‘आये हैं सो जाएंगे, राजा-रंक-फ़क़ीर’- जो भी दुनिया में हैं, एक दिन विदा होंगे। अनेक वर्षों से बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले रामविलास जी चुपचाप विदा हो गए। पिछले कई महीनों से वह अस्वस्थ चल रहे थे।
मैं नहीं जानता इतिहास उन्हें किस तरह याद रखेगा। इतिहास, जैसा कि कवि दिनकर ने लिखा है, चकाचौंध का मारा होता है। वह बहुत कुछ इग्नोर अथवा उपेक्षित कर देता है और बाज़ दफा झूठ का बवंडर भी उठाता होता है। वंचित तबकों से आए लोगों के किए-दिए की तो उसे कोई खबर भी नहीं होती। फिर अपने युग के शासक तबके के विचारों का भी वह खूब खौफ खाता है। हमलोग जब बच्चे थे, जोतिबा फुले, आम्बेडकर, पेरियार रामास्वामी जैसे नेताओं का नाम भी नहीं जानते थे। जबकि दूसरे दर्जे में ही विनोबा को पढ़ना पड़ा था। आने वाले इतिहास में जब आज की गाथा लिखी जाएगी तो पता नहीं रामविलास जी रहेंगे या नहीं, और यदि रहे तो किस रूप में रहेंगे।
रामविलास जी से कुछ समय तक के लिए मेरी भी नजदीकियां रहीं। सन 2000 में मेरा जुड़ाव हुआ। कुछ समय तक प्रगाढ़ता रही, और जैसा कि मेरी आदत है, मैंने ही दिलचस्पी कम कर दी। ऐसा इसलिए कि उनका परिमंडल मुझे बिलकुल पसंद नहीं था। लेकिन इस छोटे से समय में भी मैंने उस रामविलास को जाना, जिसे शायद दूसरे नहीं समझ पाए होंगे। मुझ से परिचय अचानक हुआ था। जनवरी 2000 की इक चिल्ला सुबह मेरे पास फोन आया। मैं भाई के पास दिल्ली में था । उन दिनों मोबाइल फ़ोन का प्रचलन नहीं था। बेसिक फ़ोन पर, वह भी भाई के, जहाँ मैं रुका हुआ था, रामविलासजी का फ़ोन। मुझ से उसके पूर्व, ढंग की कोई जान-पहचान भी नहीं थी। मेरा अचरज स्वाभाविक था। उन्होंने मुझे भोजन पर आमंत्रित किया। तब वह केंद्रीय मंत्री थे। मैं निर्धारित समय पर जब पहुंचा, तब वह व्यक्ति बाहर खड़े थे, जिन्होंने मेरा नंबर उन्हें दिया था। वह एक पूर्व सांसद थे। रामविलास जी ने जो आत्मीयता दिखलाई, वह मेरे लिए कुछ अचरज भरा था। किसी ने मेरे बारे में कुछ ज्यादा तो नहीं हाँक दिया? मैं सहज नहीं था। लेकिन उस रोज जो सिलसिला बना, वह तब तक बना रहा, जबतक मैंने अपनी तरफ से सुस्ती नहीं दिखाई। मैं कह सकता हूँ कि वह राजनीति में नहीं होते, तो मेरी मित्रता प्रगाढ़ होती जाती। मेरे मनोभावों को शायद वह भी जान गए थे, इसलिए मुझ पर कभी कोई जोर नहीं दिया।
(हालांकि, इसकी प्रतिक्रिया में नीतीश जी से मेरी दूरी बढ़ी। मुझे नीतीश जी ने अपनी पार्टी से बाहर किया। मैंने कोई सफाई नहीं दी। बल्कि आज़ाद हो गया। यह सब मेरे जीवन का एक अलग प्रसंग है। )
रामविलास जी से कई बार राजनीति से अलग की बातें हुईं। ऐसी बातों में उनका अंतस खुल कर सामने आता था। समाजवादी नेता रामजीवन बाबू के साथ एक बार हम लोग मिले तब अपने प्रथम चुनाव की कहानी सुनाने लगे। रामजीवन बाबू हुँकारी भरते और मंद-मंद मुस्कुराते रहे। 1969 में पहला विधानसभा उन्होंने जीता था, संसोपा के टिकट पर। फ़टे कपडे और हवाई चप्पल में वह पार्टी दफ्तर में आए। रामजीवन बाबू तब कार्यालय सम्भाल रहे थे। उनसे ही टिकट की याचना की। शायद अलौली क्षेत्र था। सुरक्षित। रामजीवन बाबू ने पूछा नामांकन के लिए पैसा है ? रामविलास जी को शायद पता था कि ऐसे सवाल पूछे जा सकते हैं। उन्होंने पैसे दिखलाए। तब नामांकन के लिए जमानत राशि ढाई सौ ही थी। अनुसूचित समुदाय के लोगों के लिए उसकी आधी ही। रामजीवन बाबू ने सिंबल दे दिया। मुकद्दर के सिकंदर रामविलास जी चुनाव जीत कर आ गए। यह उनकी राजनीतिक एंट्री थी। बाद की कहानी सार्वजानिक है।
