(इस कठिन कठोर क्वारंटीन समय में संजय जोशी दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों से आपका परिचय करवा रहे हैं. यह मीडिया विजिल के लिए लिखे जा रहे उनके साप्ताहिक स्तम्भ ‘सिनेमा-सिनेमा’ की छठीं कड़ी है। मक़सद है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा के साथ–साथ पूरी दुनिया के सिनेमा जगत की पड़ताल हो सके और इसी बहाने हम दूसरे समाजों को भी ठीक से समझ सकें. यह स्तम्भ हर सोमवार को प्रकाशित हो रहा है -संपादक)
हमारे लोकतंत्र की शोकांतिका है ‘लिंच नेशन’
2018 आते–आते हिंदुस्तानी लोकतंत्र में कलबुर्गी, पानसरे, दाभोलकर और गौरी लंकेश की हत्या के साथ चार गहरी कीलें चुभ चुकी थीं जिनकी किरचें अब छिटक–छिटक हमारे सार्वजनिक जीवन में लगने वाली थीं. इसी बरस दिल्ली से सटे नॉएडा के दादरी इलाके में अख़लाक़ को मारने से नृशंस सार्वजनिक हत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने एक –एक कर कई आम मुसलामानों को अपना शिकार बनाया और गंगा–जमुनी मिली जुली संस्कृति वाले हमारे देश में फ़ासीवाद के न पनप सकने की रही सही आशंका पर पानी फेर दिया. यही वह समय है जब देश के विभिन्न जन संचार संस्थानों से पढ़कर निकले युवाओं ने समूह बनाकर इस नए समय को दर्ज करने की सोची.
इनमे से फुरकान, शाहीन और विशु अपने –अपने मीडिया संस्थानों में नौकरियां कर रहे थे और अपनी नौकरी की सीमा को बखूबी समझते थे. दूर केरल में बैठा अशफ़ाक़ बेरोज़गार था लेकिन सिनेमा के ज़रिये अपनी बात को कहने के लिए बेचैन. जल्द ही उन्होंने एक ढाँचे पर काम करना शुरू किया और उसे हासिल किया. साथ के कुछ और हमख्याल दोस्तों को फ़ोन खड़काये गये और तकरीबन पूरे देश में हुई हत्याओं को दर्ज करने और उन्हें एक मुकम्मल फ़िल्म की शक्ल देने के लिए कई शिड्यूल बनाए गए ताकि फ़िल्म समय से बन सके और फिर उसे लोगों तक ले जाया भी जा सके.
छह महीने की लगातार मेहनत और असंख्य हमख्यालों के सहयोग की वजह से ‘लिंच नेशन’ नाम की 43 मिनट की एक दस्तावेज़ी फ़िल्म हासिल हुई जो सिर्फ़ एक फ़िल्म ही नहीं बल्कि आज़ाद भारत की शोकांतिका है. (इस लेख के अंत में फ़िल्म का लिंक और उसे खोलने का पासवर्ड दिया गया है)
यह दस्तावेज़ी फ़िल्म अलवर, राजस्थान के पहलू खान, वल्लभगढ, हरियाणा के जुनैद, दादरी, नोएडा के मोहम्मद अख़लाक़, लातेहर, झारखण्ड के अलीमुद्दीन अंसारी और इम्तियाज और ऊना, गुजरात के सरवैया भाइयों की कहानी है जो आज़ाद देश में किसी तरह से गुजर –बसर कर अपनी –अपनी जिंदगियों में छोटी –मोटी खुशियाँ तलाशने में जुटे थे. पहलू, अख़लाक़, जुनैद, अलीमुद्दीन, इम्तियाज का तो सरे आम क़त्ल हो गया और सरवैया भाइयों को भरे चौराहे जीप से बांधकर चमड़े की बेल्ट से पीटा गया और फिर उसका वीडियो बनाकर उनके बेइज्जत होने की ख़बर सब तरफ़ बेशर्मी से प्रसारित की गयी. ये सब क्यों मारे गए ? क्या इन्होने कोई अपराध किया था ? क्या इन्होने कोई षड्यंत्र किया था. नहीं , ऐसा कुछ नहीं . ये सब आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र निर्माण के एजेंडे के आसान शिकार थे. बहाना बना गोकशी. आइये जानते हैं पूरी दास्ताँ इन्ही के परिजनों की ज़ुबानी.
