया जाय, क्या यह न्यायिक है?

इस वक्त इलाहाबाद हर दिन घर गिराये जाने के दृश्य देख रहा है। प्रदेश के बाहुबली नेता, माफिया अतीक अहमद, जो कि अहमदाबाद जेल में बन्द हैं, के घर को सितम्बर की शुरूआत में गिराये जाने से इसकी शुरूआत हो चुकी है। इसके बाद अतीक से जुड़े होने के नाम पर किसी न किसी का घर हर दिन गिराये जाने की खबर हर रोज अखबारों में आ रही है। घर गिराये जाने का कोई वाजिब कारण न बताकर इसे ‘काले धन की कमाई का ध्वस्तीकरण’ बताया और लिखा जा रहा है। इस तर्क से तो शहर ही नहीं, देश भर के आधे से अधिक भवन गिरा दिये जाने चाहिए। शुरूआत मुकेश अम्बानी के घर ‘एंटीलिया’ से ही होनी चाहिए।

 

ऐसा भी नहीं है कि माफिया के नाम से कुख्यात सिर्फ अतीक अहमद की सम्पत्ति को नेस्तोनाबूद किया गया है, बल्कि उससे आगे बढ़ते हुए अतीक अहमद के सम्बन्धियों, रिश्तेदारों दोस्तों के घर गिराये जाने की खबर हर रोज आ रही है। जिन्हें चिन्हित किया गया है, उनके नाम हर दिन सामने आ रहे है। वे सबसे कहते फिर रहे हैं कि अतीक के परिवार या धन्धे से उनका कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन वे निशाने पर न सिर्फ आ चुके हैं, बल्कि बुलडोजर कब किसके दरवाजे पर आकर खड़ा हो जाये, इसे लेकर अमीर मुस्लिम समाज घबराया हुआ है। यह सिलसिला इतना आगे बढ़ रहा है कि लोगों में धारणा बन गयी है कि मौजूदा सरकार अतीक का बहाना लेकर शहर के अमीर सम्पन्न मुसलमानों की सम्पत्ति को निशाना बना रही है। दंगों में भी यही होता आया है कि मुसलमानों की सम्पत्ति को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाकर समुदाय की रीढ़ तोड़ने की चाल चली जाती है। घर के आसपास रह रहे लोगों का कहना है कि ‘अगर घर से दिक्कत है तो सरकार उस पर कब्जा कर ले, मुकदमा दर्ज करे, लेकिन घर गिरा देना किसी भी तरीके से जायज नहीं है।’ दबे सुर में लोग यह भी बोलते हैं कि ‘यह तो ऐतिहासिक मस्जिद गिराने वाली सरकार है, ये हमारे घरों को भला क्यों छोड़ेगी।’ जिस तरीके से घरों को गिराने का सिलसिला चल रहा है इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता कि सरकार की मंशा माफिया या अपराधी से निपटना नहीं, बल्कि कुछ और ही है।

अतीक के घर के अलावा उसके रिश्तेदारों/ दोस्तों इमरान, मो. असद, हमजा अब्बास राशिद भुट्टो कम्मू-जाबिर, मोहम्मद जैद का घर गिराया जा चुका है। अतीक का भाई अशरफ, जिसे जुलाई में गिरफ्तार किया गया, हटवां गांव स्थित ससुराल का घर भी गिरा दिया गया। इनमें एकाध के बारे में तो खुद अखबारों ने भी लिखा कि उनका अब अतीक से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन अगर लेना-देना हो, तो भी घर गिराने का तर्क कैसे सही ठहरता है?

घर गिराने की इस पूरी कार्यवाही में मुख्य बात ये है कि इन घरों को गिराने में किसी भी कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। पहले से कोई नोटिस नहीं भेजी गयी, न ही पहले से आगाह किया गया, न सामान बाहर करने या बाल बच्चों के लिए दूसरा आसरा खोजने का समय दिया गया। अशरफ के साले फैजी का कहना है कि हैं कि उनका घर प्रयागराज विकास प्राधिकरण ने गिराया, जबकि यह उसके अधिकार क्षेत्र में आता ही नहीं, यह हटवां ग्रामसभा क्षेत्र में आता है। घर गिराने का कारण पूछने पर अधिकारियों ने कहा ‘ऊपर से आदेश है।’ उनका कहना है, ‘इस घर से अतीक या अशरफ का कोई लेना-देना नहीं है सिवाय इसके कि हमारी बहन उनसे ब्याही है। ये घर तो उनकी शादी के सालों पहले का है, इसमें हमारी कमाई का पैसा लगा है, फिर भी बिना किसी कारण के हमारे 6 भाइयों के परिवार वाले इस घर को वे गिरा कर चले गये। घर में कुल 16 बच्चे और 5 औरते हैं उनका भी लिहाज नहीं किया कि वे कहां जायेंगे।’

