Global Investigative Journalism Conference 2023, स्वीडन से कशिश सिंह की रिपोर्ट
दुनिया में ये खोजी पत्रकारों यानी कि इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स का सबसे बड़ा मेला है-मिलन है-सम्मेलन था और भारत से भी हम कुछ पत्रकारों का एक दल इस में शामिल होने जा पहुंचा था – स्वीडन के ऐतेहासिक शहर गोथेनबर्ग में. मौका था, 2023 के ग्लोबल इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज़्म कांफ्रेंस का – जिसका आयोजक होता है ग्लोबल इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज़्म नेटवर्क यानी कि GIJN. इस आयोजन में GIJN के साथ FOJO मीडिया इंस्टीट्यूट और अन्य कई जाने-माने वैश्विक संगठन भी साथ आए और दुनिया भर के खोजी पत्रकार 19-22 सितंबर तक एक साथ रहे, हंसे-बोले, कमाल के सत्रों में शामिल हुए और अपने अनुभव साझा किए।
कहां जा पहुंचे थे हम – गोथेनबर्ग, स्वीडन
मैं भी इस दल का हिस्सा थी, जो भारत से इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए पहुंचा और संभवतः भारतीय दल की सबसे युवा सदस्य मैं ही थी। इस कांफ्रेंस का मकसद था कि कैसे दुनिया भर के खोजी पत्रकार, एक-दूसरे के संपर्क में आएं, क्रॉस बॉर्डर संबंधों को बढ़ावा मिले और साथ मिलकर – वैश्विक मुद्दों पर पत्रकारिता, खोज और रिपोर्टिंग कर सकें। यही वजह है कि दुनिया भर के 132 देशों से 2138 पत्रकारों ने इसमें हिस्सा लिया, जिसमें 6 भारतीय पत्रकार भी थे।
ये शहर था गोथेनबर्ग। भारत में जहां ज़्यादातर लोगों ने शायद स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम का ही नाम सुना है और उनमें भी कई लोगों ने स्टॉकहोम सिंड्रोम के कारण – हम स्वीडन के एक ऐसे शहर में थे, जिसका एक अलग इतिहास है और ऐतेहासिक महत्व भी। इस ऐतेहासिक बंदरगाह शहर की स्थापना 1621 में हुई थी और यूरोप के इतिहास में इस शहर की अलग जगह के अलावा, भारत से समानता ये है कि यहां भी व्यापार शुरू करने वाली कंपनी – ईस्ट इंडिया कंपनी (स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी) ही थी। जी, औपनिवेशिक मामले में ईस्ट इंडिया कंपनी ने सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए थे। ख़ैर, खोजी पत्रकारिता करने आए थे तो शहर के बारे में भी कुछ खोज लिया।
कांफ्रेंस के 200 से अधिक सत्र-बैठकें-वर्कशॉप, जिनमें हर तरह के खोजी पत्रकार के लिए कुछ न कुछ…
इस सम्मेलन की सबसे ख़ास बात ये ही थी कि यहां सिर्फ ऐसे सत्र नहीं थे, जहां आप बैठकर कुछ लोगों के व्याख्यान सुनें और घर लौट आएं। यहां अलग-अलग तमाम विषयों पर, आपकी दिलचस्पी और काम के हिसाब से सत्र थे। इसके अलावा कई कार्यशालाएं थी, जिनमें आप भाग ले सकते थे। नेटवर्किंग के लिए पत्रकारों की बैठकों का इंतज़ाम था, जिससे वैश्विक स्तर पर पत्रकारीय आज़ादी और रिपोर्टिंग सुनिश्चित हो सके। सत्रों और कुछ कार्यशालाओं के नाम ही पढ़िए, आपको पता चलेगा कि ये कितने अहम थे;
The Investigative Agenda for Climate Change Journalism (जलवायु परिवर्तन की पत्रकारिता के लिए खोजी एजेंडा)
What Does AI Have to Do with Investigative Journalism? Everything! (खोजी पत्रकारिता में कैसे AI मदद कर सकती है?)
How AI Can Save Small Newsrooms (कैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, छोटे न्यूज़रूम्स बचा सकती है)
In the Public Interest: Collaboration Between Journalists and Scientists (जनहित में, वैज्ञानिकों और पत्रकारों के बीच सहकार)
भारतीय पत्रकारों के लिए ये कांफ्रेंस अहम क्यों थी?
एक ऐसे समय में जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में – दबंग पत्रकारिता का ही दमन हर स्तर पर हो रहा है; इस तरह की कांफ्रेंस में शामिल होना, हमको हिम्मत और साथ का अहसास कराता है। इसके अलावा ग्लोबल इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज़्म कांफ्रेंस, खोजी पत्रकारों को अपनी पत्रकारिता के लिए हर संभव संसाधन, मदद और समर्थन उपलब्ध कराने की कोशिश करता है, जिससे वह अहम स्टोरीज़ की तफ़्तीश कर सकें। साथ ही आप दुनिया भर के वरिष्ठ, एक्सपर्ट पत्रकारों से मिलते हो, सीखते हो और एक एकजुटता भी अपने पक्ष में तैयार कर सकते हैं।
विश्व प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग, 180 देशों में 161 है, यह आंकड़ा लगातार और नीचे जा रहा है और ज़ाहिर है कि ऐसे में भारतीय पत्रकारों को अपनी आवाज़ उठाने, स्वतंत्रता सुनिश्चित करने और अपने संरक्षण की आवाज़ उठाने के लिए भी एक वैश्विक मंच की ज़रूरत है। ख़ासतौर पर अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और प्रतिरोध की आवाज़ों के साथ होने वाले भेदभाव और उन पर होने वाले दमन के साथ-साथ बड़े स्तर के भ्रष्टाचार को सामने लाने के लिए भी एक ऐसे फोरम की आवश्यकता भारतीय पत्रकारों के लिए अब पहले से कहीं अधिक है।
लेकिन इन सबसे अहम एक भारतीय पत्रकार के तौर पर मेरे लिए उन साथी पत्रकारों से मिलना था – जो हमसे पहले से इन हालात से जूझ रहे हैं या ऐसे हालत देख चुके हैं। भारत में हम जिस राह पर हैं, जैसा दमन या जैसी सेंसरशिप की ओर हम जा रहे हैं, इस कांफ्रेंस में ऐसे कई देशों के पत्रकारों से हम मिले और हमने उनके अनुभव समझे, जो ऐसे देशों में काम करते रहे, ख़तरे झेले, दमन झेला, हिंसा झेली और निर्वासन भी – जो देश या तो तानाशाही के अंतर्गत आ गए, या जहां पर सिविल वॉर की परिस्थिति आई या फिर अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म-हिंसा और जनसंहार हुए। हमारे ये अनुभव शायद हमारे सबसे ज़्यादा काम आएंगे।