15-16 जून की रात, पूर्वी लद्दाख के गलवान वैली इलाक़े में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हिंसक झड़प में भारत के 20 जवान शहीद हो गए थे। 1962 के बाद, ये दोनो देशों के बीच का सबसे बड़ा सैन्य टकराव है। इस टकराव के दौरान, चीनी सेना ने 10 भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया था, जिनमें सेना के 4 अफ़सर भी शामिल थे। चीनी सेना और सरकार के साथ बातचीत के बीच ही, विपक्ष सरकार पर हमलावर हो रहा था और सरकार की ओर से चुप्पी थी।
इस के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी सिलसिले में 19 जून, शुक्रवार शाम सर्वदलीय वर्चूअल बैठक(All Party Virtual Meeting) बुलायी। इस मीटिंग में देश के 20 से भी ज़्यादा राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल हुए और सरकार की तरफ़ से प्रधानमंत्री के अलावा गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, विदेश मंत्री एस जयशंकर, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा भी मौजूद थे। इस मीटिंग में देश के मौजूदा हालातों पर चर्चा होनी थी। लेकिन हैरानी की ख़बर ये आई कि इस सर्वदलीय बैठक में, राष्ट्रीय जनता दल, आम आदमी पार्टी और एआईएमआईएम को आमंत्रित नहीं किया गया।
सबसे पहले आई तीख़ी प्रतिक्रिया
ज़ाहिर है कि ये ऐसा कदम था ही कि इस पर विरोध जताया जाए और आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने इसे केंद्र सरकार का भेदभावपूर्ण रवैया ठहराते हुए कहा कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा झूठा है।
Important press conference by Rajyasabha MP Sanjay Singh https://t.co/UH9GThgk3J
— AAP (@AamAadmiParty) June 19, 2020
तो आरजेडी ने भी इस पर ट्वीट किया कहा कि केंद्र सरकार की दृष्टि संकीर्ण है। इसके बाद, आरजेडी के सांसदों ने संसद के बाहर विरोध में प्रदर्शन भी किया।
राजद ने राष्ट्र हित में सबसे पहले गलवान में चीन के घुसपैठ पर आवाज़ उठाई थी और सेना को चुप और शांत रहने के सरकारी निर्देश की पोल खोली थी!
और अब केंद्र की लाख प्रयासों के बावजूद सच्चाई सबके सामने है! सर्वदलीय बैठक में राजद को आमंत्रित नहीं करना केंद्र के संकीर्ण सोच का परिचायक है!
— Rashtriya Janata Dal (@RJDforIndia) June 18, 2020
आरजेडी के सांसदों ने संसद भवन के बाहर प्रदर्शन किया। RJD के 4 सांसदों ने सर्वदलीय बैठक में नहीं बुलाये जाने पर शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध दर्ज किया।@RJDforIndia @yadavtejashwi @TejYadav14 @MisaBharti @manojkjhadu @laluprasadrjd @RabriDeviRJD pic.twitter.com/gm6wsNaUuD
— @KashishBihar (@KashishBihar) June 19, 2020
वहीं AIMIM के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने न केवल एक चिट्ठी लिख कर, इस भेदभाव पर सवाल किया, सरकार पर निशाना लगाते हुए कुछ गम्भीर और तीखे सवाल पूछे- जैसे,
- भारत और चीन की सेना की हिंसक झड़प के दौरान भारतीय सेना के कुल कितने जवानों की मृत्यु हुई है?
- सिक्किम के नकु ला इलाक़े अभी क्या परिस्थितियाँ हैं? वहाँ 9 मई को दोनो डेशनो के सैन्य बलूँ के बीच तनाव का माहौल था।
- चीन के साथ बातचीत अभी किस चरण में हैं?
- गलवान वैली में सेना के 20 जवानो की मृत्यु की ज़िम्मेदारी किसकी है?
- क्या चीन ने ये कहा है कि भारत ने आर्टिकल 370 में संशोधन करके लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनकर, दोनो देशों के बीच के द्विपक्षीय समझौते की अवहेलना करी है?