नोएडा, दादरी के मोहम्मद अख़लाक़ पर यह इल्जाम लगाया गया कि उन्होंने गाय का मांस खाया है. बकायदा मोहल्ले के मंदिर के पुजारी पर जोर जबरदस्ती कर मंदिर के लाउड स्पीकर से घोषणा कर सबको उत्तेजित किया गया और जिस इलाके में दशकों से भाईचारा था वहां के एक बेगुनाह आदमी की नृशंस तरीक़े से हत्या कर दी गयी. हमारे आपकी तरह अख़लाक़ के भाई जान मोहम्मद भी यह समझ नहीं पाते कि कैसे ज़माने की मुहब्बत इतनी कटुता में बदल गयी कि उनके भाई के साथ जानवर से भी बदतर तरीक़े से सुलूक किया गया. उनके बदन की हर हड्डी को तोड़ा गया और आख़िरी सांस रहने तक पत्थर मार कर उनकी जान ले ली गयी.
लातेहर, झारखण्ड के अलीमुद्दीन अंसारी और इम्तियाज का क्या कुसूर था? वे अपने घर से गए और फिर लौट कर ही नहीं आये. उनका दोष यह था कि अपने –अपने परिवारों की ज़िन्दगी को अपनी मेहनत से थोड़ा बेहतर बनान चाहते थे. यहाँ भी षड्यंत्र गौ-रक्षा दल का था. लातेहर में अलीमुद्द्दीन अंसारी की बेवा सायरा बीवी के इंटरव्यू के दौरान खींचा एक फ़ोटो फ्रेम है जिसमे अलीमुद्दीन अपने बच्चों के साथ खुश दिख रहे हैं. इनमे से सभी पढ़ –लिख कर अपनी जिंदगियों को बेहतर बनाने में लगे हैं लेकिन इस हत्या के बाद पहिया उल्टा घूम गया है . बड़ी बेटी ने सदमे में पढ़ाई छोड़ दी एक और बेटा डर के मारे बाहर नहीं जा पाता. इसी इंटरव्यू के दौरान एक विसुअल सीक्वेंस है घर के ताक में रखी किताबों का. इनमे से दो किताबें उर्दू में गणित सीखने की है , दो विज्ञान सीखने की, एक फिजिकल एजुकेशन की और एक हिंदी भाषा की. इस हत्या के बाद ताक में रखी जा रही इन किताबों का संयोजन भी गड़बड़ाया होगा. अब तो शायद इनकी जगह जान बचाने की सिविल डिफेन्स की किताबें ले लेंगी. एक और फ्रेम में सायरा बीवी के पीछे एक कार की बैटरी और एक हेलमेट भी दिखाई देती है. इस बिना बात की हत्या ने इन सब फ्रेमों से बनते हुए मायनों को एकदम उलट दिया है.
मोहम्मद आरिफ़ की ज़ुबानी हमें अलवर में हुई घटना के ब्योरे मिलते हैं. पहलू खान भी डेयरी का काम करते हुए अपने परिवार में छोटी –मोटी ख़ुशहाली लाने की कोशिश में लगे थे . वे गाय खरीदकर लौट रहे थे और गौ रक्षक दल द्वारा मारे गए. उनके पास नगर निगम की रसीद थी लेकिन सब बेकार क्योंकि गौ-रक्षक किसी भी निगम से ऊपर हैं किसी भी नियम से ऊपर है. और क्यों न हो जब उनका अपना विधायक ज्ञान देव आहूजा अपनी घनी मूंछों के साथ सगर्व कह रहा हो ‘गौकशी करोगे तो यूं ही मरोगे!’ कोई इनसे पूछे कि थानेदार बनने का ठेका इन्हें किसने दे दिया. नगर निगम की पर्ची के साथ खरीदकर लाई गई ये दुधारू गाय कब से गोकशी का प्रमाण बन गईं. यहाँ लातेहर की बेवा सायरा बीवी की बात याद आती है. वो कहती हैं ‘यह गाय का मसला नहीं सरासर गुंडागर्दी है.
