क्या नरेन्द्र मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में फिर कोई चौंकाऊ अप्रत्याशित कदम उठाने वाली है? वैसा ही, जैसा उसने गत वर्ष पांच अगस्त को उठाया था, जब संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर सीमापार के आतंकवाद से बेतरह पीड़ित इस राज्य का न सिर्फ विशेष दर्जा छीन लिया, बल्कि उसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में बांटकर पूर्णराज्य भी नहीं रहने दिया और सारी राजनीतिक गतिविधियों को ठप करके रख दिया था?
कई प्रेक्षक इस तथ्य के मद्देनजर उसकी ओर से किसी नये अप्रत्याशित की उम्मीद कर रहे हैं कि जैसे उसने अनुच्छेद 370 हटाने से पहले अचानक बाहर से कश्मीर आये पर्यटकों को वापस चले जाने को मजबूर कर इंटरनेट सेवाएं रोक दी थीं और सशस़्त्र बलों की भारी तैनाती कर प्रायः सारे कद्दावर विपक्षी नेताओं को नजरबन्द कर कश्मीर घाटी को एक बड़ी जेल में बदल दिया था, वैसे ही अब पीडीपी नेता और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को रिहाकर राजनीतिक गतिविधियों के प्रति ‘सहिष्णु’ हो गई है। यों, उसकी इस सहिष्णुता का एक सिरा उसकी इस मजबूरी तक भी जाता है कि वह वहां लोकतंत्र को अनंतकाल तक स्थगित नहीं रख सकती। न ही राष्ट्रपति शासन की अवधि को ही अनंतकाल तक बढ़ाती रह सकती है। इधर वह महबूबा की नजरबन्दी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान जिस तरह उसका औचित्य सिद्ध करने में पसीना-पसीना होने को अभिशप्त हो रही थी, वह भी उसके निकट परोशानी का ही सबब था।
गौरतलब है कि इस तरह की मजबूरियों के ही तहत उसने कड़ी पाबन्दी वाले दिनों में भले ही विपक्षी नेताओं को जम्मू-कश्मीर दौरों की इजाज़त नहीं दी, यह जताने के लिए कि वह पाबन्दियों की आड़ में ऐसा-वैसा कुछ नहीं कर रही, विदेशी प्रतिनिधियों को कई बार ‘मौका मुआयना करने के मौके दिये थे। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के श्रीनगर में सड़क किनारे कुछ लोगों के साथ बिरयानी खाने की तस्वीरों की मार्फत भी सब कुछ ठीक होने का ‘संदेश’ दिया ही था।
लेकिन अब उसने जिस तरह एक साक्षात्कार में एलएसी पर चीनी कारस्तानियों के लिए चीन के बजाय भारत के अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले को जिम्मेदार ठहराने और प्रकारांतर से चीन के दखल को ‘आमंत्रित’ करने वाले फारुक अब्दुल्ला को अभय रख महबूबा की पार्टी से गठबंधन और केन्द्र के अत्याचारों के खिलाफ एकजुट संघर्ष के एलान की ‘इजाजत’ दे रखी है, उससे लगता ही नहीं कि यह वही मोदी सरकार है जिसने अनुच्छेद 370 के खात्मे के लिए न सिर्फ जम्मू कश्मीर के नेताओं बल्कि पत्रकारों की स्वतंत्रताओं और मानवाधिकारों की भी बलि ले ली थी। इस स्वतंत्रताहरण के खिलाफ उठी आवाजों की तो उसने बेदर्दी से अनसुनी की ही थी, ऐसी कोशिशें भी की थीं कि शेष देश अपने इस राज्य के दर्द को कतई न समझ सके। बड़ी सीमा तक वह इसमें सफल भी रही थी। उस दौर में जम्मू कश्मीर के लोगों ने कैसे-कैसे जख्म झेले, इसकी गिनी-चुनी जानकारियां ही बाहर निकल पाई थीं।
अभी भी शेष देश को ठीक-ठीक नहीं ही पता कि लंबा अघोषित कर्फ्यू कश्मीर घाटी के निवासियों पर कितना बुरा बीता, पहले इंटरनेट की बन्दी और बाद में कम स्पीड वाली इंटरनेट सेवा ने उनके बच्चों की पढाई-लिखाई पर कितना बुरा असर डाला, खासकर कोरोनाकाल में, जब उसका सारा दारोमदार आनलाइन पढाई पर आ टिका। फिर वहां के पत्रकारों, युवाओं, किसानों और व्यापारियों वगैरह को क्या-क्या सहना पड़ा।
लेकिन इस बात से वह पूरी तरह वाकिफ है कि महबूबा अपनी नजरबन्दी के खात्मे के फौरन बाद यह दावा करने से नहीं चूकी हैं कि ‘जो दिल्ली ने हमसे छीना है, उसे हम वापस लेंगे और काले दिन के काले इतिहास को मिटाएंगे।’
