जनवरी 2024 का भारत निश्चित ही इतिहास में एक दिलचस्प पाठ बतौर दर्ज होगा। मीडिया की आँखों से देखने पर पूरा भारत राममय ही नज़र आयेगा जिसके लिए अयोध्या में बन रहे राममंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा पर लहालोट होना एकमात्र ख़बर है। राममंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय दावा कर चुके हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भगवान विष्णु के अवतार हैं, लेकिन मीडिया के ऐंकरों-रिपोर्टरों का मन इतने भर से नहीं भर रहा है। पीएम मोदी केंद्रित अयोध्या रिपोर्टिंग कुछ ऐसा आभास दे रही है जैसे विष्णु ख़ुद मोदी के अवतार हों। माडिया बता रहा है कि अयोध्या त्रेतायुग में पहुँच गयी है। दावा भव्यतम नगर बन जाने का है। उत्साह में टीवी रिपोर्टर इसे नये भारत की आध्यात्मिक राजधानी भी बताते फिर रहे हैं। यह भूलकर कि यह पदवी उस काशी नगरी को हासिल है जो प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है। इस मीडिया की नज़र उन अयोध्यावासियों पर भूलकर भी नहीं पड़ रही है जिन्हें बेघर कर दिया गया है या जिनका रोजगार छीन लिया गया है। उनके आँसुओं की क़ीमत कुछ छोटे यूट्यूब चैनल ही समझ सके हैं।
ऐसे में यह उम्मीद करना बेकार ही है कि कथित मुख्यधारा मीडिया को उत्तर पूर्व में बहता कोई अलग रंग नज़र आयेगा। यह रंग राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ का है। 14 जनवरी से शुरू हुई इस यात्रा ने पूरे उत्तर पूर्व में भारत नाम के विचार की गरमाहट भर दी है। राहुल गाँधी के नेतृत्व में सुदूर घाटियों में भारत की प्राण प्रतिष्ठा का यह कार्यक्रम कांग्रेस की ओर से किया गया एक ऐतिहासिक हस्तक्षेप है। मणिपुर से इस यात्रा का शुरू होना भी संयोग नहीं है जहाँ आठ महीने से आग लगी हुई है लेकिन अयोध्या में राजनीतिक निर्वाण का यज्ञ करने में जुटे प्रधानमंत्री की चिंताओं में इसकी लपटें आज तक जगह नहीं बना सकी हैं।
पिछले साल हुई भारत जोड़ो यात्रा की तरह इस यात्रा की सफलता पर भी संदेह जताने वालों की कमी नहीं थी। खासतौर पर उत्तर पूर्व में कांग्रेस की कमजोर चुनावी स्थिति का तर्क दिया जा रहा था। लेकिन यात्रा को शुरुआत से ही अभूतपूर्व जनसमर्थन मिलने के संकेत मिलने लगे थे। मणिपुर में राहुल ने लोगों का दिल जीत लिया जहाँ कुकी और मैतेई समुदायों का झगड़ा उस जगह पहुँच गया है कि इसे आसानी से गृहयुद्ध कहा जा सकता है। वहाँ इतने दिनों बाद भी हालत ये है कि पुलिस और प्रशासनिक अफसर तक राज्य के नहीं कबीलों के प्रतिनिधि माने जा रहे हैं। मैतेई और कुकी इलाकों के बीच आवाजाही करते हुए राज्यपाल की गाड़ी का ड्राइवर तक बदला जाता है ताकि कोई ‘गैर’ मानकर हमला न करे। ग़ौर से देखिये तो यह भारत की एकता और अखंडता पर किसी बड़े हमले की तरह है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी इससे ज़रा भी चिंतित नहीं हैं। सैकड़ों मौतें, बलात्कार और महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने की घटनाएँ भी उनका मौन व्रत तोड़ नहीं सकीं। उन्होंने न अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह को हटाया और न खुद एक बार भी मणिपुर गये।
ऐसे में राहुल गाँधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा मणिपुर से शुरू करके स्टेट्समैन की भूमिका निभायी। वे हिंसा की शुरूआती दिनों में एक बार पहले भी मणिपुर गये थे। उनकी यह निरंतरता मणिपुर के लोगों के लिए एक बड़े आश्वासन की तरह है। उन्होंने मणिपुर पहुँचकर ादोनों ही समुदायों को गले लगाया। नौजवानों और महिलाओं ने जिस तरह से सड़कों पर उमड़कर राहुल गाँधी का स्वागत किया वह बताता है कि राहल की इस कोशिश का भरपूर असर पड़ा है। यही हाल, अरुणाचल और असम का भी रहा। जहाँ-जहाँ राहुल की यात्रा पहुँची, लोगों ने उसे हाथो-हाथ लिया। मीडिया के ब्लैकआउट के बावजूद सोशल मीडिया में वे सारी तस्वीरें तैर रही हैं जिनसे इस भारत जोड़ो न्याय यात्रा के असर को मापा जा सकता है।