वल्लभगढ़ के किशोर जुनैद की क्या खता थी जिसे क्रिकेट खेलने, बौलीबाल खेलने, बिरयानी खाने , मोटरसाइकिल चलाने का शौक था, जिसका सपना था गरीब बच्चों के लिए मदरसा खोलने का. यह कैसा दुर्भाग्य है कि पहली बार ईद के लिए अपने भाइयों और दोस्तों के साथ खरीददारी करने गया जुनैद अपने घर ही नहीं लौट पाया. उसका कुसूर सिर्फ़ यह था कि उनका समूह मुसलमानों जैसा दिखता था। वे मुसलमान थे, उन्होंने टोपी पहनी थी उन्होंने पजामा कुरता पहना था. इसलिए वह चलती ट्रेन में मार दिया गया. उसका एक दोस्त इसलिए बच गया क्योंकि उसने पैंट शर्ट पहन रखी थी. एक भाई शाकिर तो इतना डर गया कि ठीक से सो ही नहीं पाता. ट्रेन की घटना याद कर वह काँप उठता है बैचैनी बढ़ने पर घर से बाहर जाकर खुले में साँस नहीं ले पाता क्योंकि डर मन में समाया है कि कहीं मार न दिया जाय.
इस घर का एक ही बेटा हाशिम है जिसने किसी तरह से अपने को संभाल रखा है . हाशिम ही फ़िल्म में सारी कहानी बयां करता है.
जुनैद वाले हिस्से में एक दृश्य मदरसे का है जहाँ जुनैद पढ़ता था. सफ़ेद कुरता पैजामा पहने टोपी लगाये किशोरों का समूह बहुत आत्मीयता से जुनैद के कुकिंग प्रेम की याद करता है. स्मृतियों का यह सिलसिला जुनैद को दी जाने वाली एक सच्ची श्रद्धांजलि लगती है लेकिन तभी आप सोचने लगते हैं क्या किसी दिन यह किशोर समूह भी ऐसी ही किसी यात्रा में मार दिया जाएगा क्योंकि उन्होंने अपनी टोपी नहीं उतारी थी क्योंकि उन्होंने पैजामा कुरते को बदलकर पैंट शर्ट नहीं पहन ली थी क्योंकि उन्होंने अपनी मुलायम दाढ़ियों को सफाचट नहीं किया था.
यह हमारी सद्चिंता है और वल्लभगढ़ का मुस्लिम परिवार हर रोज इस सचाई से गुजरता है जिनके फूल से खिलते लड़के की जान सरेआम रमजान के 27 वें दिन ले ली गयी.
ऊना, गुजरात के वसाराम सरवैया और उनके तीन भाइयों को सरेआम जीप में बांधकर चमड़े की बेल्ट से मारा गया, बेशर्मी से इसका वीडियो बनाया गया फिर थाने में ले जाकर उन्हें मारा गया. उनका कुसूर ? उनका कुसूर सिर्फ यह था कि मरी हुई गायों की खाल निकालना उनका पेशा था जिसमे हाड़तोड़ मेहनत के बाद उन्हें कुछ पैसे मिलते घर चलाने के लिए. लेकिन मुस्लिम न होते हुए भी उन्हें प्रताड़ित करना सत्ता मद से पगलाए हुए गौ रक्षा दल की स्कीम का विस्तार ही थी यह घटना. वसाराम इस प्रकरण के बाद एक बहुत पते की बात कहते हैं. वह कहते हैं हमारे परिवार ने वर्षों लाखों गायों का चमड़ा निकाला लेकिन हमें तो कभी कोई देवता गाय के अंदर नहीं मिला. अपनी इस समझदारी को दार्शनिक आधार देते हुए वे कहते हैं ‘यह सारा तमाशा देश को मनुवाद के रास्ते पर लाने के लिए हो रहा है.’ इसी समझदारी के चलते वसाराम भाइयों पर हुई ज्यादती के बाद पूरे गुजरात में दलितों का जोरदार आन्दोलन हुआ और ‘ गाय की पूँछ तुम रखो , हमें हमारी जमीन दो’ जैसा क्रांतिकारी नारा हवा में तैरने लगा. इसी समझदारी के चलते फ़िल्म के एक दृश्य में वसाराम सरवैया के साथ सैकड़ों लोग हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म में दीक्षित होते दिखे.
