सहयोग मांगा था तो लेने का सलीका भी सीख लेते सरकार !

पिछले दिनों मेरठ के एक अस्पताल ने बाकायदा विज्ञापन देकर घोषणा की कि वह धर्मविशेष के मरीजों को कोरोना स्क्रीनिंग के बाद ही भर्ती करेगा तो स्वाभाविक ही देश में ऐसी कड़ी प्रतिक्रिया हुई कि उसे माफी मांगनी पडी। याद कीजिए, तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि कोरोना की महामारी धर्म, जाति, रंग, भाषा व सीमा नहीं देखती और उसकी चुनौती से निपटने के लिए हमें परस्पर सहयोग, एकता और भाईचारे की जरूरत है। देश ने उनकी इस सहयोग-कामना का उन्हें भरपूर सिला भी दिया। और तो और, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी, जो यों उनकी और उनकी सरकार की रीति-नीति की आलोचना का कोई मौका नहीं छोड़ती, कह दिया कि वह महामारी के विरुद्ध सरकार के हर कदम के साथ है।

लेकिन देश के दुर्भाग्य से इस सदाशयता की उम्र लम्बी नहीं हो सकी। अब, जब उसकी अकाल मौत हो चुकी है, कांग्रेस का कहना है कि मोदी सरकार ने ‘हर कदम के साथ’ होने का अर्थ यह समझ लिया कि हम विपक्ष का दायित्व निभाना और सवाल पूछना भी बन्द कर देंगे। हमारे तईं यह मुमकिन नहीं था और जैसे ही हमने कुछ सवाल पूछे, यह सरकार तो विरोधियों को दुश्मन मानने की अपनी पुरानी परम्परा निभाने ही लगी, उसकी समर्थक राज्य सरकारें भी उसी के ढर्रे पर चलकर अपने राजनीतिक हित साधने लगीं।

कांग्रेस की बात न मानें तो भी कहना होगा कि इस सदाशयता को बनाये रखने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी सरकार की ही थी। दोनों पक्षों के राजनीतिक हितों के टकराव आड़े आ रहे थे तो भी बड़ा दिल दिखाने की ज्यादा अपेक्षा सरकार से ही थी। यह समझने की भी कि संकुचित स्वार्थों पर निशाने साधते रहकर बड़े लक्ष्य हासिल नहीं किये जा सकते। लेकिन सरकार ऐसा कुछ भी समझने में विफल रही और प्रवासी श्रमिकों के रेल किराये के मामले में जैसे ही उसे दिखा कि कांग्रेस का खुद किराया वहन करने का प्रस्ताव उसके हितों पर भारी पड़ सकता है, वह अपनी हनक दिखाने लगी। अन्यथा इस प्रस्ताव को उसका सहयोग मानकर स्वीकार क्यों नहीं किया जा सकता था? उसके द्वारा पूछा गया यह सवाल तो इसको नकारने की पर्याप्त वजह नहीं ही था कि अगर रेलवे पीएमकेयर्स फंड में भारी-भरकम राशि दान कर रही है तो हालात के मारे मजदूरों से किराया क्यों वसूल रही है?

लेकिन सरकार ने मामले को पहले पचासी व पन्द्रह प्रतिशत के केन्द्र व राज्यों के पचड़े में फंसाया, फिर ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि मजदूर अभी भी श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में खुद ही किराया देने को अभिशप्त हैं। न वह इसकी शर्म महसूस कर रही है, न उसकी रेलवे और न ही राज्य सरकारें। भले ही बड़ी संख्या में मजदूर वापसी की प्रतीक्षा में हैं और भूख-प्यास, थकान और हादसे झेल रहे हैं, सरकार अपने राजनीतिक हितों की चिन्ता में इतनी मगन है कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने घर से निकलकर कुछ मजदूरों से बात कर लेते हैं तो वित्तमंत्री से उसे ड्रामा बताये बिना नहीं रहा जाता।

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में इसी कांग्रेस ने मजदूरों के लिए हजार बसें चलाने की अनुमति मांगी तो उसे शह-मात या कि सांप-सीढ़ी के खेल में उलझाने में योगी आदित्यनाथ सरकार मोदी सरकार से भी आगे बढ़ गई। उसने यह अनुमति देते हुए बसों, उनके चालकों व परिचालकों की सूची और उनकी फिटनेस वगैरह के प्रमाणपत्र मांगे तो उसे फौरन धन्यवाद देने वाली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को शायद ही इल्म रहा हो कि जल्दी ही यह अनुमति मांगना ‘अपराध’ मान लिया जायेगा और बसों की सूची की ‘जांच’ में याद नहीं रखा जायेगा कि गत वर्ष सितम्बर में मुख्यमंत्री ने खुद ही निर्देश दिया था कि प्रदेश में कागजात चेक करने के लिए वाहन नहीं रोके जायेंगे और यातायात नियमों के उल्लंघन में उनके चालकों के ड्राइविंग लाइसेंस ही देखे जायेंगे। लेकिन बात यहीं नहीं थमी।

