कुमारी अनामिका
1960 में प्रसिद्ध कहानीकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी पर आधारित एक फ़िल्म आई थी, ‘उसने कहा था’. फिल्म का एक दृश्य है जिसमें सिपाही लाम पर जा रहे हैं और पार्श्व में मन्ना डे की आवाज़ में गीत बज रहा है, ‘जाने वाले सिपाही से पूछो कहाँ जा रहा है…’ इस फिल्म के बनने के 5 दशक बाद, देश के हालात और अपनी जड़ों से उखड़े और पैदल चलते कामगार-मजदूरों को देखते हुए भी यही ख़्याल कौंधा. सिपाही और मजदूर जिन्होंने दो धुरी पर इस देश को सम्हाला, लेकिन आज आज़ादी के इतने वर्षों के बाद उनकी क्या स्थिति है? क्या कुछ बदला? क्या जुड़ा? लगातार जो विकास के सपने दिखाए गए, उन्हें सींचने का काम नेपथ्य में रहकर लगातार बिना किसी क्रेडिट और कद्र के यह करते आये, उनकी इस दशा पर आज इतनी चुप्पी क्यों है? सीधे मुख्यधारा से गायब, ठीक उसी प्रकार से जैसे सिपाही को अपनी जान का अंदाज़ा लगभग होता है युद्ध में जाने से पहले, वैसे ही पैदल चलने वाले यह मज़दूर अपनी जड़ों की ओर लौटने की ठान, अपनी जान से बेपरवाह, महीनों से पैदल चले जा रहे हैं, बिना किसी सुविधाओं के जीते-मरते.
मेरा ताल्लुक बिहार से रहा और व्यापकता में देखें तो बिहार के प्रवासी मज़दूर आधुनिक भारत के निर्माण में सस्ता एवं सर्व-सुलभ श्रम का बलिदान देने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
यह कहना कतई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि ‘कौन बनाया हिंदुस्तान? भारत का मज़दूर किसान…’ लेकिन वर्तमान में मोदी सरकार द्वारा देशी-विदेशी पूँजी की मुनाफ़ाखोरी को लगातार बढ़ावा देने के लिए धीरे-धीरे श्रम-क़ानून को ख़त्म कर लगातार निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के द्वारा मज़दूरों को पूँजीपतियों के अधीन ग़ुलाम बनाने की वकालत धड़ल्ले से होती रहीं.
बिहार से पलायन करने वालों की संख्या भारत के दूसरे राज्यों की अपेक्षा अधिक है. जहाँ पलायन आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग, गरीब, दलित, महादलित, भूमिहीन मज़दूर और अर्द्ध भूमिहीन मज़दूर करते आए हैं. वहीं साल दर साल बिहार में पलायन घटने की बजाय लगातार बढ़ा ही है. साथ ही राज्य सदियों से पिछड़े राज्य की श्रेणी में शामिल है. यहाँ भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, पलायन, लाचारी और बेबसी की समस्याएँ ज्यों-का-त्यों बनी हुई हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशानुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, देशवासियों के समक्ष बिना किसी रोस्टर प्लान के 25 मार्च से संपूर्ण लॉकडाउन की घोषणा करते हैं. केंद्र सरकार द्वारा लिया गया लॉकडाउन का फ़ैसला वैध है. लेकिन प्रवासी मज़दूरों को बिना किसी सुरक्षा मुहैय्या कराए तथा उनकी मूलभूत समस्याओं को दरकिनार कर यह फैसला लेना पूरी तरह से अमानवीय और मज़दूर विरोधी है. वहीं केंद्र के साथ राज्य सरकारों ने भी लॉकडाउन की नीतियों में मज़दूर हितों की अनदेखी की.
सरकार ने देश को संबोधित करते हुए लोगों को अपने घर में ही रहने का सलाह तो दिया, लेकिन देश के दिहाड़ी मज़दूरों के लिए लॉकडाउन के नियमों का नियमित पालन करना कितना संभव है? जो रोज कमाने खाने को यूँ ही मजबूर रहे हैं. अंततः मोदी सरकार द्वारा देश के कामगारों के प्रति कोई भी संवेदना प्रकट नहीं की गई और ना ही किसी प्रकार की विशेष राहत योजना बनाई गई, बल्कि प्रवासी मज़दूरों को उनकी स्थिति पर छोड़ दिया गया.
