अँधेरी कोठरी में रोशनदान हैं भूषण! माफ़ी माँगते तो लोकतंत्र का मोर्चा हारता!

सच बोलने के लिए माफ़ी मांगने से इनकार करके प्रशांत भूषण ने भारत के नागरिकों को इतिहास के एक कठिन मोड़ पर हिम्मत और प्रेरणा दी है। सत्य के लिए उनके आग्रह और निडरता को देखकर कुछ लोग उनकी तुलना महात्मा गाँधी, जेपी और मंडेला से करने लगे हैं। लेकिन मैं फिलहाल यही मानता हूँ कि ऐसा कहने वाले दरअसल आज गाँधी और जेपी की कमी महसूस कर रहे हैं। ये एहसास हमें वर्तमान दौर और सत्ता के चरित्र के बारे में भी बताता है। इन तुलनाओं से ये समझ आता है कि हमारा समाज किस बेसब्री से गाँधी और जेपी को तलाश रहा है। इसका असल मतलब है उनके जैसे संघर्ष के जज़्बे की तलाश, सत्य के लिए प्रतिबद्धता की तलाश, किसी भी कीमत पर सिद्धांतों से समझौता न करने वालों की तलाश और एक अंधेर कालकोठरी में रौशनी की तलाश।

इसमें तो कोई दो राय नहीं कि प्रशांत भूषण ने इस कठिन दौर में उम्मीद की किरण जगाई है। उन्होंने कुछ तो ऐसा कर दिया है जो ऐतिहासिक है, जो आने वाली पीढ़ी याद रखेगी। इस पल का गवाह बनने के लिए हमें सिर्फ प्रशांत भूषण ही नहीं, माननीय सुप्रीम कोर्ट के उन जजों का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने इस अवसर का निर्माण किया।

14 अगस्त को जब सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार दिया, तो आदेश में ये भी लिखा कि सज़ा देने के लिए न्यायालय किसी कानून से बंधा नहीं है। मतलब सुप्रीम कोर्ट चाहे तो कानूनन 6 महीने की जेल और दो हज़ार रुपये जुर्माने के बाहर जाकर भी कोई सज़ा सुना सकता है। ऐसा पढ़कर किसी भी अभियुक्त और उसके शुभचिंतकों को घबराहट होना लाज़मी है, लेकिन प्रशांत भूषण एकदम निश्चिंत थे। उनके मन में इस बात को लेकर कभी भी कोई चिंता नहीं रही कि अदालत कौन सी सज़ा सुनाएगा। इस बात को लेकर कभी कोई शंका नहीं रही कि हर कीमत पर सच्चाई पर कायम रहना है। क्योंकि उन्होंने जो भी कहा वो उस सुप्रीम कोर्ट की भलाई के लिए था जिसकी उन्होंने तीन दशक से सेवा की है। उनकी आलोचना भले कठोर हो, लेकिन देश के उस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उम्मीदों पर खरा न उतरने पर दर्द की अभिव्यक्ति है। उनके ट्वीट अदालत की अवमानना करने के लिए नहीं बल्कि उसकी स्वतंत्रता को बचाने के लिए थे।

लेकिन देश दुनिया में जो लोग इस खबर को देख रहे थे, उनके मन में कई सवाल थे। क्या प्रशांत भूषण अपने ट्वीट के लिए माफी मांग लेंगे? क्या वो अदालत से अपनी सज़ा कम करने की गुहार लगाएंगे? क्या प्रशांत भूषण द्वारा ट्वीट में उठाये गए सवालों पर अदालत में चर्चा होगी?

इस लड़ाई को कुछ मीडिया चैनलों ने ‘सुप्रीम कोर्ट बनाम प्रशांत भूषण’ की तरह पेश करने की भी कोशिश की। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। क्योंकि अगर कोई लड़ाई थी भी तो प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट की टीम में थे। प्रशांत भूषण की जीत सुप्रीम कोर्ट की जीत होती। क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक संस्थान की जीत तभी होती है जब आम नागरिक ज़्यादा ताकतवर महसूस करे। जब देश का आम नागरिक शशक्त होता है तो लोकतंत्र की जीत होती है, देश की जीत होती है।

प्रशांत भूषण द्वारा सुप्रीम कोर्ट में माफ़ी न मांगने के महत्व को सही ढंग से समझने का सबसे कारगर तरीका एक ही है। आप ये सोचने की कोशिश करिए कि अगर वो ऐसा नहीं करते और इस माहौल के भारी दबाव में माफी मांग लेते तो क्या होता। जो लोग आज संविधान और लोकतंत्र के लिए बढ़ चढ़कर आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, वो डर जाते। जो सच्चे नागरिक आज विपरीत परिस्थितियों में भी सत्ता से चुनौती लेने का दम रखते हैं, उनपर प्रभाव पड़ता। देश के अलग अलग कोनों में जो आम नागरिक हैं, वो हार जाते। लोगों को लगता कि जब किसान, गरीब, छात्र, मजदूर के अधिकार के लिए लड़ने वाले प्रशांत भूषण जैसा वकील पीछे हट गया तो हम क्या चीज़ हैं।

प्रशांत भूषण अदालत से माफी मांगकर खुद को बचा सकते थे, लेकिन उन्होंने माफी न मांगकर देश को बचाने का सोचा। इस एक प्रकरण से उन्होंने भारत के करोड़ों नागरिकों को लोकतंत्र और संविधान की रक्षा करने की हिम्मत दी है। आज हमारा देश जिन परिस्थितियों से गुज़र रहा है, संविधान की जिस तरह आए दिन अवहेलना हो रही है, संस्थाओं पर जिस तरह कब्ज़ा किया जा रहा है और विरोध के स्वर को जिस तरह कुचला जा रहा है, उसमें इस एक मामले का बहुत बड़ा सांकेतिक महत्व है। प्रशांत भूषण अगर पीछे हट जाते तो उसका भी बड़ा सांकेतिक महत्व होता और सत्ता में बैठे कुछ लोग आज यही संदेश देना भी चाहते हैं। मुझे नहीं पता कि आगे क्या होगा। ये जो ऊर्जा सृजित हुई है ये कितना ठहर पायेगी और एकजुट होकर कितना टिक पायेगी। फिलहाल के लिए तो एक अंधेरी कालकोठरी में उम्मीद की किरण बनकर उभरे हैं प्रशांत भूषण। लेकिन लड़ाई अभी बाकी है। समर शेष है।



 

अनुपम, युवा हल्लाबोल’ के संस्थापक हैं.

 



 

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