क्या करगिल की तरह गलवान से भी वोट दुहने की तैयारी है..?

रविकांत

 

क्या गलवान घाटी को करगिल (1999) बनाया जा रहा है? अगर ऐसा है तो भारत की यह बड़ी भूल होगी।कहीं यह नरेन्द्र मोदी और भाजपा का चुनावी एजेंडा तो नहीं है? अगर यह एजेंडा है तो बहुत महंगा साबित हो सकता है।

दरअसल गलवान घाटी प्रकरण को कारगिल की तरह देखने के कुछ कारण हैं। पिछले एक माह से जनरल पनाग से लेकर सामरिक मामलों के जानकार और अजय शुक्ला जैसे पत्रकार लगातार लद्दाख में चीनी सैनिकों की मौजूदगी और अवैध तरीके से निर्माण कार्य करने की सूचना दे रहे थे। लेकिन सरकार सोती रही। यहां तक कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी लगातार ट्वीट करके सरकार से लद्दाख में वस्तुस्थिति स्पष्ट करने की माँग करते रहे। लेकिन अपने चिर परिचित रणनीतिक अंदाज में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप्पी साधे रहे। जवाब देने के लिए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को भेजा गया। रविशंकर प्रसाद ने उल्टे राहुल गांधी की समझ और चीन के बारे में सवाल पूछने की उनकी हिम्मत पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। लेकिन 17 जून को भारतीय सेना की तरफ से जानकारी दी गई कि गलवान घाटी में चीनी सैनिकों से मुठभेड़ में बीस भारतीय सैनिक हताहत हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने तब जाकर चुप्पी तोड़ते हुए एक सहमी सी प्रतिक्रिया जारी की, कि भारत अपनी संप्रभुता और अखंडता की रक्षा करने में सक्षम है। विदेश मंत्री स्तर पर भारत और चीन के मध्य हुई वार्ता से जानकारी हुई कि चीनी सेना ने लद्दाख में भारतीय जमीन का अतिक्रमण किया है। सैनिकों की मुठभेड़ के बावजूद चीनी सेना ने पीछे हटने से इनकार कर दिया है। लेकिन उसने बातचीत के माध्यम से समस्या का हल निकालने की दिशा में आगे बढ़ने की बात कही है।

कहा जाता है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए कारगिल में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ को जानबूझकर नजरअंदाज किया था। इसके बाद सैकड़ों सैनिकों की क्षति के बाद कारगिल को खाली करवाया गया। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के खिलाफ राष्ट्रवाद का मुद्दा उभारकर लोकसभा चुनाव में एनडीए की जीत दिलाई। एक तरह से कारगिल एनडीए के लिए तुरुप का पत्ता साबित हुआ। दरअसल हिंदुत्व और राष्ट्रवाद भाजपा के सबसे बड़े चुनावी मुद्दे हैं। इन मुद्दों से भाजपा को सफलता भी मिली है। लेकिन इनसे भारतीय समाज और देश का बहुत नुकसान हुआ है। हिन्दुत्व के मुद्दे ने बहुलता पर आधारित भारतीय समाज को लगभग स्थायी तौर पर हिन्दू बनाम मुस्लिम या हिन्दू और गैर हिन्दू में विभाजित कर दिया है। हिन्दुओं में भी कट्टर और उदार हिन्दुओं के बीच एक विभाजन रेखा खींच दी गई है। इसके भयावह परिणाम रोज ही हिंसा और नफरत से लबालब टिप्पणियों के रूप में दिखाई देते हैं।

क्या गलवान घाटी को भी राष्ट्रवाद और देशभक्ति का मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है? लेकिन यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चीन पाकिस्तान नहीं है। चीन सामरिक दृष्टि से न सिर्फ मजबूत है बल्कि वह अत्यंत हठधर्मी और महत्वाकांक्षी भी है। उसकी विस्तारवादी नीति किसी से छिपी नहीं है। तिब्बत और हांगकांग इसके बड़े उदाहरण हैं। इन परिस्थितियों के मद्देनजर एक सवाल यह है कि चुनाव जीतने की जिद में नरेंद्र मोदी और भाजपा देश को कहां ले जाना चाहते हैं। सांप्रदायिक राजनीति ने भारत के भीतरी सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। आर्थिक मोर्चे पर भारत लगभग दिवालिया होने के कगार पर है। विदेश नीति के मामले में भारत अब तक के अपने सबसे खराब दौर से गुजर रहा है। हमारा सबसे पुराना विश्वसनीय और स्वाभाविक मित्र देश नेपाल भी भारत से टकराव की मुद्रा में दिख रहा है। उसने अपने आधिकारिक नक्शे में लिपुलेख और काला पानी जैसे स्थानों को शामिल कर भारत सरकार के सामने एक चुनौती पेश की है। चीनी सेना की घुसपैठ दिखाती है कि भारत सामरिक दृष्टिकोण से भी चारों ओर से घिर चुका है।

