सुधांशु वाजपेयी लखनऊ विश्वविद्यालय के चर्चित छात्रनेता रहे हैं। आजकल कांग्रेस में सक्रिय सुधांशु ने पिछले दिनों लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत बीजेपी के तमाम नेताओं पर चले मुकदमों का संदर्भ लेते हुए एक बैनर लगाया था जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। यह बैनर, उन बैनरों की प्रतिक्रिया में लगाया गया था जिसमें सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं के चेहरों के साथ सरकार ने लगवाया था। जेल में 17 दिन रहने के अपने अनुभव सुधांशु ने लिखा है जिससे आज के जेलों की हालत का अंदाज़ा लगता है- संपादक
जेल यात्रा
मुझे नहीं मालूम यह परस्पर भिन्न उद्देश्य वाले शब्दों की प्रथम संधि किसने की थी मगर यह जब भी कोई मुझसे पूछता है कि यात्रा का क्या अनुभव रहा ? ऐसा प्रतीत होता है कि किसी तीर्थ यात्रा से आया होऊँ और कदाचित सच भी तो यही है कि राजनीति का अनिवार्य तीर्थ जेल है।फिर लखनऊ जेल में तो स्वयं जवाहर लाल नेहरू जी, गणेश शंकर विद्यार्थी समेत तमाम क्रांतिकारी भी रह चुके हैं।
विश्वविद्यालय का छात्र जीवन अनिवार्य रूप से सत्ता के अन्याय का विपक्ष होता है प्रदेश में बसपा,सपा और भाजपा सरकार तो केंद्र में यूपीए और फिर एनडीए सरकार, छात्र राजनीति से मुख्यधारा तक इन 10 वर्षों की राजनीति में कई सरकारी देखी मगर वर्तमान एनडीए/ भाजपा की तरह झूठी और जनविरोधी सरकार नहीं देखी. बेरोजगारी ने अपने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए तो किसान फसलों का वाजिब दाम पाने से वंचित रहा, सबसे ज्यादा आघातक तो यह की पहली बार सत्ता दल के विधायक/ पूर्व मंत्रियों के हाथ बेखौफ हो मां बहनों की आबरू से खेलते रहे और सत्ता संरक्षण देती रही.
जनता में हर तरफ विक्षोभ है, जिसकी अभिव्यक्ति भी समय-समय पर होती रही परंतु सरकार अपनी असफलताओं से ध्यान हटाने के लिए जनता को विभाजित करने के नित नये षड्यंत्र किए जाते रहे,जब भी सरकार संकट में आई हिंदू मुस्लिम नफरत की आड़ में सरकार ने खुद को सुरक्षित कर लिया। नफरत में सरकार इतनी अंधी हो गई कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक कार्यकर्ताओं यहां तक कि महिलाओं के भी पते के साथ सार्वजनिक स्थानों पर दंगाई कहकर पोस्टर लगाए गए। हाईकोर्ट द्वारा निजता के अधिकार की अवमानना पर पोस्टर हटाने के निर्देश दिए परन्तु सरकार मानने के बजाय जनादेश का दुरुपयोग कर अध्यादेश ले आयी। भारतीय संविधान कहता है जब तक दोष सिद्धि ना हो जाए किसी को भी दोषी नहीं कहा जा सकता,वह सिर्फ आरोपी है,परंतु सरकार खुद ही जज बन गई आरोपियों को दंगाई कहकर शहर में पोस्टर लगवाए गए जो किसी की भी मॉब लिंचिंग करवा सकते थे।
सत्ता के अहंकार को यह कहां स्वीकार्य कि कोई उससे सच कहे
सरकार यह भूल गई कि सामाजिक कार्यकर्ताओं पर तो झूठे आरोप हैं, मगर सीएम, डिप्टी सीएम से लेकर बीजेपी के कई नेताओं पर तो दंगे फैलाने समेत तमाम आरोप लगे. यदि आरोप के आधार पर ही दंगाई कहना है तो यह उंगली तो सबसे पहले उन्हीं की तरफ उठती है, परंतु सत्ता के अहंकार को यह कहां स्वीकार्य कि कोई उससे सच कहे या आईना दिखाने का साहस करें। हमें सत्य कहने की कीमत पता थी, हम उसके लिए तैयार थे, गाँधी के रास्ते की यही कसौटी है, सत्य के साथ रहो और कभी डरो मत।
ऐसा लगा जैसे मैं कोई आतंकवादी हूँ!