रामविलास जी के बारे में कुछ बातें और जाननी चाहिए। उन्होंने दलित नेता के रूप में खुद को कभी नहीं रखा। वह सोशलिस्ट राजनीति के हिस्सा रहे। 1977 में संसद में पहुंचे। वहां उन्होंने दलितों की आवाज को बुलंद किया और एक नई पहचान बनाई। कर्पूरी ठाकुर ने जब मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया, तब वह जी-जान से उनके पीछे लगे रहे। 1980 में वह मुट्ठी भर विपक्षी सांसदों में थे, जो इंदिरा गाँधी की आंधी झेल कर लोकसभा पहुंचे थे। मार्च महीने की किसी तारीख को मैंने संसद की कार्यवाही पहली दफा दर्शक दीर्घा में बैठ कर देखी थी। इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थी। विपक्ष में टूटे सारंगी की तरह चरण सिंह और फूटे ढोल की तरह जगजीवन राम भी थे। रामविलास जी ने बिहार में दलित उत्पीड़न का कोई मामला उठाया। कांग्रेस सत्ता में थी। उधर से जोरदार हंगामा हुआ। रामविलासजी गरजे – ‘मैं बेलछी में नहीं भारत की संसद में खड़ा हूँ। आप मेरी आवाज बंद नहीं कर सकते।” शायद बेलछी का नाम आते ही इंदिराजी चौंक गईं। वह खड़ी हुईं। ऊँगली के इशारे से अपने सांसदों को बैठाया। गृहमंत्री अमुक तारीख को जवाब देंगे का आश्वासन दिया। तब सदन सामान्य हुआ।
इस घटना के बीस साल बाद उनसे परिचय हुआ। एक बातचीत में जब यह प्रसंग सुनाया, तब उन्होंने कई किस्से सुनाये। बेलछी पर भी कुछ बातें बतायीं, जो आज तक सार्वजानिक नहीं हुई हैं। बेलछी काण्ड जब हुआ था, तब भी वह संसद सदस्य थे। तुरत-तुरत चुने गए सांसद। मार्च में चुने गए थे और मई में वह घटना हुई थी। अगस्त में इंदिरा जी वहाँ पहुंची थीं। रामविलास जी क्षुब्ध थे। वह जनता पार्टी में थे। पार्टी में जब आवाज उठाई तब चरण सिंह ने धमकी दी कि पार्टी से निकाल दूंगा। चुप रहो। नए-नए रामविलासजी चुप लगा गए। उनकी मजबूरी समझी जा सकती है। लेकिन उनके भीतर बहुत कुछ टूटा होगा। और शायद इसी ने दलित सेना की पृष्ठभूमि बनाई थी।
धीरे-धीरे उन्होंने लड़ना सीखा। कर्पूरी ठाकुर से भी लड़े। दूसरे पिछड़े नेताओं से भी। सोशलिस्ट राजनीति में दलितों की कोई औकात नहीं होती थीं। वह पिछड़ों की पार्टी थी। रामविलास को बिहार में कांग्रेस के साथ नहीं जाना था। सोशलिस्ट राजनीति में दलितों के दिन लौटेंगे, इस उम्मीद में वह बने रहे। 1989 में वह वीपी सिंह मंत्रिमंडल में शामिल हुए। उन्होंने प्रधानमंत्री पर जोर देकर बाबासाहेब आम्बेडकर को भारतरत्न ख़िताब दिलवाया। मंडल आयोग से सम्बंधित फैसले पर किसी भी पिछड़े नेता से आगे बढ़ कर संघर्ष किया। लेकिन तथाकथित पिछड़े नेताओं ने बार-बार उन्हें अपमानित करने की कोशिश की। इस संबंध में सारी जानकारियां दूँ तो एक किताब हो जाएगी। 2000 में बिहार विधानसभा में उनसे मुख्यमंत्री बनने के लिए पूछा गया था। उनका फ़ोन आया और उन्होंने मेरी राय जाननी चाही। मैंने पूछा-क्या आपको लगता है कि बहुमत हासिल कर लेंगे ? उन्होंने न कहा। मैंने प्रस्ताव ठुकराने की सलाह दी। उन्होंने प्रस्ताव ठुकरा दिया। उसके बाद नीतीश कुमार सात दिन के लिए मुख्यमंत्री हुए।
