राम की अयोध्या में भी कोप-भवन था मी लॉर्ड, इस युग के दु:खी जन कहाँ जायें?

कुछ लोग खुश हो सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधित नागरिकता कानून के विरोध में दक्षिण दिल्ली के शाहीनबाग में तीन माह से ज्यादा चले धरने-प्रदर्शनों को लेकर तल्ख टिप्पणी करते हुए उन्हें लगभग अस्वीकार्य बता दिया है। लेकिन इस सिलसिले में न्यायालय ने जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें इस एक मामले तक ही सीमित करके देखना गलत होगा। इसलिए बेहतर होगा कि उन्हें व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए।

न्यायालय की जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने, जिसमें जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस कृष्ण मुरारी भी शामिल थे, अपने फैसले में ठीक ही कहा है कि देश का संविधान अपने नागरिकों को असहमति, रोष या क्षोभ प्रकट करने के लिए सरकारों के किसी भी कृत्य के लोकतांत्रिक विरोध का अधिकार देता है। लेकिन जैसे दूसरे नागरिक अधिकारों से, वैसे ही इस अधिकार से भी कुछ कर्तव्य जुड़े हुए हैं, जिनको याद रखा जाना जरूरी है। इन्हीं कर्तव्यों में से एक यह भी है कि कोई भी विरोध प्रदर्शन दूसरों की असुविधा का कारण या सार्वजनिक जीवन में बाधक नहीं बनना चाहिए। इसी असुविधा या बाधा से बचाव के लिए न्यायालय ने कहा है कि सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करके अनिश्चितकाल तक प्रदर्शन करते रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

जहां तक शाहीनबाग की बात है, हम जानते हैं कि वहां सौ से अधिक दिनों तक धरना-प्रदर्शन चला था, जिसके चलते कालिंदी कुंज के पास दिल्ली से नोएडा को जोड़ने वाली सड़क महीनों बंद रही थी। इतना ही नहीं, आसपास का कारोबार ठप रहा था और बच्चों को भी कई किलोमीटर घूमकर स्कूल जाना पड़ रहा था। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दायर की गई थीं, जिन पर फैसला सुनाने से पहले उसने संजय हेगड़े, साधना रामचंद्रन और पूर्व नौकरशाह हबीबुल्लाह को मध्यस्थ नियुक्त कर निर्देशित किया था कि वे शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को सार्वजनिक यातायात बाधित न करने और कहीं अन्यत्र जाकर विरोध प्रदर्शन करने के लिए समझायें।

लेकिन ये मध्यस्थ प्रदर्शनकारियों को इसके लिए सहमत नहीं कर पाये और उन्होंने सीलबंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट न्यायालय को सौंपी थी। अब, जैसी कि देश में न्यायिक फैसले खासी देर से आने की परिपाटी है, जब कोरोनाकाल का शिकार होकर वह प्रदर्शन अतीत में समा चुका है, न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया है।

वैसे इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप की जरूरत भी सिर्फ इसलिए पड़ी कि शाहीनबाग में जिस सरकार के बनाये कानून के खिलाफ प्रदर्शन किया जा रहा था, उसने प्रदर्शनकारियों से बातचीत कर उनके रोष व क्षोभ के शमन के उपाय करने का अपना न्यूनतम लोकतांत्रिक कर्तव्य निभाना भी जरूरी नहीं समझा था। साफ कहें तो यह प्रदर्शन सिर्फ इसलिए अनिश्चितकालीन होकर लम्बे समय तक खिंचता रहा कि सरकार ने अनसुनी करते हुए लगातार उसकी ओर पीठ किये रखी। स्वाभाविक ही अनेक प्रदर्शनकारियों ने इसे इस रूप में लिया कि वह उन्हें देश का नागरिक ही नहीं मानती। इस कारण उनका क्षोभ और बढ़ा और देश में एक के बजाय अनेक शाहीनबाग शुरू हो गये।

यहां यह बात भी काबिले गौर है कि इन प्रदर्शनकारियों ने बार-बार यह बात कही, जो कई मायनों में गलत भी नहीं थी, कि सार्वजनिक यातायात या सड़कें बन्द करने में उनकी कहीं कोई भूमिका नहीं है। वह तो दिल्ली की पुलिस है जो उनकी सुरक्षा के नाम पर नाना प्रकार के अवरोध खड़े करती हुई उनकी तोहमत प्रदर्शनकारियों के सिर मढ़ रही है।