किसान जन जागरण अभियान के चलते पार्टी दफ्तर से लौटते देर हो जाती। उस दिन भी काम खत्म कर रात 9:00 बजे के करीब हम और मित्र अश्विनी चाय के लिए निकले लेकिन बीच में ही गाड़ी रोककर पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया। हम इसके लिए पहले से तैयार थे मगर भय का जो वातावरण बनाया गया उससे विचलित तो नहीं हुए मगर आश्चर्यचकित जरूर। हमें और अश्विनी दोनों को अलग-अलग दिशाओं में ले जाया गया। देर रात हम दोनों को सीओ के सामने पेश किया गया फिर इस थाने से उस थाने रात भर घुमाया जाता रहा।
रात 2:00 बजे के करीब मेडिकल के लिए ले जाया गया लगा कि शायद सुबह होते ही जेल ले जाया गया मगर उसके बाद फिर मुझे कैंट कोतवाली ले जाया गया। हमारी गाड़ी के पीछे भी पुलिस की गाड़ियां चल रही थीं, ऐसा लग रहा था जैसे मैं कोई आतंकवादी होऊँ। सुबह 10:00 बजे के करीब वहां से जज के सामने पेश कर 14 दिन के रिमांड पर जेल भेज दिया गया। जेल पहुंचा तो सामान्यतः दोपहर में जेल भेजने का नियम नहीं मगर मसला जानते ही कागजी कार्यवाही पूरा कर हमें सर्किल नंबर 5 यानी कोराटीम (जेल प्रशासन शब्दों में) ले जाया गया .
गरीब होना ही इस देश में अपराध है
रास्ते में ढेर सारे सवाल दिमाग में कौंध रहे थे। जेल के संबंध में गांधीजी और विद्यार्थी जी के संस्मरण पढ़े थे,तो क्रांतिकारियों की जीवनी भी,यही नहीं छात्र आंदोलनों में जेल गए साथियों से भी जेल के अंदर की अच्छे बुरे तमाम संस्करण सुन रखे थे जो कुल मिलाकर कौतूहल और भय का मिश्रित भाव उत्पन्न कर रहे थे। हरी भरी घास फूल पौधे और सफाई देखकर कुछ तो ठीक लगा परंतु पुलिस का क्या व्यवहार होता है? अपराधियों का क्या व्यवहार होगा? यह जुगुप्सा मन में थी। शाम होने को हुयी तो हम दोनों एक कोने में बैठ गए जाकर,एक आदमी पूरी बैरक में लगातार हंसी मजाक कर रहा था,सबसे मिल रहा था। वो हमारे पास भी आया मगर पूरा किस्सा सुनकर बड़ा अभिभूत सा दिखा, सच के लिए इतना जोखिम, उन्होंने कहा चलो अपराधियों के बीच कोई तो ऐसा है जिससे कुछ अन्य विषयों पर भी बात हो सकती है।
उन्होंने अपने पास में ही बिस्तर लगवा दिया और कहा अब आपको कोई दिक्कत नहीं होगी । कुछ ही देर में वह जेल काटने के सारे मंत्र से बता चुके थे कि कैसे रोटी के कोने को तोड़कर बीच का हिस्सा खाना है,दाल का पानी फेंककर नीचे बची हुई दाल खानी है। सब्जी तथा अन्य चीजें कैंटीन से ली जा सकती हैं और सबसे महत्वपूर्ण जेल में पैसा ही भगवान है, जिससे आप सब कुछ कर सकते हो,यह बात हमको खटक रही थी मगर हम चुपचाप सुनते रहे। धनाढ्य अपराधियों को बचाने के लिए भी निर्दोष गरीबों मजदूरों को जेल भेजा जाता है और जेल के अंदर भी पैसों के अभाव में नारकीय जीवन जीते हैं।
कभी डरना मत हौसला रखना तभी सच कह पाओगे
सुबह 6:00 बजे ही सब को उठा दिया जाता, सबको जोड़े में बैठाकर गिनती होती, यह जेल की प्रतिदिन की अनिवार्य प्रक्रिया थी। 15 अप्रैल की तारीख में आए लोगों को मेडिकल के लिए भेजा गया। मेरी गिरफ्तारी कुर्ते के साथ हुई थी जिससे वह हमारे लिए परिचय पत्र सा बन गया। अखबारों में खबर छप चुकी थी। नंबरदार हमारे पास आया और बोला- नेताजी जेल में उसे ही रियायत है जिसके आने की खबर अखबार से पता चले, उसका मंतव्य समझ मैं मुस्कुरा दिया । मेडिकल के लिए डॉक्टर के यहां पहुंचा, वहाँ भी डॉक्टर ने पूछते ही हाथ आगे बढ़ाया और शुभकामनाएं देते हुए कहा कि जेल से कभी डरना मत हौसला रखना तभी सच कह पाओगे।