दलगत मामलों में शरद यादव ने छोटी-छोटी बातों पर उनकी नाक में दम किया हुआ था। तब ये दोनों जदयू में थे और नीतीश समता में। बिहार की राजनीति के प्रवासी पुरोहित शरद यादव, रामविलास जी से नफरत करते थे। वह उनकी हर बात की खिल्ली उड़ाते थे। मैंने खुद शरद जी से यह सब सुना था। मुझे लगता था यह बात सीमित दायरे में होगी। लेकिन एक रोज पीड़ा भरे लहजे में रामविलास जी ने यह बात मुझे बतलाई। उन्होंने तय कर लिया कि अलग पार्टी बनानी है। मैंने उनका समर्थन किया। स्थापना की तारीख चुनने में मुझसे सलाह ली। मैंने जोतिबा फुले की पुण्यतिथि 28 नवंबर का दिन सुझाया। इसी रोज 2000 में दिल्ली के रामलीला मैदान में लोक जनशक्ति पार्टी की स्थापना हुई।
पार्टी को उन्होंने कैसे चलाया इस पर लिखना फिजूल है। मैं कभी सहमत नहीं हो सका। वह परिवार और गुंडों से घिरते चले गए। लेकिन जब गोधरा काण्ड पर गुजरात सरकार का विरोध किया, तब मुझे अच्छा लगा। जब वह मिले उन्हें बधाई दी। एनडीए 2004 में हार गई। लालू के साथ मिलकर उन्होंने भाजपा को पराजित किया। लेकिन 2014 में उसी नरेंद्र मोदी के समर्थन में आ खड़े हुए। मैं परेशां हुआ। लेकिन उनका फैसला हो चुका था।
तो ऐसी मिली-जुली संस्कृति के थे रामविलास जी। कुल मिला कर संवेदनशील और जुझारू। मैं उन्हें भूल नहीं सकता। एक बात उनसे जरूर सीखनी चाही कि इस शख्स को कभी क्रोध क्यों नहीं आता? उन्हें गुस्से में कभी नहीं देखा। वह अभावों के बीच पले थे, और इस बात को समझते थे कि अपमान और अभाव क्या होता है। किसी को दुखी देख कर उन्हें दुखी होते और मदद करते कई बार देखा। कोई कार्यकर्ता बिहार से आया है, किसी तरह उनके चैम्बर में आने का जुगाड़ उसने लगा लिया था। उसे देखा तब चिंहुक उठे, अरे तुम ? यहां ?
तीन दिन से आया हूँ। आज संभव हुआ मिलना।
रामविलास जी रोने-रोने को हो गए। एक रोज पहले ही उसका पॉकेट कट गया था। उस भूखे-फटेहाल कार्यकर्त्ता के पीछे अपने अफसर राठी जी को लगाया। कोई कमी नहीं होनी चाहिए। इनका काम हो और इन्हें पूरी दिल्ली घुमानी है। जब तक चाहें रहें। गाड़ी आवास की व्यवस्था अभी कीजिए।
तो यह सब कुछ भी था उनमें।
ओह रामविलास जी ! आप से मतभेद भी थे। अनेक बातों का आलोचक भी था, मैं आपका, खास कर गुंडों की एंट्री को लेकर। लेकिन आपको अभी विषम-काल में जाना नहीं था। इतनी क्या जल्दी थी? लोग तो चालाकी से बात करते हैं, आप जैसी खुल कर कौन बात करेगा ! आप बहुत याद आओगे रामविलास जी।
बहुत भीगे मन से आखिरी सलाम !
कथाकार प्रेमकुमार मणि 1970 में सीपीआई के सदस्य बने। छात्र-राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1971 में एक किताब “मनु स्मृति:एक प्रतिक्रिया” (भूमिका जगदीश काश्यप) प्रकाशित। “दिनमान” से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास, दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।