बुद्ध का धर्म अपनी शुरुआत से लेकर अब तक गुजरे ढाई हजार से ज्यादा वर्षों में बहुत बड़े बदलावों से गुजरा है। इन बदलावों में कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें खारिज करने के क्रम में ही इस धर्म की नींव पड़ी थी। मंत्र-तंत्र, चमत्कारिक दावे, तरह-तरह के नशे, चरम भोग और सांप्रदायिक हिंसा- ये सभी दुर्गुण समय के साथ बौद्ध धर्म की किसी न किसी शाखा की पहचान के साथ जुड़े। कुछ बौद्ध इसे अपने धर्म का पतन मानते हैं, कुछ विकास। दुनियावी रहन-सहन की नजर से हम इन बदलावों को देखेंगे तो पता चलेगा कि इनमें से किसी को भी सिरे से खारिज करने का मतलब होगा, बौद्ध धर्म को इसकी किसी न किसी महत्वपूर्ण शाखा से वंचित करना।
लेकिन इतने बड़े बदलावों के बीच भी दो बातें इस धर्म की किसी भी शाखा में कभी समाहित नहीं हुईं। 1.) जन्म के आधार पर किसी को अपने लिए सदा-सर्वदा पराया मान लेना, और 2.) जन्म के ही आधार पर लोगों का पूरा जीवन निर्धारित करना, किसी को ऊंचा और किसी को नीचा समझना। जैसा हम जानते हैं, ये दोनों बातें वैदिक या सनातन धर्म का आधार हैं। आधुनिक युग में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसे स्पष्ट रूप से चिह्नित किया, लेकिन ऐसी एक समझ बौद्धों के बीच अपने समूचे इतिहास में बनी रही और वर्ण-जाति की यह ‘पवित्र बीमारी’ अपने भीतर उन्होंने कभी पनपने नहीं दी।
बहिष्कार, एक्सक्लूजन भारत के पारंपरिक धर्म की सबसे बड़ी विशिष्टता है। कुछ लोग इसे यहूदी धर्म के समतुल्य मानते हैं, पर इसे आधा ही ठीक समझा जा सकता है। यहूदी खुद को ‘चुनी हुई कौम’ मानते हैं। दुनिया को यहूदी और गैर-यहूदी में बांटकर देखते हैं। यहूदी पैदा ही होता है, किसी गैर-यहूदी को यहूदी बनाया नहीं जा सकता, ऐसी धारणा भी वहां सुनने में आती है। लेकिन कोई ऊंचा और कोई नीचा यहूदी है, कोई बिल्कुल यहूदी नहीं है, फिर भी आधिकारिक रूप से यहूदी धर्म से बाहर जाने, कोई और धर्म अपनाने पर उसे दंडित किया जा सकता है, ऐसी कोई समझ वहां नहीं देखी जाती।
भीतर से बाहर तक ऊंच-नीच और परायापन संसार में केवल भारत के वैदिक/ सनातन/ मनुवादी/ ब्राह्मण धर्म की ही खासियत रही है। वैदिक काल की बात करें तो रंग-रूप में बिल्कुल अपने जैसे न दिखने वाले लोग दस्यु, दास, दानव, दैत्य आदि हुआ करते थे। इस श्रेणी में द्रविड़ जातियों के लोग भी थे और वे भी, जिन्हें अभी आदिवासी कहने का चलन है। इनसे जरा अलग श्रेणी यक्ष, गंधर्व, नाग और किरात आदि की थी, जो माने तो अलग ही जाते थे लेकिन संभवतः दुर्गम पहाड़ों के निवासी होने के कारण दैत्य-दानव जैसा स्थायी भय या घृणा जिनके साथ नहीं जुड़ी थी।
वैदिक सभ्यता का वह शुरुआती दौर खत्म हुआ तो अशुद्ध भाषा बोलने वाले ‘म्लेच्छों’ की एक बहुत बड़ी पांत खड़ी हो गई। एक शास्त्रीय भाषा के रूप में संस्कृत का ढांचा पेशावर के निवासी पाणिनि का खड़ा हुआ है। लेकिन इस शहर से बमुश्किल एक हजार किलोमीटर उत्तर में रहने वाले लोग खराब भाषा के आधार पर म्लेच्छ घोषित कर दिए गए। महाभारत में तुषार क्षेत्र (अभी अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान और कजाखिस्तान में पड़ने वाली पामीर पर्वत की विशाल घाटी) के योद्धाओं के बारे में बताया गया है कि मनु के पांचवें बेटे अनु की संतति होने के कारण वे ‘आनव’ कहलाते थे, लेकिन उनकी अशुद्ध भाषा उन्हें म्लेच्छों की ही श्रेणी में रखने को बाध्य करती थी।