बेहद सुकून हुआ कि जिस भरोसे यह लड़ाई लड़ी वह बचा हुआ है-
मेडिकल से निकले तो मुलाकात के लिए बुलावा आया। रविंद्र प्रताप सिंह, अनिल यादव और पार्टी के प्रशासनिक प्रभारी दिनेश सिंह जी मिलने आये। यह सबसे सुकून का पल था, जेल में जिस बात का सबसे ज्यादा इंतजार होता है वह है मुलाकात क्योंकि यही एक माध्यम है, जिससे जेल के बाहर का पता लगता, अपनों से अपनी सी बात हो पाती। तीसरे दिन प्रदेश अध्यक्ष जी आये. उनकी प्रतीक्षा इसलिए थी कि पुलिस स्टाफ से लेकर कैदियों तक आपको राजनेता स्वीकार करने की यह अनिवार्य शर्त थी कि पार्टी के शीर्ष पदाधिकारी मिलने आयें।
अध्यक्ष जी ने पार्टी द्वारा प्रदर्शन और पैरवी की खबरें दीं तो बेहद सुकून हुआ कि जिस भरोसे यह लड़ाई लड़ी वह भरोसा बचा हुआ है। जेल में मुलाकात के अलावा बाहर की दुनियाँ की खबर का कोई अन्य माध्यम न था. खाने-पीने से लेकर जरूरत की तमाम चीजें वह लेकर आए थे. प्रदेश अध्यक्ष जी का मिलने आने से जेल में हमारे पार्टी के सच्चे कार्यकर्ता की मुहर लग गयी. सब अब और भी सम्मान से पेश आ रहे थे. अध्यक्ष जी के मिलने के बाद जेल की जुगुप्सा और तनाव दोनों कम हुए। सर्किल के सभी बैरक सुबह 7:00 से 12:00 और शाम 3:00 से 7:00 तक खुलती । दुबे जी तमाम अपराधियों से ऐसे परिचय करवा रहे थे,जै से किसी पार्टी में आए हैं।
गजब संयोग था कि सामने की तरफ ही वीआईपी बैरक थी
मगर इन्हीं के बीच अन्याय और अत्याचार की कुछ ऐसी दास्तानें मिली जो दुखी कर रही थी । एक मजदूर जो होली पर परिवार के लिए सामान खरीद कर अपने गांव जा रहा था उसे पुलिस ने बुलाया गाड़ी में बिठाया और किसी अमीर के बदले उस मजदूर की गांजे के साथ गिरफ्तारी दिखा दी। एक भिखारी जो हाथ और पैर दोनों से विकलांग था, उसे भीख मांगने के अपराध में गिरफ्तार किया गया था। एक नौजवान जो नशा करते पकड़ा गया उसे बाइक तस्कर गिरोह का सरगना बना दिया गया। ऐसी तमाम कहानियां थी। वह निर्दोष थे इसलिए कह सकते हैं कि अपराधियों में हमने ना कभी वह पीड़ा देखी, न जीवन की अनिश्चितता । यह भी गजब संयोग था कि वही सामने की तरफ वीआईपी बैरक थी, जिनके लिए जेल में भी सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं,शायद “पैसा ही भगवान है” का इशारा दुबे जी का उन्हीं की तरफ था, हालांकि अखबार में पढ़ कर उसमें से भी तमाम लोग हमसे मिलने आए जिसमें अधिकांश किसी व्यापारिक अनियमितता में जेल आये थे।
तीन दिन किसी तरह कटे,हमें 18 मार्च का इंतजार था दोपहर में पेशी के लिए बुलावा आया लेकिन पेशी वाली गाड़ी को आधे रास्ते से लौटा दिया गया पता चला कि चलते कोर्ट अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिए गए।यह वज्रपात जैसा था। अगली सुबह अखबार में पढ़ा कि कोर्ट 28 मार्च तक बंद रहेंगे ,पूरी बैरक में उदासी थी, तमाम लोग तो ऐसे भी थे जिनकी जमानत मंजूर हो चुकी थी बस वेरिफिकेशन बाकी था ।
कल गोरे अंग्रेज थे तो आज काले अंग्रेज, चरित्र वही है