लॉकडाउन-1 की घोषणा होने के दूसरे दिन ही कंपनी के प्रबंधकों और ठेकेदारों द्वारा अपने श्रमिक मज़दूरों को किसी प्रकार की सहायता प्रदान नहीं की गयी. यहाँ तक की उन्हें उनकी बकाया राशि भी नहीं दी गयी और उन्हें काम पर आने से भी मना कर दिया. ऐसे में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले श्रमिकों को रहने एवं जीवनयापन के संकटों से लगातार जूझना पड़ा रहा है.
प्रवासी मज़दूरों के प्रति ‘सुशासन बाबू’ की नैतिकता
बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य में छह बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं. और लगभग 15वाँ साल अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल का पूरा करेंगे. लेकिन क्या इन पंद्रह सालों में बिहार की तस्वीर बदली है? क्या बिहार समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से मज़बूत हुआ? शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के क्षेत्र में कितना विकास हुआ है? तथा बिहार के प्रवासी मज़दूरों को पलायन से रोकने में नीतीश सरकार कितनी सक्षम है? बिहार आज कहाँ खड़ा है? इसका सही आकलन इस महामारी के दौर में ही किया जा सकता है.
बिहार के प्रवासी मज़दूर ज़्यादातर दिल्ली, मुम्बई, पूणे, आंध्रप्रदेश, बेंगलुरु, गुजरात, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि के शहरों में अनौपचारिक क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूरी या किसी ठेकेदार के अधीन तथा हाइवे, सड़क, बिल्डिंग के नवनिर्माण के कार्य में संलग्न है.
अब तक बिहार के श्रमिक वर्गों के प्रति नीतीश कुमार की सहानुभूति नगण्य है. उन्होंने श्रमिक मजदूरों के लिए किसी प्रकार की ठोस सहायता प्रदान नहीं की, जिसके कारण आज श्रमिक वर्ग असमर्थ और असहज महसूस कर रहा है. कोरोना महामारी प्रवासी श्रमिकों के लिए एक त्रासदी बन कर आई. बिहार के प्रवासी मज़दूर देश के विभिन्न हिस्सों में लगभग 50 दिनों से फँसे हुए हैं और घर-परिवार से दूर निरंतर भूख, बेचैनी और मौत से जूझ रहे हैं.
आज मज़दूर अपने ही देश में तिरस्कृत महसूस कर रहा है. आज उनके पास ना भोजन है और ना ही रहने के लिए घर का किराया. आज वे पूरी तरह से समाजिक संस्थाओं की मदद पर आश्रित हैं. ऐसे में बिहार के प्रवासी मजदूर अपने पैतृक गाँव लौटना उचित समझते हैं, ताकि अपने लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकें.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन सभी परिस्थितियों को जानते हैं, हैं इसके बावजूद अपने श्रमिकों से लगातार दूरी बनाए हुए हैं. वे फ़िलहाल इन्हें गृह राज्य बुला कर किसी तरह का जोखिम उठाना नहीं चाहते. वहीं बिहार के यह प्रवासी मज़दूर इस उम्मीद में थे कि लॉकडाउन-एक की अवधि समाप्त होगी तब कुछ राहत मिलेगी. लेकिन पुनः मोदी सरकार द्वारा लॉकडाउन-2 की घोषणा कर दी गई. जहाँ श्रमिक वर्गों को किसी प्रकार की राहत पैकेज तथा छूट नहीं दी गई.
आज मज़दूरों की आमदनी का ज़रिया पूरी तरह से खत्म हो चुका है. वे अपनी ज़िंदगी की जर्जर हालत और मौत के बीच संघर्ष कर रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार के तमाम दावों के बावजूद उन तक कोई मदद नहीं पहुँच पायी. तब वे मज़दूर दिल्ली से लेकर देश के दूसरे शहरों के तंग गलियों से निकल कर अपनी पत्नी, और मासूमों के साथ, कंधों पर सामान उठाये भूखे-प्यासे पैदल, साईकल वगैरह से हज़ारों किलोमीटर दूर अपने पैतृक गाँव बिहार जाने के लिए विवश हुए. और इस त्रासदी के दौरान कितनों ने घर पहुँचने से पहले ही, बीच रास्ते में दम तोड़ दिया. अपने राज्य को पैदल लौट रहे इन प्रवासी मज़दूरों की हुई मौत का आधिकारिक आँकड़ा भारत सरकार द्वारा अब तक जारी नहीं किया गया है.