दरअसल, चीन यही चाहता है। पिछले दशक में भारत विश्व की पाँच बड़ी आर्थिक शक्तियों में शुमार होने लगा था। एशिया में चीन के बाद भारत सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। चीन चाहता है कि वह भारत को खासकर दक्षिण एशिया में ही उलझाकर रखे। दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनने की महत्वाकांक्षा में चीन के सामने निश्चित तौर पर पिछले सालों में भारत एक चुनौती के तौर पर उभरा है। लेकिन ऐसा लगता है कि लद्दाख में भारत की अनदेखी ने चीन की रणनीति को कामयाब बनाया है।

गलवान को कारगिल की तरह भुनाना भाजपा के लिए भले ही चुनाव जिताने का दीर्घकालीन एजेंडा हो लेकिन इससे भारत को बड़ा नुकसान हो सकता है। भाजपा सरकार गलवान घाटी के इस घटनाक्रम का आगामी चुनावों में राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करके फायदा उठाने की कोशिश करेगी। ऐसा कहने का कारण भी है। बिहार और बंगाल के चुनाव के ठीक पहले इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का होना अपने आपमें शक पैदा करता है। सरकार की चुप्पी और मामले को छुपाना भी शंका के लिए पूरी गुंजाइश पैदा करता है। आखिर गलवान घाटी में अग्रिम मोर्चे पर बिहार रेजीमेंट को तैनात करने का क्या कारण है। शून्य से नीचे के तापमान पर यहां के मौसम में कुमाऊं रेजीमेंट, गढ़वाल रेजीमेंट या गोरखा रेजीमेंट के जवान ज्यादा समर्थ हैं। इन सैनिकों का शारीरिक स्वभाव कम तापमान में रहने का आदी होता है। अग्रिम मोर्चे पर तैनात बिहार रेजीमेंट के शहीद जवानों में अधिक बिहार के रहने वाले हैं।2019 के लोकसभा के ठीक पहले हुए पुलवामा आतंकी हमले में शहीद सैनिकों की फोटो लगाकर चुनाव प्रचार करने वाले नरेंद्र मोदी बिहार चुनाव में भी गलवान घाटी में शहीद सैनिकों के फोटो और उनकी शहादत का जज्बाती इस्तेमाल वोट मांगने में करें तो कोई अचरज नहीं होगा।

अगर गलवान घाटी चुनावी रणनीति का हिस्सा है तो एक सवाल और उठता है। क्या राष्ट्रवाद के बाहरी शत्रु के रूप में पाकिस्तान की जगह अब चीन आ गया है? चुनावी रणनीति के मामले में नरेंद्र मोदी बहुत माहिर खिलाड़ी हैं। वे बराबर मोहरों को उलटते-पलटते रहते हैं। इसलिए उनके मुद्दे पुराने नहीं पड़ते। तब क्या नरेन्द्र मोदी 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के तौर पर चीन को सामने लाएंगे? गलवान घाटी में आज की स्थिति को 2024 के चुनाव के ठीक पहले युद्ध स्थल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। यह युद्ध का मोर्चा होगा जरूर लेकिन असली मोर्चा नरेंद्र मोदी और भाजपा द्वारा विपक्ष को धराशायी करने का होगा। इसका संकेत अभी से मिलने लगा है। संघ और भाजपा के कार्यकर्ता घर-घर जाकर कोरोना संकट के बहाने एक कैंपेन चला रहे हैं। मजदूरों की स्थिति को जानने-समझने के बहाने इस कैंपेन में मोदी सरकार के छह साल की उपलब्धियों का बखान किया जा रहा है। इस कैंपेन में अब चीन के मुद्दे को भी शामिल कर लिया गया है। अब चीन को सबक सिखाने के लिए नरेन्द्र मोदी को मजबूत करने की अपील की जा रही है।

 

 



 लेखक रविकांत ,लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं।

 



 

 

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