थोड़ा अजीब हालांकि ये है कि इस मामले पर बाकी पार्टियों ने, विपक्ष के इन दलों का साथ देते हुए – वैसे आवाज़ नहीं उठाई, जैसी की एक लोकतंत्र में अपेक्षित है।
सहकारी संघवाद पर चोट
देश की तीन बड़े राजनीतिक दलों की तरफ़ से सरकार पर सवाल उठाए गए हैं। आम आदमी पार्टी(AAP), राष्ट्रीय जनता दल(RJD) और AIMIM (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन) के नेताओं ने कहा है कि उन्हें इस बैठक में शामिल नहीं किया गया। RJD के नेता तेजस्वी यादव ने आक्रोश जताते हुए कहा कि “हम चाहते हैं राजनाथ सिंह जी बताएँ RJD को क्यों नहीं बुलाया गया?” इसी तरह की शिकायत AAP और AIMIM के नेताओं की तरफ़ से भी आयी। AIMIM के नेता ओवैसी ने भी निराशा व्यक्त करते हुए बैठक में ना बुलाए जाने के सरकार के निर्णय पर सवाल किए।
लेकिन 1990 के दशक से गठबंधन सरकारों के चयन और आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के कारण राज्य सरकारें और क्षेत्रीय दल, अंतराष्ट्रीय मामलों में भी अपनी राय रख पा रहे थे। पी वी नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान, वाजपयी सरकार के दौर में या फिर चाहे वो यूपीए-1 या यूपीए-2 का कार्यकाल हो, गठबंधन की राजनीति की वजह से कभी कोई एक दल हावी नहीं हो सका। कई विदेशी नीति के फ़ैसलों में, राज्य सरकारों का प्रभाव देखा गया। फिर वो तमिल नाडु सरकार का श्रीलंका की विदेश नीति पर असर रहा हो या ओडिशा की सरकार का FDI की नीतियों पर असर। अंतराष्ट्रीय मुद्दों में भी धीरे-धीरे राज्य सरकारों और क्षेत्रीय दलों की साझा भागीदारी दिखने लगी थी। हालाँकि ये कहना ग़लत नहीं होगा कि 2014 के बाद विपक्षी और क्षेत्रीय दलों की देश के निर्णयों में भागीदारी घटती जा रही है। इसके कुछ उदाहरण तो हमने हाल के दौर में ही देखें हैं, जैसे कि पहले लॉक्डाउन को लागू करने के लिए केंद्र ने राज्य सरकारों को विश्वास में नहीं लिया था और ना ही उनसे कोई सलाह मशविरा किया था, कोविद-19 की बिगड़ती स्थिति के बाद भी कभी कोई सर्वदलीय बैठक नहीं बुलायी गयी और अंत में सरहद पर जब इतना बड़ा तनाव है तब देश की तीन बड़ी पार्टियों को बैठक में नहीं शामिल करना भी ग़लत है। तो शायद 1980-2014 तक का जो राजनैतिक परिप्रेक्ष्य था वो बदल रहा है।
कहाँ गया वो सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास का वादा?
भारतीय संविधान में अंतराष्ट्रीय मुद्दों और विदेश नीतियों को केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी माना जाता है। परंतु उसी संविधान में Cooperative -Federalism के पक्ष में भी दलीलें हैं। अंत में निर्णय लेने का दायित्व तो केंद्र सरकार का ही है परंतु एक सरकार जो लगातार सबका साथ, सबका विश्वास के दावे करती आयी है, तो ऐसे मुश्किल वक़्त में तीन बड़े दलों को बैठक में शामिल नहीं कर कर क्या वो अपने ही वादे पर असफल नहीं हो रही है? दूसरी बात, जल्दी जल्दी निर्णय लेने के चक्कर में इस सरकार ने कई फ़ैसले अकेले लिए हैं – फिर चाहे उसका परिणाम जनता को कभी लॉक्डाउन की दिक्कतों में देखना पड़े या फिर कभी नोटेबंदी की मुश्किलों में। ये बात तो तय है कि अकेले चल कर शायद आप तीव्र गति से चलेंगे, लेकिन अगर सबको साथ लेकर चलेंगे तो आप दूर तक जाएँगे। एवेरेस्ट की चढ़ायी हमेशा टीम में की जाती है और अभी की परिस्थितियाँ किसी दुर्गम पहाड़ की चढ़ायी से कम नहीं हैं। सरकार को सारे दलों और राज्य सरकारों को साथ लेकर चलना चाहिए।
सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट और मीडिया विजिल टीम का ताज़ा हिस्सा हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।
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