388वें जन्मदिवस पर विशेष
शिवाजी महाराज का जन्म 19 फ़रवरी 1630 को हुआ था। उन्होंने दिल्ली की केंद्रीय सत्ता के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय आकांक्षा का झंडा बुलंद करते हुए अपने राज्य की स्थापना की थी जिसमें सुशासन के तमाम अभिनव प्रयोग किए गए थे। अफ़सोस की बात यह है कि हिंदुत्ववादी राजनीति ने शिवाजी जैसे योद्धा और शासक को महज़ ‘हिंदुओं का प्रतीक’ बनाने में पूरी ताक़त झोंकी हुई है जबकि शिवाजी हिंदू और मुसलमानों के बीच फ़र्क़ नहीं समझते थे। उनके सेनानायकों से लेकर अंगरक्षकों तक में मुसलमान शामिल थे। इस संदर्भ में पेश हैं गोविंद पानसरे की मशहूर क़िताब “शिवाजी कौन थे ?” का एक महत्वपूर्ण अध्याय- संपादक
शिवाजी के मुसलमान सेनानायक
शिवाजी का तोपख़ाना प्रमुख एक मुसलमान था। उसका नाम इब्राहिम ख़ान था। तोपख़ाना, यानी फ़ौज का एक महत्वपूर्ण विभाग, उसके पास था, तोपें यानी उस युग के सर्वाधिक विकसित हथियार। क़िले के युद्ध में उनका बड़ा महत्व होता है। ऐसे तोपख़ाने का प्रमुख एक मुसलमान था।
नौसेना की स्थापना को छत्रपति शिवाजी महाराज की दूरंदेशी का उदाहरण माना जाता है और यह ठीक भी है। कोंकण पट्टी की विस्तृत भूमि समुद्र के समीप थी। इस सारे क्षेत्र की सुरक्षा के लिए नौसेना अपरिहार्य थी। शिवाजी ने उसे तैयार किया और ऐसे महत्वपूर्ण विभाग का प्रमुख भी एक मुसलमान सेनानायक ही था। उसका नाम था दौलत ख़ान, दर्यासारंग दौलत ख़ान।
शिवाजी के ख़ास अंगरक्षकों में और निजी नौकरों में बहुत ही विश्वसनीय मदारी मेहतर शामिल था। आगरे से फ़रारी के नाटकीय प्रकरण में इस विश्वसनीय मुसलमान साथी ने शिवाजी का साथ क्यों दिया ? शिवाजी मुस्लिम-विरोधी होते तो शायद ऐसा नहीं होता।
शिवाजी के पास जो कई मुसलमान चाकर थे, उनमें क़ाज़ी हैदर भी एक था। सालेरी के युद्ध के बाद, औरंगज़ेब के अधीन दक्षिण के अधिकारियों ने, शिवाजी के साथ मित्रता क़ायम करने के लिए एक ब्राह्मण वक़ील भेजा तो उसके उत्तर में शिवाजी ने क़ाज़ी हैदर को मुग़लों के पास भेजा, यानी मुसलमानों का वकील हिंदू और हिंदुओं का वक़ील मुसलमान। उस युग में, यदि समाज का विभाजन हिंदू-विरुद्ध-मुसलमान होता तो ऐसा नहीं होता।
सिद्दी हिलाल, ऐसा ही एक मुसलमान सरदार शिवाजी के साथ था। सन 1660 में शिवाजी ने रुस्तम जमा और फ़ाज़ल ख़ान को रायबाग के पास हराया। इस समय सिद्दी हिलाल शिवाजी के पक्ष में लड़ा। उसी प्रकार जब सन 1660 में सिद्दी जौहर ने पन्हालगढ़ किले की घेराबंदी की, तब नेताजी पालकर ने उसकी सेना पर घात लगाकर घेराबंदी उठवाने का प्रयास किया, उस समय भी हिलाल और उसका पुत्र नेताजी के साथ थे। इस भिड़ंत में सिद्दी हिलाल का पुत्र बाहबाह ज़ख़्मी हुआ और पकड़ लिया गया। सिद्दी हिलाल,अपने पुत्र के साथ, ‘हिंदू शिवाजी’ की ओर से मुसलमानों के विरुद्ध लड़ा।