20 मार्च को मोदी जी ने जनता कर्फ्यू का आह्वान किया जिसका परिणाम यह हुआ कि लॉकअप 24 घंटों के लिए खोला ही नहीं गया, अगले दिन से योगी जी का लॉकडाउन लागू हो गया जिसका मतलब यह हुआ कि अब रोज का यह सिलसिला हो गया कि 24 घंटे लॉकप में ही पड़े रहना है,ऊपर से मुलाकात भी समाप्त कर दी गयी। रही सही कसर मोदी जी के 21दिन के लॉकडाउन ने पूरी कर दी । 28 मार्च को कोर्ट के खुलने की उम्मीद भी खत्म हो गई, फिलहाल 14 अप्रैल तक जेल में रहना तय हो गया था। कोई विकल्प न था विकल्प भी तो तब खुलते जब किसी से संवाद या मुलाकात हो पाती.ऊपर से कोरोना का डर अलग से, हर 1 घंटे पर साबुन से हाथ धोते,किसी को बैरक में खांसी भी आ जाती तो डर जाते।
जेल की ओपीडी में हर मर्ज की एक ही दवा दी जाती,लोग वहां जाने से भी डरते । समय काटना मुश्किल हो रहा था जब रात आती तो दिन गिनते चलो एक दिन किसी तरह कम हुआ। कोरोना के चलते हमारा अखबार भी बंद कर दिया गया था। नंबरदार रोज नई अफवाहें लेकर आते,उसमें से एक यह थी कि लॉकडाउन 3 महीने चलेगा। सोचकर सहम जाते फिर खुदको तसल्ली दिलाते नेहरू जी तो 11 साल जेल में रहे, गांधीजी 9 साल रहे तो भगत सिंह और तमाम क्रांतिकारियों को भयावह यातनाओं का सामना करना पड़ा था, अगर उनके रास्ते पर चलना है तो इसके लिए भी तैयार रहना होगा। कल गोरे अंग्रेज थे तो आज काले अंग्रेज, चरित्र वही है।
डराया धमकाया गया मगर हम लोग से पीछे नहीं हटे
इस चिंतन के फलस्वरुप परिजनों से संवाद, पढ़ने के लिए किताबें और लॉकअप कुछ समय टहलने के लिए खोला जाए जैसी मांगों के साथ हड़ताल शुरू की, पूरी बैरक सहमत
गांधी का रास्ता काम आया । उसी दिन शाम में आधे घंटे के लिए बैरक भी खोली गई, अगली सुबह लाइब्रेरी से हम गांधी जी की जीवनी और भारतीय संविधान दो किताबें लेकर आये। संवाद की व्यवस्था भी शुरू हुई । हमने भाई से सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोरोना के चलते विचाराधीन बंदियों की रिहाई की गाइडलाइन के आधार पर अपील के लिए कहा। किताबे मिलने से समय कुछ आसान हो गया लेकिन 24 घंटे लॉकअप में रहना बेहद यातनापूर्ण था। इसी तरह 15 दिन बीत गए, 16वें दिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर रिहाई के कागजों पर अंगूठा लगवाने के लिए पुकार हुई । हमें 14 दिन बाद दूसरे सर्किल में ट्रांसफर कर दिया गया था। हमारे अन्य साथियों का क्या हुआ,यह चिंता अब भी थी ,लेकिन अगले दिन ट्रांसफर में आये अन्य कैदियों ने बताया कि हमारे साथियों का भी रिहाई में नाम है,यह बेहद सुकून देने वाली खबर थी। लेकिन अगले दिन तक रिहाई की कोई खबर नहीं आयी जबकि तमाम लोग रिहा होते रहे।
तीसरे दिन भी सुबह चार से ज्यादा लिस्ट आयीं मगर उनमें हमारा या साथियों का कोई नाम न था। हम फिर खुद को हौसला देकर बैरक में लौट आये। तभी घंटे बाद एक और लिस्ट आई, मगर मैं बाहर नहीं निकला । लेकिन नंबरदार और अन्य कैदी दौड़कर मुझे बुलाने आए कि रिहाई हो गई है। अभी भी हमें अपने अन्य साथियों की चिंता थी, 2 साथी तो साथ ही रिहा हुए मगर एक नहीं हुआ,यह अधूरी खुशी थी। निकलते हुए हमने अधिकारियों से आग्रह किया कि रिहाई के लिए उसका भी नाम था लेकिन अभी तक वह रिहा नहीं हुआ,अधिकारियों ने आश्वस्त किया कि शाम तक रिहाई हो जाएगी। शाम को जब उसने दोस्त के नंबर पर कॉल कर बाहर आने की खबर दी तब जाकर सुकून मिला.जेल से निकला तो कांग्रेस साझा रसोई में हाथ बंटाया, यह भयानक दौर था, भूख से तड़पते लोगों को देखा जिन तक कोई सरकारी मदद नहीं पहुंची थी, उन तक खाना पहुंचे यह हम सबकी जिम्मेदारी थी.