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ‘सुशासन की सरकार’ कही जाती है. लेकिन वही ‘सुशासन राज’ बिहार के कई ऐसे बच्चें हैं जिनकी उम्र 14 वर्ष से 17 वर्ष होगी, जो ग़रीबी और अभाव में अपनी पढ़ाई को अधूरा छोड़कर बड़े शहरों की ओर रुख़ करते हैं और अंततः इस व्यवस्था में दिहाड़ी मज़दूरी करने को विवश होते हैं ताकि वे अपने परिवार की जीविका में सहयोग कर सकें. लॉकडाउन में इन बच्चों की हालत सोशल मीडिया पर आये दिन देखने को मिलती है. कैसे पुलिस के डंडे के सामने वे अपना बचाव कर रहे होते हैं. लेकिन उन बच्चों के मलिन चेहरे को देखकर पुलिस को दया तक नहीं आती. वे बच्चें रोते-कलपते, भूख से बेहाल, तेज धूप और लू के थपेड़ों को सहते हुए अपने घर जाना चाहते हैं. इन बच्चों की दयनीय स्थिति को देखकर भी सुशासन बाबू की अंतरात्मा जागृत नहीं हुई और ना ही प्रवासी मज़दूरों के लिए किसी तरह का एक्शन प्लान ही बनाया गया.
आख़िर हम सरकार को क्यों चुनते हैं? सरकार की ज़िम्मेदारियाँ क्या होती है? मज़दूरों की आवाज कौन सुनेगा? अन्य तमाम गतिविधियों को दरकिनार करके बिहार सरकार को सबसे पहले प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुँचाने की व्यवस्था करनी चाहिए थी. पर वे चुप्पी साधे, मुक़दर्शक बनकर मज़दूरों की हालत को देख रहें हैं.
लॉकडाउन और प्रवासी मज़दूरों का संघर्ष
देश में लॉकडाउन लागू होने के बाद प्रवासी मज़दूर के आय का स्रोत पूरी तरह से बंद होने के बाद जब उनके लिए भोजन की व्यवस्था करना भी मुश्किल हो गया, तब इन परिस्थितियों से निज़ात पाने के लिए उनके पास सिर्फ़ एक ही विकल्प था किसी तरह अपने ‘घर पहुँचना’. वे हताश-निराश होकर बिना किसी सरकारी इंतजाम के सड़क की ओर रुख़ करते हैं लेकिन सरकार के इशारों पर पुलिस क़हर बरसाने में पीछे नहीं हटती. जिसका इंतजाम सरकारी तौर पर जरूर था. बावजूद वह इन बाधाओं को पार करते हुए अपने परिवार के साथ रात के नीम अंधेरे और दोपहर की गर्मी में भी निकल पड़े.
इसी बीच देश में लगातार प्रगतिशील समाजिक संगठनों, मज़दूर यूनियन और छात्र संगठनों द्वारा चलाई गई जन आंदोलनों के दवाब में केंद्र और बिहार सरकार प्रवासी मजदूरों और छात्रों को गृह राज्य बुलाने के लिए सहमत हुई. लेकिन अपने आधिकारिक नोटिफिकेशन में बिहार सरकार प्रवासी मज़दूरों को घर जाने के लिए रेल किराया नहीं देगी. नतीजतन उन्हें रेल किराया खुद वहन करना पड़ेगा. राज्य सरकार उन्हें 21 दिन की क्वारंटाइन अवधि पूरा करने के बाद रेल किराया भुगतान करेगी. लेकिन जिन रोजमर्रा कमाने-खाने वाले मज़दूरों की पिछले 50 दिनों से आय का ज़रिया बंद है वह रेल किराया का भुगतान कैसे करेंगे?
वहीं दूसरी शर्तें यह भी है कि सिर्फ़ उन्ही मजदूरों को वापस आने की इजाजत दी जाएगी जो अचानक हुए लॉकडाउन के कारण देश के दूसरे हिस्से में फंसे हैं. जो पहले से वहां काम कर रहे हैं उनको वापस आने की अनुमति नहीं होगी. सचाई यह है कि लॉकडाउन के बाद काम बंद हो गए हैं और पहले से काम कर रहे मजदूर भी सड़कों पर आ गए. वह पहले से ही अनेक तरह की दिक़्क़तों का सामना कर रहे हैं. फिर उन्हें वापस आने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है?