बिना किसी अतिरिक्त दृश्यों के यह दस्तावेज़ी फ़िल्म एक समय विशेष में एक सम्प्रदाय के लोगों के साथ हुई नृशंस हत्याओं और राज्य की कुटिल दुरभिसंधियों का प्रामाणिक दस्तावेज़ है. फ़िल्म में शामिल विभिन्न दस्तावेज़ी इंटरव्यू से ही हमें राज्य की भलमनसाहत का पता चलता है. लातेहर में हुए अलीमुद्दीन अंसारी केस के वकील राजू हेमब्राम का कहना है कि इस केस में आपराधिक षड्यंत्र की धारा 120 ही नहीं लगाई गई. जुनैद के बड़े भाई हाशिम के अनुसार इस केस को कमजोर बनाते हुए बहुत सी जरुरी धाराएँ जैसे कि 307, 302, 120 हटा दी गयीं और तो और गैर जमानती धाराएं भी हटा दीं. वे कहते हैं कि हमारा मजाक बनाते हुए 348, 317 और 327 जैसी धाराएं लगाईं गयीं हैं जो मामूली झगड़े के लिए होती हैं. वे आगे कहते हैं कि यह अजब इत्तेफ़ाक है कि अभी हमारा भाई शाकिर अस्पताल से मुक्त नहीं हुआ और एक अपराधी को जमानत मिल गई. जब इस केस के चार अपराधियों को जमानत मिली उसी दिन जुनैद के अब्बू जलालुद्दीन को दिल का दौरा पड़ा.
हाशिम का एक भाई मर गया, एक कुछ नहीं कर सकता , एक कोमा में है . हाशिम का कहना कि ‘क्या हमें एक ही बार ही मारना काफी नहीं’ हम सबके लिए, हमारे तथाकथित लोकतंत्र के लिए एक बड़ा सवाल है.
पहलू का बेटा आरिफ़ अपने पिता के इंसाफ़ के लिए अकेले ही प्रयासरत है. धमकियों के अलावा उसपर अपने पिता की मौत के बदले पैसे खाने का इल्जाम लगता है. वो कहता है मेरे पास लड़ने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है चाहे हम सब बर्बाद ही हो जायें.
फ़िल्म का अंत फैज़ की मशहूर नज़्म ‘इंतसाब’ के बोलों से होता है –
उन दुखी माओं के नाम, उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और नींद की मार खाए हुए बाजुओं से संभलते नही …..
