सावधान मेरिटधारी पत्रकारो ! आरक्षण की ऐसी समझ पर इतिहास तुम्हें ‘सुंगधित मूर्ख’ ही लिखेगा !

 

पंकज श्रीवास्तव

 

सभ्य समाज की पहचान है कि किसी के साथ अन्याय न हो। अगर अन्याय हुआ हो तो उसको दुरुस्त किया जाए। जिनके साथ अन्याय हुआ है, उनसे सिर झुकाकर माफ़ी माँगी जाए और उचित मुआवज़ा दिया जाए।

आरक्षण ने निश्चित ही समाज के एक वर्ग के साथ अन्याय किया है। लेकिन भारत भूमि पर यह अन्याय 70 साल से नहीं, कई हज़ार सालों से हो रहा है, और वह भी हर उस व्यक्ति के साथ जिसके हाथ श्रम से सूजे हुए थे। उन्हें पढ़ने-लिखने से वंचित कर दिया गया। कहा गया कि वे सबकी सेवा करें, यही ईश्वरीय आदेश है। इस तरह मेरिटधारी वर्ग ने ‘कमज़ोर बुद्धि’ वालों की रचना की। उनके लिए समाज में कोई सम्मानजनक स्थान नहीं था। वे हज़ारों साल तक हीनभावना के महासमुद्र में डूबे रहे।

70 साल पहले हुआ यह कि भारत ने आधुनिक सभ्यता की कसौटियों के आधार पर नया ‘राष्ट्र’ बनाने का संवैधानिक संकल्प लिया। इसी के तहत तय हुआ कि जिनके साथ अन्याय हुआ, उन्हें उसका मुआवज़ा दिया जाए। शासन प्रशासन, शिक्षा में प्रतिनिधित्व दिया जाए। ऐसा करने वाले, ज़्यादातर वही लोग थे जिनके पुरखों ने यह अन्याय किया था, यानी कथित सवर्ण जो संविधान सभा में बैठे थे।

लेकिन 70 साल में हुआ यह कि उनकी संततियों का एक बड़ा हिस्से को उन्माद की राजनीति ने भ्रमित कर दिया। वे आरक्षण को अपने साथ होने वाला अन्याय बता रहे हैं। लहराती धर्मध्वजाओं के बीच मनुस्मृति मुस्करा रही है। किसी को संविधान पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं है।  हद तो यह है कि आम लोगों का भ्रम दूर करने और सटीक जानकारियाँ देने के पेश से जुटे पत्रकार भी यही कर रहे हैं।

आज तक की मशहूर ऐंकर श्वेता सिंह का 4 सितंबर का यह ट्वीट देखकर बेहद निराशा हुई-

6 सितंबर को 11 बजे दिन तक इसके करीब 10 हज़ार रीट्वीट हो चुके थे और 29 हज़ार लोगों ने इसे पसंद किया था। अफ़सोस कि रीट्वीट करने वालो में टी.वी. पत्रकारिता के कुछ और दबंग भी थे। श्वेता ने आरक्षण को ग़रीबी और बेरोज़गारी से जोड़ दिया था। हम एक जवाबी ट्वीट करने से ख़ुद को रोक न पाए, हालाँकि जल्दबाज़ी में मोबाइल से टाइपिंग करते हुए ‘कार्यक्रम’ का ‘कार्क्रम’ हो गया।

ऐसा लगता है कि आम लोगों से पहले इन पत्रकारों को आरक्षण के संबंध में ट्यूशन देने की ज़रूरत है ताकि अगर सूचनाओं के अभाव में वे इसका विरोध करते हों तो पुनर्विचार करें। विरोध के पीछे अगर कोई ‘सवर्ण कुंठा’ है तो फिर कोई इलाज नहीं है।