इन पराये लोगों को एक तरफ रख दें तो भीतर ‘परम पुरुष’ के मुख, छाती, जांघ और पैरों से जन्मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अलावा एक बहुत बड़ी जमात ‘अंत्यजों’ की चली आ रही है, जिन्हें ‘पंचम वर्ण’ कहना भी एक किस्म की रियायत समझा जाता रहा है। लेकिन ‘बाहरी’ और ‘भीतरी’ के बीच एक और श्रेणी ‘ब्रात्यों’ की भी रही है। ऐसे समुदायों की, जो वर्ण और जाति की सनातनी सामाजिक संस्थाओं को या तो बिल्कुल नहीं मानते थे, या किसी मामले में उनके लिए निर्धारित नियमों का उल्लंघन करते थे। भारत से बौद्ध धर्म के खात्मे के बाद से विशाल आबादी वाले ये जन समुदाय जाति व्यवस्था में अपनी जगह ढूंढते आ रहे हैं, जो प्रायः नीचे ही रहती है लेकिन कभी किसी जुगाड़ से ऊपर भी हो जाती है।
बुद्ध का धर्म जन्म के आधार पर ऐसे किसी श्रेणीकरण और बहिष्करण में यकीन नहीं करता था तो इसे गौतम बुद्ध की ‘करुणा’ के खाते में नहीं डाला जाना चाहिए। करुणा अंततः एक व्यक्तिगत गुण है। बुद्ध के अनुयायियों में यह कहीं उनसे कम तो कहीं ज्यादा भी दिखता रहा होगा। करुणा के किसी मानक स्तर की अपेक्षा लाखों-करोड़ों की तादाद में फैले एक धार्मिक समुदाय से तो नहीं की जा सकती। दरअसल, श्रेणीकरण और बहिष्करण के लिए बौद्ध धर्म के बुनियादी दर्शन में ही कहीं कोई जगह नहीं थी।
इस दर्शन को हम पालि में ‘पटिच्च समुप्पाद’, संस्कृत में ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ और अंग्रेजी में ‘डिपेंडेंट अराइजिंग’ के नाम से जानते हैं। सुनने में एक कठिन शब्द युग्म लगने के बावजूद यह एक सीधी-सादी अवधारणा है। यह कि हर चीज का उदय अन्य चीजों से होता है। प्रकट होने या आकाश से उतारी जाने जैसी कोई क्रिया किसी भी चीज के साथ घटित नहीं होती, चाहे वह वर्ण-जाति हो, या ईश्वर, या भाषा या कुछ और। यह भी कि शाश्वत-सनातन कुछ भी नहीं होता। हर चीज बाकी चीजों से प्रभावित होती है और उन्हें प्रभावित करती भी है। इस प्रक्रिया में समय बीतने के साथ वह बिल्कुल बदल जाती है। या यूं कहें कि पैदा होती है और मर जाती है।
जैसा कि हम जानते हैं, ऋग्वेद के दशम मंडल में आया पुरुष सूक्त सूर्य-चंद्रमा और प्रकृति की बाकी चीजों के अलावा चारो वर्णों को भी अजन्मा-अविनाशी परम पुरुष से उत्पन्न बताता है। वेदों को मानने वाली कोई भी धारा उत्पत्ति की इस बुनियादी धारणा के खिलाफ नहीं जाती, फिर चाहे वह स्वयं ईश्वर के मुंह से निकली श्रीमद्भवद्गीता हो या सृष्टि को माया बताने वाला शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत। हम कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म और सनातन धर्म में पिछले ढाई हजार वर्षों में आए तमाम बदलावों के बावजूद उन्हें एक-दूसरे से अलग और परस्पर विरोधी खेमों में बांटकर रखने वाली यह एक ऐसी साफ, चमकीली रेखा है, जिसका तीखापन समय बीतने के बावजूद ज्यादा नरम नहीं पड़ा है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।