वैसे, बीजेपी इस यात्रा को लेकर शुरू से आशंकित थी। राममंदिर को लेकर सुनियोजित तूफान मचाने की उसकी योजना में राहुल कत्रा पलीता लगा सकती थी, इसीलिए शुरू से इसे तवज्जो न देने की रणनीति अख़्तियार की गयी। मीडिया को भी यही इशारा था जिसने ‘जो हुक्म मेरे आक़ा’ की तर्ज़ पर काम किया। लेकिन जिस तरह से राहुल के लिए भीड़ उमड़ी उसने इस योजना में ही पलीता लगा दिया। खासतौर पर असम में यात्रा के आयोजकों पर बीजेपी सरकार की ओर से करायी गयी एफआईआर, मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा का राहुल गाँधी पर हमला और कई जगह बीजेपी कार्यकर्ताओं द्वारा कांग्रेस के बैनर पोस्टर फाड़ने से लेकर यात्रा में शामिल नेताओं पर पथराव ने साबित कर दिया कि बीजेपी का धैर्य शुरू में ही चुक गया। इसने कांग्रेस को भी पलटवार करने का मौका दे दिया। खुद राहुल गाँधी ने हेमंत बिस्व सरमा को सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री होने का तमगा दे दिया। भीड़ ने जिस तरह से सरमा पर भ्रष्टाचार के आरोप का ताली बजाकर समर्थन किया, वह बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है।
अयोध्या के निर्माणाधीन राममंदिर में प्राणप्रतिष्ठा करने को लेकर न शंकराचार्यों की सुनी गयी और न रामानंदाचार्य की। सभी इस आयोजन में शास्त्रविरुद्ध बता रहे हैं। उधर राहुल गाँधी जिस विचार की प्राणप्रतिष्ठा करने में जुटे हैं वह आधुनिक भारत के सर्वाधिक मान्य शास्त्र यानी संविधान से सिद्ध है। क्षेत्र और धर्म के नाम पर विभाजित करने की राजनीति से उलट संविधान के संकल्पों के आधार पर एकजुट करने का प्रयास दरअसल भारत की प्राण-प्रतिष्ठा है। यह उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ हुए स्वतंत्रता संग्राम के विकट दिनों में भारतीय जनता की एकजुटता और संविधान सभा के उन संकल्पों की याद दिला रही है जसने विविधिताओं से भरे इस महादेश को एक होने का तर्क दिया था। स्वतंत्रता संघर्ष में ख़ून बहाने वाले भारतीय धर्म, जाति, क्षेत्र की विभिन्नताओं के बावजूद ख़ून के एक नये रिश्ते से बँधे थे। जब गंगा के शोक में कावेरी उदास हुई थी और साबरमती के संत की पुकार पर ब्रह्मपुत्र में उफान आ गया था।
राहुल गाँधी की यात्रा भारत को भारत होने का मतलब समझा रही है। इस यात्रा को अभी कई राज्यों से गुज़रना है। असम में जिस तरह से हमले हुए हैं वो आने वाले दिनों में और बढ़ सकते हैं। इतना तो साफ़ है कि राहुल गाँधी एक बड़ी रेखा खींचने में जुटे हैं जो न सिर्फ कांग्रेस बल्कि पूरे इंडिया गठबंधन को नयी तेजस्विता दे सकता है। न्याय के बिना आज़ादी झूठी होने की बात समझाना इस यात्रा का असल हासिल होगा। उम्मीद है कि यात्रा के बिहार और यूपी तक पहुँचते-पहुँचते आर्थिक और सामाजिक न्याय का प्रश्न, जातिजनगणना से लेकर ‘जितनी आबादी, उतना हक़’ तक का रहुल गाँधी का नारा एक बड़े राजनीतिक मुद्दे में तब्दील हो जाएगा और धार्मिक ध्रुवीकरण के छलछद्म पर भारी पड़ेगा।
अयोध्या में प्राणप्रतिष्ठा को लेकर की गयी जल्दबाजी के पीछे निश्चित ही बीजेपी का मिशन 2024 है। उसकी कोशिश अपने रंग को एकमात्र रंग और अपने विचार को एकमात्र विचार के रूप में पेश करने की थी। लेकिन राहुल गाँधी की यात्रा ने बता दिया है कि विचारधारा की लड़ाई में उसका पाला एक ऐसे योद्धा से पड़ा है जो हथियार डालने को तैयार नहीं है। कुछ मोर्चों पर मिली हार की परवाह न करते हुए राहुल एक व्यापक युद्ध के लिए न सिर्फ़ कांग्रेस के सहयोगी दलों बल्कि देश को तैयार कर रहे हैं।
अयोध्या में 22 जनवरी को विपक्षी नेताओं की अनुपस्थिति को मुद्दा बनाने की रणनीति पर काम कर रही बीजेपी को पत्थरबाज़ी के बीच भारत की प्राणप्रतिष्ठा के लिए जूझते राहुल गाँधी की तस्वीरें किसी झटके की तरह हैं। विपक्ष को कठघरे में खड़ा करते-करते वह खुद कठघरे में नज़र आने लगी है। मोदियाबिंद के शिकार मीडिया को यह नज़र आये भी तो कैसे?
सत्य हिंदी में छप चुका है। लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।