अनुभव यह कहता है कि आरक्षण का सवाल आते ही कई टीवी ऐंकरों और पत्रकारों के चेहरे पर अजीब सी घृणा टपकने लगती है (संयोग नहीं कि ये चेहरे सवर्ण  हैं) और वे ऐसी बातें बोल जाते हैं जो किसी जानकार कि निगाह में नितांत मूर्खतापूर्ण होती है। ऐसा नहीं कि आरक्षण के पूरी तरह ख़िलाफ़ ही हैं, आर्थिक आधार पर आरक्षण के नाम पर उनके चेहरे खिल उठते हैं। लेकिन ग़रीबी से जुड़े आर्थिक प्रश्नों में उन्हें कोई रुचि नहीं है।

ऐसे में हम यहाँ कुछ बातें बिंदुवार रख रहे हैं जिन्हें पढ़कर ऐसे पत्रकार अपना अज्ञान दूर कर सकते हैं-

  1. आरक्षण वंचित समुदायो पर अहसान नहीं, संविधान में दर्ज उनसे किया गया वायदा है, जिसकी जड़ें गाँधी और डॉ.अंबेडकर के बीच 1932 में हुए पूना पैक्ट में है।
  2. अनुसूचित जाति को 22 नहीं महज़ 15 फ़ीसदी आरक्षण हासिल है।
  3. अनुसूचित जनजाति को 7.5 % आरक्षण दिया जाता है।
  4. ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के संबंध में आरक्षण किन्हीं जातियों नहीं, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को दिया जाता है। समृद्ध हो चुकी जातियों को इस सूची से निकाला जा सकता है।
  5. आरक्षित वर्गों की केंद्रीय और राज्यस्तरीय सूची में फ़र्क होता है। एक राज्य में अनुसूचित कही जाने वाली कोई जाति दूसरे राज्य में पिछड़े वर्ग में शामिल मिल सकती है।
  6. कथित रूप से ऊँची कही जानी वाली जातियों को भी कहीं-कहीं आरक्षण का लाभ मिलता है। जैसे बिहार में पूरा वैश्य वर्ग ओबीसी में दर्ज है। कुछ पिछड़ी मुस्लिम जातियों को भी कहीं-कहीं ओबीसी में रखा गया है, वहाँ उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है।
  7. सामाजिक रूप से पिछड़े होने की वजह से कुछ ब्राह्मण जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिलता है। जैसे- महाब्राह्मण या गोसाईं ।
  8. आरक्षण को न सिर्फ संसद से बल्कि सर्वोच्च न्यायालय से भी उचित ठहराया जा चुका है।
  9. सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50 % निर्धारित की है, लेकिन विशेष स्थिति में इसे बढ़ाया भी जा सकता है जैसे तमिलनाडु में यह 69 % है।
  10. आरक्षण को दस साल बाद ख़त्म करने की बात अफ़वाह है। राजनीतिक आरक्षण यानी विधायिका में आरक्षण की दस साल बाद समीक्षा की बात कही गई थी। हर दस साल बाद यह समीक्षा होती है और संसद अगले दस साल के लिए इसे बढ़ा देती है। नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के लिए ऐसी कोई बात नहीं थी।
  11. डॉ.अंबेडकर ने कभी नहीं कहा कि वे आरक्षण समाप्त करना चाहते हैं जैसा कि अाजतक की एक और सितारा अंजना ओम कश्यप ने हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के साथ एक बहस मे दावा किया था।  उन्होंने दस साल बाद विधायिका में आरक्षण के लाभ की समीक्षा की बात कही थी।
  12. आरक्षण लागू होने के दशकों बाद भी आरक्षित सीटों को भरा नहीं जा सका है।

 

