प्रधानमंत्री मोदी जी ने बुधवार को बड़ी शान के साथ संसद में मिथ्यावाचन करते हुए कहा कि शादी की उम्र आदि जैसे कानूनों को बनाने के लिए किसी ने कानून बनाने की मांग नहीं की थी, लेकिन प्रगतिशील समाज के लिए आवश्यक होने के कारण कानून बनाया गया। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पचास के दशक में आरएसएस इस प्रगतिशील समाज का सबसे बड़ा विरोधी था!
हम बात कर रहे हैं हिन्दू कोड बिल की। संविधान सभा के सामने 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था। यह बिल ऐसी तमाम कुरीतियों को हिंदू धर्म से दूर कर रहा था जिन्हें परंपरा के नाम पर कुछ कट्टरपंथी जिंदा रखना चाहते थे। इसका जोरदार विरोध हुआ।
मार्च 1949 से ऑल इंडिया एंटी हिंदू कोड बिल कमेटी सक्रिय थी। करपात्री महाराज के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिंदू महासभा और दूसरे हिंदूवादी संगठन हिंदू कोड बिल का विरोध कर रहे थे। इसलिए जब इस बिल को संसद में चर्चा के लिए लाया गया तब हिंदूवादी संगठनों ने इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन शुरू कर दिए। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अकेले दिल्ली में दर्जनों विरोध-रैलियां आयोजित कीं। महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा दिए जाने, तलाक का अधिकार दिए जाने और स्त्रियों को समानता का अधिकार दिए जाने जैसे प्रावधानों की वजह से हिंदू कोड बिल के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के कोने-कोने में प्रदर्शन किए।
संघ के मुखपत्र कहे जाने वाले अखबार ऑर्गनाइजर में 2 नवंबर, 1949 के एक लेख में हिंदू कोड बिल को ‘हिंदुओं के विश्वास पर हमला’ बताया गया- ‘तलाक के लिए महिलाओं को सशक्त करने का प्रावधान हिंदू विचारधारा से विद्रोह जैसा है।’ ऑर्गनाइजर के अनुसार यह बिल परिवारों को तोड़ने वाला और संपत्ति के मामले में भाइयों को बहनों के खिलाफ करने वाला था।
11 दिसंबर, 1949 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आरएसएस ने एक जनसभा का आयोजन किया था, जहां एक के बाद एक वक्ताओं ने बिल की निंदा की। एक वक्ता ने इसे हिंदू धर्म पर परमाणु बम गिराने की बात कही। दूसरे ने इसकी औपनिवेशिक सरकार द्वारा लादे गए कठोर रॉलेट एक्ट कानून से तुलना की। उसका कहना था कि जैसे वह कानून ब्रिटिश सरकार के पतन का कारण बना, उसी तरह बिल के खिलाफ आंदोलन नेहरू के सरकार के पतन का कारण बनेगा। अगले दिन आरएसएस के कार्यकर्ताओं के एक दल ने संसद के लिए मार्च निकाला। ये लोग हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद, पंडित नेहरू मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे। प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री और डॉ. अंबेडकर के पुतले जलाए और शेख अब्दुल्ला की कार में तोड़फोड़ भी की। स्वामी करपात्री महाराज जो बिल के एक धुर विरोधी नेता थे, ने डॉ. अंबेडकर पर जातिगत टिप्पणियां कीं और कहा कि एक पूर्व अछूत को उन मामलों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है जो साधारणतः ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित हैं।
तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने तो अगस्त 1949 के अपने एक भाषण में कहा भी कि ‘आंबेडकर जिन सुधारों की बात कर रहे हैं, वे भारतीयता से बहुत दूर हैं। इस देश में विवाह और तलाक जैसे सवाल अमेरिकी या ब्रिटिश मॉडल से नहीं सुलझेंगे। हिंदू संस्कृति और कानून के अनुसार, विवाह एक संस्कार है, जिसे मृत्यु बाद भी बदला नहीं जा सकता। यह कोई ‘अनुबंध’ नहीं है।
उसी दौरान एक साक्षात्कार में संघ के तत्कालीन मुखिया माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने कहा था कि हिंदू कोड राष्ट्रीय एकता और एकसूत्रता की दृष्टि से पूर्णत: अनावाश्यक है। उनका ये भी कहना था कि स्थानीय रीति-रिवाजों को सभी समाजों द्वारा मान्यता प्रदान की है।
इस भयंकर विरोध के कारण उस वक्त यह कानून लाया नहीं जा सका बाद में 1955 में नेहरू ने असली बिल को कई भागों में बांट दिया था। और 1955 में इसके पहले भाग- ‘हिंदू मैरिज एक्ट’- को बहुमत से पारित करवाकर उन्होंने इस पर कानून बनवा दिया।
यह है इनकी प्रगतिशीलता की असलियत।
गिरीश मालवीय, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है।