घर लौटते प्रवासी मजदूरों से रेल किराया वसूलना मज़दूर विरोधी नीति है. जबकि सरकार को सभी प्रवासी मज़दूरों को पीएम केयर्स फंड की राशि से रेल किराया और लॉकडाउन भत्ता देना चाहिए था, और इस बीच मारे गए श्रमिकों को उचित मुआवजे का प्रावधान तत्काल प्रभाव से लागू करना चाहिए था.
जहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से राज्य में सरकार चला रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी केंद्र की सत्ता पर आसीन है. लेकिन नीतीश कुमार बिहार के प्रवासी श्रमिकों की इस त्रासदी से निपटने के लिए केंद्र सरकार से अब तक समन्वय नहीं बना पाये हैं.
बिहार सरकार के आईपीआरडी डाटा के अनुसार अब तक 17 लाख प्रवासी लोगों ने गृह राज्य बिहार आने के लिए अपना रजिस्ट्रेशन करवाया है. वहीं आपदा प्रबंधन विभाग के अनुसार 1 मई से लेकर अब तक 1.30 लाख से ज्यादा प्रवासी मज़दूर वापस आए हैं और 15 मई तक 85 हजार से अधिक प्रवासी मज़दूर के बिहार लौटने का अनुमान लगाया जा रहा है.
सरकार का कहना है कि कुल 169 ट्रेनों का परिचालन शुरू किया जाएगा, जिनमें लगभग 2.2 लाख प्रवासी मजदूर वापस अपने घर लौटेंगे. लेकिन बिहार सरकार अभी भी प्रवासी मज़दूरों को उनके घर तक पहुँचाने में असमर्थ साबित हो रही है. लॉकडाउन-3.0 में कुछ प्रवासी मज़दूरों की ट्रेन और बस से वापसी तो हुई लेकिन बाकी मजदूर अब भी सड़क मार्ग से पैदल या साइकिल से बिहार आने के लिए मजबूर हैं. प्रवासी मज़दूर आर्थिक तंगी से गुजर रहें हैं. उनके पास घर लौटने के लिए किराया तक नहीं है. उनके साथ में गर्भवती महिलायें भी ज़िंदगी और मौत के बीच पैदल चलने के लिए मजबूर हैं.
पूर्णिया बिहार से एक प्रवासी मज़दूर ने मीडिया को साक्षात्कार देते हुए बताया, ‘मैं 2 दिन से भूखा हूँ, हमारे पास अब कोई आय का ज़रिया नहीं बचा, पैदल घर जाने के लिए विवश हूँ. सोचा जब यहां भी मरना है भूखे प्यासे, तो बीच रास्ते में, घर जाते हुए ही मरें. हमारे पास न मोबाइल है न पैसे हैं, कुछ नहीं है. किसी ट्रेन की जानकारी भी नहीं है’.
वहीं राजस्थान में फंसे बिहार के सैकड़ों प्रवासी मज़दूरों को घर जाने के लिए बस-ट्रेन या अन्य कोई परिवहन का साधन नहीं मिला, वे पैदल या साइकिल से ही अपने घर की ओर निकल पड़े हैं. बिहार सरकार द्वारा पर्याप्त ट्रेनें और बसों की व्यवस्था नहीं करने पर मज़दूर अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए अब सैकड़ों की संख्या में हज़ार किलोमीटर पैदल बिहार जाने को विवश हैं.
आंध्र प्रदेश के कोवुरू में 4 मई को बड़ी संख्या में मज़दूर सड़कों पर उतरे और अपने घर जाने की मांग को लेकर प्रोटेस्ट भी किया और अपना दुख व्यक्त करते हुए कहा की हम लोग गरीब है इसलिए न तो बिहार सरकार हमारी सुध ले रही है और न ही केंद्र सरकार हमें भेजने के लिए कोई इंतज़ाम कर रही है.