मैंने अगर यह फ़िल्म बनाई होती तो मैं इसका अंत बांग्ला के मशहूर कवि नवारुण भट्टाचार्य की कविता ‘यह मृत्यु उपत्कया नहीं है मेरा देश’ से करता –
यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
जो पिता अपने बेटे की लाश की शिनाख़्त करने से डरे
मुझे घृणा है उससे
जो भाई अब भी निर्लज्ज और सहज है
मुझे घृणा है उससे
जो शिक्षक बुद्धिजीवी, कवि, किरानी
दिन-दहाड़े हुई इस हत्या का
प्रतिशोध नहीं चाहता
मुझे घृणा है उससे
चेतना की बाट जोह रहे हैं आठ शव
मैं हतप्रभ हुआ जा रहा हूँ
आठ जोड़ा खुली आँखें मुझे घूरती हैं नींद में
मैं चीख़ उठता हूँ
वे मुझे बुलाती हैं समय- असमय ,बाग में
मैं पागल हो जाऊँगा
आत्म-हत्या कर लूँगा
जो मन में आए करूँगा
यही समय है कविता लिखने का
इश्तिहार पर,दीवार पर स्टेंसिल पर
अपने ख़ून से, आँसुओं से हड्डियों से कोलाज शैली में
अभी लिखी जा सकती है कविता
तीव्रतम यंत्रणा से क्षत-विक्षत मुँह से
आतंक के रू-ब-रू वैन की झुलसाने वाली हेड लाइट पर आँखें गड़ाए
अभी फेंकी जा सकती है कविता
38 बोर पिस्तौल या और जो कुछ हो हत्यारों के पास
उन सबको दरकिनार कर
अभी पढ़ी जा सकती है कविता
लॉक-अप के पथरीले हिमकक्ष में
चीर-फाड़ के लिए जलाए हुए पेट्रोमैक्स की रोशनी को कँपाते हुए
हत्यारों द्वारा संचालित न्यायालय में
झूठ अशिक्षा के विद्यालय में
शोषण और त्रास के राजतंत्र के भीतर
सामरिक असामरिक कर्णधारों के सीने में
कविता का प्रतिवाद गूँजने दो
बांग्लादेश के कवि भी तैयार रहें लोर्का की तरह
दम घोंट कर हत्या हो लाश गुम जाये
स्टेनगन की गोलियों से बदन छिल जाये-तैयार रहें
तब भी कविता के गाँवों से
कविता के शहर को घेरना बहुत ज़रूरी है
यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश
यह विस्तीर्ण शमशान नहीं है मेरा देश
यह रक्त रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश
मैं छीन लाऊँगा अपने देश को
सीने मे छिपा लूँगा कुहासे से भीगी कांस-संध्या और विसर्जन
शरीर के चारों ओर जुगनुओं की कतार
या पहाड़-पहाड़ झूम खीती
अनगिनत हृदय,हरियाली,रूपकथा,फूल-नारी-नदी
एक-एक तारे का नाम लूँगा
डोलती हुई हवा,धूप के नीचे चमकती मछली की आँख जैसा ताल
प्रेम जिससे मैं जन्म से छिटका हूँ कई प्रकाश-वर्ष दूर
उसे भी बुलाउँगा पास क्रांति के उत्सव के दिन।
हज़ारों वाट की चमकती रोशनी आँखों में फेंक रात-दिन जिरह
नहीं मानती
नाख़ूनों में सुई बर्फ़ की सिल पर लिटाना
नहीं मानती
नाक से ख़ून बहने तक उल्टे लटकाना
नहीं मानती
होंठॊं पर बट दहकती सलाख़ से शरीर दाग़ना
नहीं मानती
धारदार चाबुक से क्षत-विक्षत लहूलुहान पीठ पर सहसा एल्कोहल
नहीं मानती
नग्न देह पर इलेक्ट्रिक शाक कुत्सित विकृत यौन अत्याचार
नहीं मानती
पीट-पीट हत्या कनपटी से रिवाल्वर सटाकर गोली मारना
नहीं मानती
कविता नहीं मानती किसी बाधा को
कविता सशस्त्र है कविता स्वाधीन है कविता निर्भीक है
ग़ौर से देखो: मायकोव्स्की,हिकमत,नेरुदा,अरागाँ, एलुआर
हमने तुम्हारी कविता को हारने नहीं दिया
समूचा देश मिलकर एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है
छापामार छंदों में रचे जा रहे हैं सारे अलंकार
