देश का नया नारा: कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, नौकरी जाती है जाने दो !

मैं अक्सर सोचता हूँ कि जिन करोड़ों लोगों की नौकरी गई है। जाने वाली है। सैलरी आधी हो गई है। वे लोग आर्थिक मुद्दों पर क्या बिल्कुल नहीं सोचते होंगे? उसकी वास्तविकता और क्रूरता के बारे में क्या उनकी कोई राय बनी होगी? बहुत से लोग लिखते हैं कि बैंक बिकने वाले हैं। सरकारी कंपनियाँ बिकने वाली हैं। मगर वो आपस में किस तरह की बहस करते हैं? उनके बीच बहुमत किस बात पर है, अल्पमत किस पर है?

दस करोड़ लोगों का रोज़गार सामान्य बात नहीं। इनमें से अधिकतर गोदी मीडिया देखते हैं। आईटी सेल का प्रोपेगैंडा करते होंगे। उसकी सामग्री फार्वर्ड करते होंगे। एएमयू, जेएनयू, जामिया जैसी सरकारी यूनिवर्सिटी को गाली देते होंगे। देशद्रोही कहते होंगे। क्या ये सारे लोग नौकरी जाने के बाद प्रोपेगैंडा की चपेट से बाहर आ जाते होंगे? इस सवाल का जवाब तलाश रहा हूँ। मैंने कई मित्रों के पोस्ट देखे हैं। उनका कहना है कि ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ है। नौकरी जाने के बाद भी वे मस्त हैं और प्रोपेगैंडा की चपेट में है। इस बात से बिल्कुल दुखी नहीं हैं कि गोदी मीडिया नौकरी पर बहस क्यों नहीं करता? बैंकों के निजीकरण पर बहस क्यों नहीं करता? बल्कि बैंकों में भी लोग गोदी मीडिया देखते देखते गोदी मीडिया के जैसे हो गए हैं।

फिर भी मेरा मन इसे स्वीकार नहीं करता है। नौकरी जाना बड़ा धक्का होता है। अगर यही सच है कि करोड़ों लोग नौकरी जाने और सैलरी घट जाने या नहीं दिए जाने के बाद भी सरकार से प्रसन्न हैं तो अच्छी बात है। सिर्फ़ सरकार के लिए नहीं बल्कि इन लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी। चाहे किसी भी कारण से हों मगर ख़ुश तो हैं। डिप्रेशन में तो नहीं हैं।

फिर भी जानना चाहता हूँ कि जिस गोदी मीडिया और आईटी सेल की झूठी सामग्री को उन्होंने सच माना, उसे फैलाया, उसके आधार पर लोगों को गालियाँ दी, देशद्रोही कहा, क्या वे इन दोनों से बिल्कुल मायूस नहीं हैं कि उनकी व्यथा को गोदी मीडिया और आई टी सेल ने आवाज़ नहीं दी? कमाल है।

इन बड़ी बातों के बीच इन छोटी ख़बरों को फिर कैसे लिखूँ ?

अगर नौकरी जाने वाले करोड़ों लोगों का समूह ही कह दे कि वो सुशांत सिंह राजपूत को लेकर कई घंटे की ग़ैर ज़रूरी बहस को देखना ही प्राथमिकता मानता है तो फिर कोई क्या करे?

क्या उन ख़बरों को ऐसे लिखे–

छोटे लघु व मध्यम श्रेणी के उद्योगों की अपनी रिपोर्ट है कि अगस्त तक चार करोड़ लोगों की नौकरियाँ जा सकती हैं,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

CMIE का कहना है कि पचास लाख वेतनभोगी लोगों की नौकरी चली गई होगी,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

ट्रैवल एंड टूरिज़्म सेक्टर से चार करोड़ों लोगों की नौकरियाँ जा सकती हैं,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

एयर इंडिया के पचास पायलट निकाले गए,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

बिक जाएगा एयर इंडिया। सरकार करेगी फ़ैसला,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

मेट्रो के कर्मचारियों की सैलरी आधी होगी,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

प्रशांत भूषण अवमानना के दोषी, कई पूर्व जजों ने किया विरोध,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

डॉ कफ़ील ख़ान पर रासुका तीन महीने और बढ़ी,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

दंगों के आरोप में प्रोफ़ेसरों की हो रही है पूछताछ,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

गोली मारने का नारा लगाने वालों से कुछ नहीं पूछा पुलिस ने,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

जे एन यू के साबरमती हॉस्टल में हिंसा की जाँचता का पता नहीं,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

रेलवे ने बंद की नई भर्तियाँ, पुरानी भी पूरी नहीं कर रही,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

स्टाफ़ सलेक्शन कमीशन कब करेगा भर्ती पूरी, छात्रों ने पूछा,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

ये हुई ना बात। भारत ने दुनिया को साबित कर दिया है कि करोड़ों लोगों की नौकरी जाने पर भी आई टी सेल और गोदी मीडिया का प्रोपेगैंडा सर्वोपरी है। वे उससे बाहर नहीं निकलेंगे। वही देखेंगे। कनेक्शन नहीं कटवाएँगे। आप सभी को बधाई।


रवीश कुमार
जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।

 


 

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