कोरोना से 24 घंटे में 1007 लोगों की मौत, पर पीएम की नज़र में लड़ाई क़ामयाब है

24 घंटे में 1007 लोगों की मौत। भारत में 44,386 लोगों की मौत हो चुकी है। 24 मार्च की तालाबंदी के बाद से अगर ये कामयाबी के आंकड़े हैं तो फिर कामयाबी का ही मतलब बदल गया है। हर महीने 10,000 के करीब मौत हुई है। मगर मरने वालों की संख्या को कम बताने का तरीका खोज लिया गया है। कभी रिकवरी रेट तो कभी मृत्यु दर। हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस महामारी के कारण दुनिया भर में 7 लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। सात महीने में ही। अभी कोरोना के इलाज का कुछ भी ठोस पता नहीं है।

8 अगस्त को प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक ट्विट किया है। प्रधानमंत्री का बयान है कि “आप ज़रा कल्पना कीजिए, अगर कोरोना जैसी महामारी 2014 से पहले आती तो क्या स्थिति होती? ”

कभी 70 साल तो कभी 2014। ऐसा क्या किया है सरकार ने कि वह 2014 के पहले की सरकार की क्षमता पर काल्पनिक सवाल उठा रही है? हड़बड़ाहट में तालाबंदी जैसा कदम उठाया गया। जिसका नतीजा आर्थिक बर्बादी है।

एक तरफ न्यूज़ीलैंड है। 100 दिन से कोरोना का कोई केस नहीं है। एक तरफ भारत है जहां अब 60,000 से अधिक केस रोज़ आ रहे हैं। क्या वाकई भारत की कामयाबी इतनी बड़ी है? कामयाबी है भी?

याद कीजिए मार्च का महीना चैनलों और अखबारों में तबलीग जमात की खबरें गढ़ दी गईं। लोगों के दिमाग़ में ज़हर फैलाया कि कोरोना तबलीग जमात के कारण फैल रहा है। हालत यह हो गई कि लोग सब्ज़ी-फल वाले से धर्म पूछने लगे। ग़रीबों को सताने लगे। उस समय हर तबलीग के संपर्क को खोज निकाला गया था। इससे लगा कि हमारे पास कांटेक्ट ट्रेसिंग की क्षमता है। इसी क्षमता का इस्तमाल विदेशों से आए लोगों का पता लगाने में कर लिया जाता तो देश को इतनी जल्दी या हड़बड़ाहट में तालाबंदी झेलने की नौबत नहीं आती। लेकिन उसके बाद से वो काटेंक्ट ट्रेंसिंग कहां गायब हो गई है पता नहीं चला। तब प्रेस कांफ्रेंस में अलग से बताया जाने लगा था कि तबलीगी जमात के कितने लोगों में पोज़िटिव मिला है। उन्हें सुपर स्प्रेडर कहा जाता था। चैनलों की तस्वीरों पर तरह तरह के स्केच बनाए गएं ताकि इस महामारी को एक मज़हबी खलनायक मिल जाए। अब उसी तबलीग के लोग ज़मानत पा रहे हैं। उन्हें अपने-अपने देश जाने की अनुमति मिल रही है। इनके चीफ की गिरफ्तारी के वारंट रोज़ मीडिया में निकलते थे। अब पता नहीं उस केस का क्या हुआ।

इसके बहाने आम जनता का इस्तमाल कर लिया गया। मूल सवालों से उसका ध्यान हटा दिया गया। उसे समझना होगा कि सांप्रदायिकता की बूटी देकर उसके भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है। उसकी आंखों में धूल झोंकर धक्का दिया जा रहा है।

तबलीग के प्रसंग के कुछ ही हफ्ते बाद अन्य धार्मिक आयोजनों की तमाम तस्वीरें आई हैं, मीडिया ने चुप्पी साध ली। वह एक धर्म की आड़ लेकर दूसरे धर्म को खलनायक बना रहा है ताकि वह सवाल पूछने की जवाबदेही से बच जाए। क्योंकि अगर सवाल पूछेगा तो सरकार से पूछना होगा। धर्म का तो रोल है नहीं इसमें। लोगों ने खुद से भी त्योहारों के वक्त सामाजिक दूरी का पालन भी किया। ऐसे भी कई उदाहरण हैं। शिव भक्त देवघर और हरिद्वार कांवड़ लेकर नहीं गए और न ही मस्जिदों में रमज़ान के दौरान नमाज़ हुई। ईद की भी नहीं हुई।

इसका मतलब है कि सभी धर्मों के भीतर के लोग भी इस महामारी की गंभीरता को समझ रहे हैं। लेकिन उन्हीं धर्मों के भीतर जो लोग नहीं समझ रहे हैं उसे लेकर मीडिया अपनी तरफ से पैमाना बना रहा है। जहां पालन नहीं होता है उसे सामान्य घटना मान कर किनारे कर देता है। धार्मिक पक्षपात का बवंडर खड़ा कर गोदी मीडिया ख़ुद धार्मिक पक्षपात की अभेद दीवार बना चुका है।

तिरुपति मंदिर के 743 कर्मचारी संक्रमित हो गए हैं। तीन पुजारियों की मौत भी हो गई है। मीडिया रिपोर्ट में लिखा है कि केवल तीन कर्मचारियों की मौत हुई है । यही केवल लगा कर हम कोविड से होने वाली मौतों को दरकिनार कर रहे हैं। मौत केवल एक या केवल तीन नहीं होती है। क्या आप 44,386 मौतों को केवल 44,386 मौतें कह सकते हैं?


रवीश कुमार जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।

 


 

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