 

बड़े भाई जैद मोहम्मद जैद कहते हैं कि ‘यह सरकार इस देश को इजरायल बनाना चाहती है, लेकिन यहां ऐसा होना संभव नहीं है, यहां के लोग ऐसा नहीं होने देंगे।’ बताया जा रहा है कि इस गांव के पूर्व प्रधान का घर भी क्योंकि काफी बड़ा है, इसलिए अतीक के नाम पर निशाने पर है। सरकारी तर्क हर जगह यही है कि ये घर काली कमाई से बनाये गये हैं और इनकी अवैध प्लाटिंग हुई है। लेकिन इलाहाबाद में गंगा और यमुना के किनारे बसे पूरे मुहल्ले ही अवैध प्लाटिंग कर बसाये गये हैं। इन अवैध प्लाटों पर घर बनते रहते हैं प्रशासन आंख बंद किये रहता है। काली कमाई का आलम तो यह है कि इन अवैध प्लाटों पर बने मकानों पर नक्शा पास कराने के लिए काले धन का एक हिस्सा प्रशासन के पास पहुंचा दिया जाता है। इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय की यह बात सही लगती है कि यह कार्यवाही निश्चित ही किसी और मंशा से की जा रही है। इस सरकारी कार्यवाही से एक खौफ और छुपे हुए गुस्से का माहौल है।

घर गिराने की कार्यवाही चकिया, कौशाम्बी, हटवां से होती हुई जब बेली गांव पहुंच गयी, तो समाजवादी पार्टी की प्रवक्ता और इलाहाबाद विवि की पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष ऋचा सिंह ने इसका विरोध किया और 26 सितम्बर को एक दिन के लिए घर गिराये जाने की कार्यवाही रूक गयी, लेकिन अगले दिन 27 सितम्बर को भारी फोर्स के साथ घर को गिरा दिया गया।

यह पूरा मामला बेशक इलाहाबाद ही नही, उत्तर प्रदेश के माफिया विधायक अतीक अहमद और अशरफ से जुड़ा है, लेकिन उससे भी ज्यादा यह मामला आपराधिक मामलों में जेल भेजे गये लोगों के परिजनों को परेशान करने का है, जो कि कानून की नजर में गैरकानूनी है। उसमें भी अगर पीड़ित लोगों की बात मानें, तो यह मामला छिपे तौर पर एक अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाने का भी है।

अपराधियों से निपटने के इस अपराधी तरीके को यदि छूट मिल गयी, तो यह आने वाले समय में बेहद खतरनाक साबित होने वाला है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की यह बात समाज में कानूनी की हिफाजत के लिए जरूरी है कि ‘भले ही कोई अपराधी क्यों न हो, उससे कानूनी तरीके से ही निपटना चाहिए, न कि उससे निपटने के लिए अपराधी रवैया अख्तियार कर लेना चाहिए, ऐसा बर्बर समाज में होता है।’ सरकार ने यह रवैया अख्तियार करके कानून व्यवस्था को पूरी तरह तिलांजलि दे दी है।

अनेक मौकों पर यह बात खुलकर सामने भी आती जा रही है। सीएए प्रदर्शन के दौरान अपराध साबित होने के पहले ही किसी को अपराधी घोषित कर देना, बिना जांच किये पीड़ित पक्ष से ही सम्पत्ति की वसूली करना, मुकदमा कोर्ट में होने के दौरान ही लोगों को ‘दोषी’ करार देकर उसके पोस्टर चौराहों पर लगाना, अपराधी के सम्बन्धी होने के कारण उन्हें प्रताड़ित करना, पीछा करना, डराना-धमकाना, क्या यह सब किसी लोकतान्त्रिक सरकार की कार्यप्रणाली है? कानून व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर यह पूरी तरह गैरकानूनी काम है, जिसे हम इस समय एक बार फिर अपनी आंखों के सामने घटित होते देख रहे हैं। लेकिन चुप हैं क्योंकि मामला एक अपराधी बाहुबली से जुड़ा हुआ है। शहर को स्मार्ट बनाने के लिए गरीबों-मजदूरों की बस्ती उजड़ी तो इन घरों में रहने वालों के कान पर जूं नहीं रेंगी होगी, अब बुलडोजर का मुंह उधर की ओर घुमा दिया गया है, तो हम इसलिए चुप हैं कि अपराधियों का मामला है। बुलडोजर आगे किस ओर रूख करेगा, कोई नहीं जानता, सिवाय बुलडोजर को आदेश देने वाले के।

 

सीमा आज़ाद प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।

 



 

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