आरक्षण को लेकर विचलित पत्रकारों को ये बातें भी पता होनी चाहिए-

  1. दुनिया भर में पिछड़े समुदायों को बराबरी का अवसर देना सभ्यता की कसौटी माना जाता है। अमरिका में भी ‘डावर्सिटी का सिद्धांत’ लागू है जिसके तहत अश्वेतों, महिलाओं, आदिवासियों से लेकर उन तमाम समुदायों को विशेष अवसर दिया जाता है जो पीछे रह गए हैं। यहाँ तक कि टीवी चैनल भी अश्वेत या एशियाई ऐंकर ज़रूर रखते हैं ताकि ऐसे समाज के दर्शक, चैनल से ‘बेगानापन’ महसूस न करें।
  2. भारत में वंचित समुदाय के लिए आरक्षण पहली बार 1902 में लागू किया गया। छत्रपति शाहू जी महाराज ने कोल्हापुर राज्य में इसे लागू किया।  मनुस्मृति आधारित समाज कुछ जातियों को सत्ता और संसाधन पर सौ फ़ीसदी आरक्षण के सिद्धांत पर चल रहा था।
  3. आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। इसका मक़सद सदियों से वंचित समुदायों को शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी देकर उन्हें राष्ट्र का अंग होने का अहसास दिलाना है। डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि हम तब तक राष्ट्र नहीं बन सकते जब तक कि हमारे सुख-दुख साझा न हों।
  4. आरक्षण कथित रूप से सवर्णों की बेरोज़गारी का कारण नहीं है। बेरोज़गारी का संबंध उन आर्थिक नीतियों से है जो रोज़गारसृजन में नाकाम रही हैं और रोज़गारविहीन विकास पर ज़ोर देती हैं। चूँकि रोज़गार मिल नहीं रहा है, इसलिए तमाम अनारक्षित तबकों में आरक्षण की माँग बढ़ रही है। यह फ़ौरी हल की तलाश है लेकिन मूल में बेरोज़गारी का दंश ही है जिसे ‘आरक्षण होना चाहिए या नहीं होना चाहिए’ या फिर ‘अयोग्यता-योग्यता’ जैसी बहसों से ढँकना या तो मूर्खता है या शातिर अदा।

अंतिम बात–

 

आरक्षण समाप्त हो सकता है। सामाजिक बराबरी होने पर आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इसलिए आरक्षणविरोधियों को समतामूलक समाज बनाने की बात सोचनी चाहिए। जाति का नाश इसके लिए सबसे ज़रूरी है। जाति पर गर्व और आरक्षण का विरोध पाखंड है जो पत्रकारों में प्रचुर मात्रा में दिखता है।

पत्रकारो को सोचना चाहिए कि आरक्षण को लेकर उनके अंदर जैसी बेचैनी है, वैसी बेचैनी जाति व्यवस्था और बेरोज़गारी बढ़ाने वाली आर्थिक नीतियों को लेकर क्यों नहीं है? आरक्षण कुल नौकरियों की बमुश्कि दो फ़ीसदी (सरकारी) पर लागू होता है, पर ये सरकारी नौकरियाँ भी दिनों दिन कम होती जा रही है। निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं है जबकि सरकार निजीकरण को हर स्तर पर बढ़ा रही है।

उम्मीद है कि वे आगे से टीवी पर आरक्षण को लेकर ग़लतबयानी से बचेंगे और अपनी बिरादरी को भी बदनामी से बचाएँगे। जब भी आरक्षण पर बहस की बात आती है, टीवी स्क्रीन अजब ढंग से ‘सवर्ण चेतना’ से उबलने लगते हैं। उनके हेडर और टॉप बैंड तक इसकी गवाही देते हैं। वे आरक्षण को ‘अपराध’ बताते हुए भी बहस करा सकते हैं। यह न्यूज़ रूम में सामाजिक विविधिता की कमी का नतीजा भी है। यह आज से नहीं, अरसे से जारी है। क्या कभी इन पत्रकारों को नहीं सोचना चाहिए कि उनके न्यूज़रूम में दलितों की तादाद नगण्य क्यों है !

पुनश्च—राजनीतिक प्रेक्षक के रूप में पत्रकारों को ‘निजी क्षेत्र में आरक्षण’ की माँग पर कड़ी नज़र रखनी चाहिए। आने वाले दिनों में यह बड़ा मुद्दा बनेगा क्योंकि निजीकरण की बढ़ती माया से आरक्षण की सिकुड़ती जाती छाया का दर्द लोग समझने लगे हैं।

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।

 



 

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