इन युद्धों का स्वरूप यदि वल हिंदू बनाम मुसलमान रहता, तो परिणाम क्या होता ? “सभासद बखर” के पृष्ठ 76 पर शिवाजी के ऐसे ही एक शिलेदार का उल्लेख है। उसका नाम शमाख़ान था। राजवाड़े कृत “मराठों के इतिहास के स्रोत” पुस्तक के खंड 17 पृष्ठ 17 पर “नूरख़ान बेग़” का उल्लेख शिवाजी का सरनोबत कह कर किया गया है।
स्पष्ट है कि ये सरदार अकेले नहीं थे। अपने अधीनस्थ सिपाहियों के साथ वे शिवाजी की सेवा में थे।
परंतु इससे अधिक महत्वपूर्ण एक अन्य प्रामाणिक साक्ष्य है। उससे शिवाजी महाराज की मुस्लिम धर्मानुयायी सिपाहियों के प्रति नीति स्पष्ट होती है।
रियासतकार सरदेसाई द्वारा लिखित “सामर्थ्यवान शिवाजी” पुस्तक में से यह उदाहरण देखिए-
सन 1648 के आसपास बीजापुर की फ़ौज के पाँच-सात सौ पठान शिवाजी के पास नौकरी हेतु पहुँचे, तब गोमाजी नाईक पानसंबल ने उन्हें सलाह दी, जिसे उचित मान शिवाजी ने स्वीकार कर लिया और आगे भी वही नीति क़ायम रखी। नाईक ने कहा, “आपकी प्रसिद्धि सुनकर ये लोग आये हैं, उन्हें निराश करके वापस भेजना उचित नहीं है। हिंदुओं को ही इकट्ठा करो, औरों से वास्ता नहीं रखो- यदि यह समझ क़ायम रखी तो राज्य प्राप्ति नहीं होगी। जिसे शासन करना हो, उसे अठारह जातियों, चारों वर्ण के लोगों को, उनके जाति सम्प्रदाय के अनुरूप, संगठित करना चाहिए।”
सन 1648 के, जबकि अभी शिवाजी के समपूर्ण शासन की स्थापना होनी थी, उपरोक्त उदाहरण से यह स्पष्ट अभिव्यक्त हो जाता है कि उनके शासन क़ायम करने की नीति का आधार क्या था।
शिवाजी से संबंधित चरित्रग्रंथ में ग्रांट डफ़ ने भी पृष्ठ 129 पर गोमाजी नाईक की सलाह का उल्लेख करते हुए कहा है-
“इसके बाद शिवाजी ने अपनी सेना में मुसलमानों को भी शामिल कर लिया और राज्य स्थापना में वे बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुए।”
शिवाजी के सरदार और शिवाजी की सेना, केवल हिंदूधर्मी नहीं थी। यह भी स्पष्ट है कि उनमें मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों की भी भर्ती की गई थी। यदि शिवाजी मुस्लिम सम्प्रदाय को समाप्त करने का कार्य कर रहे होते तो वे मुसलमान शिवाजी के पास नहीं ठहरते। शिवाजी मुसलमान शासकों के अत्याचारी शासन की समाप्ति हेतु निकले थे। प्रजा की चिंता करने वाले शासन की स्थापना हेतु निकल पड़े थे, इसीलिए मुसलमान भी उनके कार्य में हिस्सेदार बने।
मुख्य प्रश्न धर्म का नहीं था। शासन का प्रश्न प्रमुख था। धर्म मुख्य नहीं था, राज्य प्रमुख था। धर्मनिष्ठा मुख्य नहीं थी, राज्यनिष्ठा और स्वामीनिष्ठा प्रमुख थी।
पुनश्च: शिवाजी मुस्लिम साधु, पीर-फ़कीरों का काफ़ी सम्मान करते थे। मुस्लिम संत याक़ूत बाबा को तो शिवाजी अपना गुरु मानते थे। उनके राज्य में मस्जिदों और दरगाहों में दिया-बाती, धूप-लोबान आदि के लिए नियमित ख़र्च दिया जाता था।