इससे भी कि उनके रिहा होते ही नेशनल कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी फारुख अपने बेटे उमर अब्दुल्ला के साथ उनसे मिलने गये। चूंकि ये तीनों ही नेता अलग-अलग समय पर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, इसलिए उनकी इस भेंट के बाद राजनीतिक कयास आरंभ हुए तो वे उमर की इस सफाई के बावजूद नहीं रुके कि वे तो बस महबूबा का हालचाल लेने आये थे। इसके अगले ही दिन कयासों को सही ठहराते हुए फारुक ने अपने घर पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर बहुचर्चित ‘गुपकार घोषणा’ को आगे बढ़ाने, महबूबा की पीडीपी के साथ गठबंधन करने और अनुच्छेद 370 की बहाली के लिए एकजुट संघर्ष करने के एलान कर दिया।
प्रसंगवश, ‘गुपकार’ फारुक के घर का नाम है, जहां पिछले साल केन्द्र के अप्रत्याशित कदमों से महज एक दिन पहले ऐसी ही एक बैठक में जम्मू कश्मीर की सात पार्टियों ने सर्वसम्मति से एक घोषणा तैयार की थी, जिसे अब ‘गुपकार घोषणा’ कहा जाता है। इस घोषणा पर दस्तखत करने वाली पार्टियां थीं : नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कांफ्रेंस, अवामी नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस, सीपीआई एम औऱ शाह फैसल का जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट। लेकिन इससे पहले कि वे जम्मू कश्मीर की पहचान, स्वायत्तता और विशेष दर्जे को संरक्षित करने के लिए मिलकर काम करने के अपने निश्चय पर अमल कर पातीं, मोदी सरकार ने उनके सारे अरमानों पर पानी फेर दिया था।
गौरतलब है कि पिछले साल भर के राजनीतिक शून्य ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर जो असर डाला है, उसके मद्देनजर उसकी प्रायः सारी पार्टियों के सामने खुद को नये सिरे से परिभाषित करने की चुनौती है- खुद को विश्वसनीय साबित करने की भी। इस कारण भी कि इन सबने सत्ता की खातिर समय-समय पर ऐसे अवसरवादी समझौते किये हैं, जिन्होंने जनता की निगाह में उन्हें संदिग्ध बना रखा है। ऐसे में नये संदर्भों में ‘गुपकार घोषणा’ के तहत संघर्ष से उनको क्या हासिल होगा?
जवाब उस सवाल तक जाता है जो हम शुरू में पूछ आये हैं : क्या मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में फिर कोई अप्रत्याशित कदम उठाने वाली है? अगर नहीं तो कड़ी पाबन्दियों के बाद राज्य के मुख्य विपक्ष को अचानक इतनी छूट देने की उसकी ‘दरियादिली’ के पीछे उसकी मंशा क्या है? अगर, हां तो वह अप्रत्याशित कदम कौन-सा होगा?
फिलहाल, दो अनुमान लगाये जा रहे हैं। पहला यह कि उसने साल भर पहले जो कुछ किया था, उसके रोलबैक की दिशा में बढ़कर जम्मू कश्मीर का विशेष नहीं तो पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल कर दे। इसकी संभावना इसलिए ज्यादा है क्योंकि इस दर्जे को छीनते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने वादा किया था कि परिस्थितियां अनुकूल होते ही जम्मू-कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य बना दिया जायेगा। बाद में इस तरह की कुछ अपुष्ट खबरें भी आई थीं कि सरकार इस वादे को निभाने की दिशा में बढ़ने की सोच रही है।
अब परिस्थितियां अनुकूल हो गई हैं या नहीं, इसका आकलन भी किसी और को नहीं, मोदी सरकार को ही करना है, जिसमें वह अपनी इस सुविधा का खयाल रखने को स्वतंत्र है कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य बनाकर उसकी विधानसभा का चुनाव कराये तो भाजपा की राजनीतिक बढ़त की उम्मीद कर सकती है। इसकी भी कि इस फैसले से राज्य में पैदा हुए अनेक उद्वेलन घट जायेंगे, जो अभी उमर अब्दुल्ला के इस एलान से खासे बढ़े हुए हैं कि जब तक जम्मू-कश्मीर का पुराना दर्जा बहाल नहीं होता, वे विधानसभा चुनाव ही नहीं लड़ेंगे।
लेकिन उसके पास एक अन्य विकल्प भी है। यह कि जम्मू कश्मीर में हानि-लाभ की चिन्ता छोड़ अपने रवैये पर कायम रहे और नेशनल काफ्रेंस, पीडीपी व कांग्रेस जैसे प्रतिद्वंद्वियों को उसके खिलाफ ‘विषवमन’ की खुली छूट दिये रखे। फिर तो इस विषवमन को देशद्रोह करार देकर शेष देश में अपनी राजनीतिक बढ़त पक्की करती रहना उसके बायें हाथ का खेल होगा।
मीडिया का एक धड़ा जिस तरह अभी से शेष देश में फारुक व महबूबा को खलनायक करार देने लगा है, उसके प्रभाव में मोदी सरकार इस विकल्प को आजमाने के लालच में फंसी तो एक और कदाशयता अपने नाम कर लेगी, जबकि पहला विकल्प आजमाकर वह थोड़ी लोकतांत्रिक नजर आ सकती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।