कभी खाली बसों को लखनऊ लाने को कहा गया, कभी प्रदेश की सीमा पर ले जाने को, फिर बसों की सूची में गड़बडियों के आरोप लगाकर यह अनुरोध भी ठुकरा दिया गया कि जितनी बसों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है, उन्हें ही मजदूरों की वापसी के काम में लगा दिया जाये। जैसे कि यह कोई ठेके का मामला हो, जिसमें एक हजार से कम बसों की आपूर्ति में कोई कानूनी बाधा हो! दोनों पक्षों में ‘डाल-डाल पात-पात’ की इस लड़ाई के कई कांग्रेस नेताओं पर मुकदमों और गिरफ्तारियों तक पहुंच जाने के बाद जीत-हार के अपने-अपने दावे हैं और ‘सबके सहयोग’ की भावना मजदूरों जैसी ही बदहाल हो गई है।

लेकिन योगी सरकार इसकी परवाह क्यों करने लगी, जब वह प्रवासी मजदूरों की वापसी को लेकर अपनी ही पार्टी की हरियाणा सरकार के सहयोग को भी सदाशयता से नहीं ले रही। इसके चलते गत उन्नीस मई को हरियाणा रोडवेज की बसें वहां रह रहे प्रदेश के प्रवासी श्रमिकों को लेकर सीमा पर स्थित सहारनपुर व बुलंदशहर पहुंचीं तो अचानक प्रशासन व पुलिस ने उनसे कहा कि वे स्वयं श्रमिकों को उनके गृह जिलों तक पहुंचायें। इसको लेकर बात इतनी बढ़ गई सारी बसें श्रमिकों को लेकर हरियाणा लौट गईं।

अब हरियाणा का कहना है कि उसकी बसें उप्र के मजदूरों को तभी सीमा पर ले जाएंगी, जब योगी सरकार से समझौता हो जाएगा। उसकी मानें तो दोनों राज्यों के बीच तय हुआ था कि हरियाणा की बसों में श्रमिकों को बुलंदशहर और सहारनपुर तक ही पहुंचाया जाएगा। आगे यूपी की बसें उनको उनके गृह जिलों तक पहुंचायेंगी। इससे दो रोज पूर्व भी हरियाणा की 50 बसें 1500 श्रमिकों को लेकर सहारनपुर से वापस लौट गयीं थीं। सहारनपुर प्रशासन ने वहां हुए पुलिस लाठीचार्ज का बहाना बनाते हुए उन पर बैठे श्रमिकों को रिसीव करने से ही  इनकार कर दिया था। यह कहकर कि उसके लिए इतनी बड़ी संख्या में श्रमिकों को संभालना मुश्किल होगा। अभी भी वह सीमित संख्या में ही मजदूरों को रिसीव कर रहा है।

लेकिन अपनों तक के ‘असुविधाजनक’ सहयोग और सुझाव दरकिनार करने की इस परम्परा का ठीकरा महज योगी पर फोड़े नहीं फोड़ा जा सकता। ‘स्वराज इंडिया’ के अध्यक्ष योगेन्द्र यादव ने ‘द प्रिंट’ पर लिखा है कि इसका सर्वाधिक पोषण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किया जा रहा है। मसलन, कोरोना के शुरुआती चरण में ही प्रधानमंत्री को विपक्ष की ओर से ज्यादा से ज्यादा टेस्टिंग के सुझाव दिये जा रहे थे पर उन्होंने उन पर ध्यान नहीं दिया। राजनीतिक द्वेष के चलते महामारी रोकने के केरल के सफल मॉडल से सबक लेना या उसे देशस्तर पर लागू करना भी उन्हें गवारा नहीं हुआ।

इतना ही नहीं, लॉकडाउन के संक्रमण की चेन तोड़ पाने में नाकाफी सिद्ध हो जाने के बावजूद वे उसे ही समस्या का एकमात्र समाधान बता रहे और कोई युक्तिसंगत सुझाव भी नहीं मान रहे। अभी भी अपने अहं और छवि की चिन्ता उनकी कोरोना की चिंता पर इस कदर हावी है कि देश अनुमानों से ही समझ पा रहा है कि उनकी भावी रणनीति क्या है? उनकी सरकार यह पूछने पर भी मुंह फुला ले रही है कि लाॅकडाउन लगाते समय किये गये उस दावे का क्या हुआ कि महाभारत 18 दिनों में जीता गया था और कोरोना को 21 दिनों में हरा दिया जायेगा?

योगेन्द्र यादव ठीक कहते हैं कि दरअसल, सरकार अपने कदमों के ही घेरे में फंस गयी है। इस कदर कि वह सहयोग के अयाचित प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं कर पा रही। वह पीएमकेयर्स फंड में दान देने भर को ही सहयोग करना मानती है और उसी को स्वीकार कर रही है। फिलहाल, अपनी कारगुजारियों से वह यही सिद्ध कर रही है कि सत्ता के छः साल पूरे हो जाने के बावजूद संकट की घड़ी में सारे देश को एकजुट करने और साथ ले चलने का सलीका वह नहीं सीख पाई है।


         कृष्ण प्रताप सिंह – लेखक, वरिष्ठ हिंदी पत्रकार हैं और फिलहाल उत्तर प्रदेश के अयोध्या में रहते हैं।

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