वहीं केंद्र सरकार कोरोना वायरस के चलते विदेशों में फंसे भारतीयों को बन्दे भारत मिशन के तहत स्वदेश लाने का गाइडलाईन जारी कर चुकी है. पहले फ़ेज में फ़्लाइट द्वारा 23,300 लोगों को स्वदेश बुला चुकी है और दूसरे फ़ेज 16 मई से 21 मई तक 31 देशों से 30,000 हज़ार भारतीयों को बुलाने की तैयारी चल रही है. अब तक एक ही देश में दो तरह की कानून व्यवस्था चलाई जा रही है. आख़िर मज़दूरों से इतना भेदभाव क्यूँ? आज मज़दूरों की पीड़ा को समझने वाली, उनके रुदन को सुनने वाली सरकार विक्षिप्त हो चुकी है.
बिहार लौट रहे श्रमिक मज़दूरों के लिए बिहार सरकार द्वारा उनके गाँव के ही पंचायत भवन, स्कूल, और सामुदायिक भवन को क्वांरटीन सेंटर बनाकर रुकने की व्यवस्था की गई है. लेकिन अब तक राज्य सरकार द्वारा सिर्फ़ उन्हें थर्मल स्क्रीनिंग कराकर ही क्वारंटाइन किया जा रहा है. बिहार के कुछ क्वारंटाइन सेंटर से खबर आ रही है कि उन्हें भोजन, बिस्तर तथा बाथरूम में साबुन, मग और बाल्टी इत्यादि की पर्याप्त सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं. और अब तक बिहार पहुँचे प्रवासी मज़दूरों को पूर्णरूप से कोरोना वायरस की जाँच भी नहीं हो रही है. जाँच सिर्फ़ उन्हीं की हो रही है जिनमें कोरोना वायरस के लक्षण दिख रहे हैं. बिहार सरकार कोविड-19 के जाँच के लिए पर्याप्त जाँच किट उपलब्ध नहीं करा पाई है, जिससे कोविड-19 के प्रसार बढ़ने का खतरा है.
वहीं भारत सरकार को भी तत्काल प्रभाव से प्रवासी मज़दूरों को कोरोना की जाँच कराकर उन्हें उनके गृह राज्य भेजने की व्यवस्था और पहल करनी चाहिए थी. आज देश के कई हिस्सों से रोज़ाना मज़दूरों के मरने की खबरें आ रही हैं. यदि आज सरकार मज़दूरों को लेकर संवेदनशील होती, उचित कदम उठाए गए होते तो कई मज़दूरों की जान बच सकती थी.
लेकिन केंद्र सरकार इस बीच जनता से दिए जलवाने और थाली बजवाने में व्यस्त थी. यह सब करने के महीनों बाद क्या किसी का भला हुआ? (खासकर मज़दूर और किसानों का) सरकार कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए प्रतिदिन नीतियों का निर्माण कर रही है लेकिन उस नीति में श्रमिकों की दैनिक मूलभूत सुविधाओं का कोई ज़िक्र तक नहीं मिलता. आज केंद्र और बिहार सरकार द्वारा किस गुनाहों की सजा मजदूरों को दी जा रही है.
किसी भी संवेदनशील इंसान का सड़कों पर भूखे-प्यासे, रोते-बिलखते अपने गाँव की ओर लगातार पैदल चल रहे मजदूरों के पैरों में पड़े छालों की तस्वीरों को देख कर दिल दहल सकता है. ये मज़दूर कोरोना वायरस से मरें या ना मरें लेकिन भूखमरी और लॉकडाउन के बीच उपजी अनियमितता से ज़रूर मर रहे हैं. अंततः ऐसे करते-करते देश के मज़दूर मरते जाएंगे, फिर हमारा देश गरीब मुक्त या यूं कहें की मजदूर मुक्त भारत बन जायेगा. शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में अच्छें दिनों की परिभाषा यही है.
आज हम सभी को इकजुट होकर सरकार के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करना होगा. जो मज़दूर वर्ग हमारे लिए अपनों से दूर होते जा रहे हैं. उनके मौत के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम सभी हैं. देश का वह हर एक नागरिक है, जो मज़दूरों के बनाए घर में आराम से चैन की नींद सोता है लेकिन कभी इनके हक में बोलता नहीं पाया जाता.
लेखिका जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में शोध छात्रा हैं । सम सामयिक विषयों पर लिखती रहती हैं।
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