गरज उठें दल मादल
प्रवाल द्वीपों जैसे आदिवासी गाँव
रक्त से लाल नीले खेत
शंखचूड़ के विष -फ़ेन सेआहत तितास
विषाक्त मरनासन्न प्यास से भरा कुचिला
टंकार में अंधा सूर्य उठे हुए गांडीव की प्रत्यंचा
तीक्षण तीर, हिंसक नोक
भाला,तोमर,टाँगी और कुठार
चमकते बल्लम, चरागाह दख़ल करते तीरों की बौछार
मादल की हर ताल पर लाल आँखों के ट्राइबल -टोटम
बंदूक दो खुखरी दो और ढेर सारा साहस
इतना सहस कि फिर कभी डर न लगे
कितने ही हों क्रेन, दाँतों वाले बुल्डोज़र,फौजी कन्वाय का जुलूस
डायनमो चालित टरबाइन, खराद और इंजन
ध्वस्त कोयले के मीथेन अंधकार में सख़्त हीरे की तरह चमकती आँखें
अद्भुत इस्पात की हथौड़ी
बंदरगाहों जूटमिलों की भठ्ठियों जैसे आकाश में उठे सैंकड़ों हाथ
नहीं – कोई डर नहीं
डर का फक पड़ा चेहरा कैसा अजनबी लगता है
जब जानता हूँ मृत्यु कुछ नहीं है प्यार के अलावा
हत्या होने पर मैं
बंगाल की सारी मिट्टी के दीयों में लौ बन कर फैल जाऊँगा
साल-दर-साल मिट्टी में हरा विश्वास बनकर लौटूँगा
मेरा विनाश नहीं
सुख में रहूँगा दुख में रहूँगा, जन्म पर सत्कार पर
जितने दिन बंगाल रहेगा मनुष्य भी रहेगा
जो मृत्यु रात की ठंड में जलती बुदबुदाहट हो कर उभरती है
वह दिन वह युद्ध वह मृत्यु लाओ
रोक दें सेवेंथ फ़्लीट को सात नावों वाले मधुकर
शृंग और शंख बजाकर युद्ध की घोषना हो
रक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त हो
जल उठे कविता विस्फ़ोटक बारूद की मिट्टी-
अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिर
तराई से सुंदरवन की सीमा जब
सारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी हो
जब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीचड़ एक हो गई हो
तब दुविधा क्यों?
संशय कैसा?
त्रास क्यों?
आठ जन स्पर्श कर रहे हैं
ग्रहण के अंधकार में फुसफुसा कर कहते हैं
कब कहाँ कैसा पहरा
उनके कंठ में हैं असंख्य तारापुंज-छायापथ-समुद्र
एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आने जाने का उत्तराधिकार
कविता की ज्वलंत मशाल
कविता का मोलोतोव कॉक्टेल
कविता की टॉलविन अग्नि-शिखा
आहुति दें अग्नि की इस आकांक्षा में.
फ़िल्म का लिंक :
Password: LynchNation
इस शृंखला में वर्णित अधिकाँश फ़िल्में यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं और जो आसानी से नहीं मिलेंगी उनका इंतज़ाम संजय आपके लिए करेंगे.
दुनियाभर के जरुरी सिनेमा को आम लोगों तक पहुचाने का काम संजय जोशी पिछले 15 वर्षो से लगातार ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के जरिये कर रहे हैं.संजय से thegroup.jsm@gmail.com या 9811577426 पर संपर्क किया जा सकता है -संपादक
सिनेमा-सिनेमा की पिछली कड़ियाँ–
1. ईरानी औरतों की कहानियाँ : मेरे बालिग़ होने में थोड़ा वक्त है
2. नया हिन्दुस्तानी सिनेमा : हमारे समय की कहानियाँ
3. सीको: अपनी अंगुली को कूड़े के ढेर में पक्षियों को खिलाने से अच्छा है किसी को अंगुली दिखाना!
4. पहली आवाज़ : मज़दूरों ने कैसे बनाया अपने सपनों का शहीद अस्पताल
5. गाड़ी लोहरदगा मेल: अतीत हो रही एक ट्रेन के ज़रिये वर्तमान और भविष्य की पीड़ा !