यही कारण है कि जब सरकारी अधिकारियों से पूछा गया कि उन्होंने प्रदर्शनकारियों द्वारा खड़े किये गये अवरोधों को समय रहते हटा क्यों नहीं दिया, तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। इसलिए कि जो भी अवरोध थे, उन्हें टकराव टालने और सुरक्षा देने के नाम पर उन्होंने ही खड़े करा रखे थे। न्यायालय का कहना ठीक है कि अवरोधों को हटाने के सिलसिले में पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को उसके आदेशों की प्रतीक्षा करनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन वे करते तो क्या करते, जब इस प्रतीक्षा की बिना पर अपने राजनीतिक महाप्रभुओं की सुविधा के लिहाज से काम करने को अभिशप्त थे। ये महाप्रभु प्रदर्शनकारियों के संदर्भ में तो यह तर्क दे रहे थे, अभी भी दे ही रहे हैं, कि वे आजाद देश में अंग्रेजी राज के तौर-तरीकों वाले विरोध नहीं दोहरा सकते, लेकिन खुद उनके साथ अग्रेजी राज से भी बदतर सलूक पर आमादा रहते हैं।

ऐसे में न्यायालय कहता है कि कोई भी आंदोलन निरंकुश व्यवहार से असीमित समय के लिए नहीं चलाया जा सकता, तो उसका आदर करते हुए लोकतंत्र के तकाजे से उसमें इतनी बात और जोड़ने की जरूरत महसूस होती है कि कोई भी सरकार ऐसे प्रदर्शनों की अनिश्चितकाल तक अनसुनी नहीं कर सकती। इस बाबत प्रदर्शनकारियों में कोई भेदभाव भी नहीं किया जा सकता। लेकिन अभी तो अक्सर ऐसा होता है कि सरकारों के समर्थक सार्वजनिक जगहें घेरकर धरने प्रदर्शन करें तो चूंकि वे सरकार के अपने होते हैं, वह उन्हें अभय किये रहती है। लेकिन विरोधी ऐसा करें तो उनके दमन में अपनी सारी शक्ति लगा देती है।

उत्तर प्रदेश में शाहीनबाग के ही दिनों में पुलिस द्वारा संशोधित नागरिकता कानून के विरोधियों का बर्बर दमन तो इसकी मिसाल था ही, हाथरस कांड में विपक्षी दलों व पत्रकारों से बदसलूकी भी इसी की मिसाल है।

न्यायालय की यह नसीहत अपनी जगह ठीक है कि धरने और प्रदर्शन हमेशा विरोध के लिए निश्चित जगहों पर ही होने चाहिए। इसका अनुपालन इस लिहाज से भी उपयोगी है कि अभी आये दिन होने वाले प्रदर्शनों व सड़क जामों से अपरिहार्य जरूरतों के दबाव में घरों से निकले लोगों और उपचार के लिए अस्पताल ले जाये जा रहे मरीजों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। कई बार वाहनों के जाम में फंस जाने से मरीजों की मौतों तक की खबरें आती हैं। लेकिन बेहतर होता कि न्यायालय इस तथ्य का भी संज्ञान लेता कि सरकारें आहिस्ता-आहिस्ता विरोध के लिए निर्धारित ज्यादातर जगहों को खत्म करती जा रही हैं। अब तो कई जिला मुख्यालयों तक पर ऐसी जगहें नहीं बची हैं, जहां नागरिक एकत्र होकर अपना रोष-क्षोभ या विरोध जता सकें। फिर वे जायें तो जायें कहां?

सोचिये जरा कि ऐसा तो अयोध्या के महाराज दशरथ के राज में भी नहीं था। उनकी महारानी कैकेयी नाराज हुईं तो उनके लिए एक कोपभवन उपलब्ध था, जिसमें जाकर वे राम के राज्याभिषेक को लेकर अपना एतराज जता सकती थीं। अंततः दशरथ उनसे बात करने गये और जान दे दी, मगर उनके एतराजों का अनादर नहीं होने दिया। लेकिन आज राम राज्य की बात करने वाले सत्ताधीश विरोध करने वालों को दुश्मनों की तरह देखते और उनकी आवाजें दबाने के लिए किसी जी हद तक चले जाते हैं। वे अहिंसक गांधीवादियों और महिला प्रदर्शनकारियों को भी नहीं बख्शते।

वे देखना चाहें तो देख सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले में यह भी बताने की कोशिश की है कि देश में असहमति और लोकतंत्र साथ-साथ कैसे चल सकते हैं और कैसे असहमति के अधिकार को आम नागरिक के अधिकारों के साथ संतुलित किया जा सकता है? सत्ताधीश इस संतुलन को असंतुलित करने की बदनीयती तक न जायें और असहमतियों को कुचलने या कान न देने के फेर में न पड़ें तो न शाहीनबाग जैसे अनिश्चितकालीन प्रदर्शनों की नौबत आये और न न्यायालय को ऐसे फैसलों की सिरदर्दी झेलनी पड़े।

गौरतलब है कि कुख्यात आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स ऐक्ट {आफस्पा} के खिलाफ इरोम शर्मिला का बहुचर्चित अनशन भी ‘दुनिया का सबसे लम्बा अनशन’ बनकर दुर्भाग्यपूर्ण परिणति को इसीलिए प्राप्त हुआ था कि एक के बाद एक कई सरकारें उसकी लगातार अनसुनी करती रही थीं।


कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।

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