शेख़ अब्दुल्ला : अमीरों की ज़मीन ग़रीबों में बाँटने वाला दुनिया का पहला लोकतांत्रिक नेता !

“हमने लोकतांत्रिक और सेक्युलर भारत के साथ जीने-मरने का फैसला किया है। और यह आज का फैसला नहीं है, सन् 1944 में ही हमने यह विचार बना लिया था, जब हमने जिन्ना के सोच को खारिज किया ।”

 (शेख़ अब्दुल्ला 7, मार्च, 1948, द स्टेट्समैन)

शेख अब्दुल्ला का जन्म 5 दिसंबर 1905 को हुआ था। दुर्भाग्य है कि कश्मीर के इतिहास के इस नायक को वे लोग सबसे कम जानते हैं, जो कश्मीर के हर ज़र्रे पर अपना पुश्तैनी हक़ समझते हैं। आज के कश्मीर के हालात को देखकर यह अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है कि कोई नेता वहाँ ऐसा भी था जिसने अपनी पार्टी मुस्लिम कान्फ्रेंस का नाम बदलकर नेशनल कान्फ्रेंस किया था। जिसका लोकतांत्रिक और सेक्युलर भारत पर पूरा यक़ीन था (कहीं, भारत ने अपनी इन दो प्रतिबद्धताओं को लेकर जैसी कमज़ोरी दिखाई, वही तो कश्मीर समस्या की जड़ नहीं हैं, सोचिएगा-संपादक ) यही नहीं, दुनिया के इतिहास की पहली लोकतांत्रिक सरकार शेख अब्दुल्ला की ही थी, जिसने अमीरों की ज़मीन ग़रीबों में बाँट दी थी, बग़ैर कोई मुआवज़ा दिए। कश्मीर के मुस्लिम कुलीनों और कश्मीर के राज-काज पर छाए कश्मीरी पंडितों ने इसके लिए शेख़ को कभी माफ़ नहीं किया।

पेश है शेख़ अब्दुल्ला पर कवि -लेखक अशोक कुमार पांडेय का एक लेख जिनकी कश्मीर पर जिनकी किताब “कश्मीरनामा :इतिहास और समकाल ” प्रकाशनाधीन है।

आज शेर-ए-कश्मीर शेख़ अब्दुल्ला का जन्मदिन है. माँ के गर्भ में पिता को खो देने वाले शेख़ ने उस ज़माने के बेहद मुश्किल हालात में पढ़ाई की, डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन डोगरा शासन में वजीफा नहीं मिला. लाहौर से बीएससी की और फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम एस सी. उसी दौरान भारत में चल रहे आज़ादी के आन्दोलन से परिचित हुए और गाँधी के मुरीद लौटे तो डोगरा शासन में उनके लिए कोई नौकरी नहीं मिली. स्कूल में मुदर्रिस हुए. कश्मीर के उन हालात में प्रतिरोध संगठित करने के लिए ‘रीडिंग रूम पार्टी’ बनाई जिसमें पढ़े लिखे मुस्लिम नौजवान एक जगह इकट्ठे होते और कश्मीर तथा देश दुनिया के हालात पर बात करते.

1930 में जब इस असंतोष ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया तो शेख़ ने इसमें नेतृत्वकारी भूमिका निभाई और ‘शेर-ए-कश्मीर’ कहलाये। उस दौर में गिरफ्तारियों का जो सिलसिला चला वह फिर आठवें दशक तक बदस्तूर जारी रहा। तीस के दशक में ही ‘मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ का गठन किया गया, जो बाद में नेहरू के प्रभाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस बनी और कश्मीर के सभी वर्गों तथा समूहों की प्रतिनिधि बनी.

आगे का क़िस्सा लंबा है, हाल में नेहरू पर लिखे लेख में कुछ आया है कुछ किताब में लेकिन एक बात जो निर्विवाद है वह यह कि हज़ार कोशिशों के बावजूद शेख़ साहब कश्मीर के आमजन में हमेशा लोकप्रिय रहे. जब सड़कों पर उतरे जनता का हुजूम उनके साथ आया. मज़हबी हिंसा पनपने तक न पाई उनके वक़्त में, अमीरों से ज़मीन छीन कर ग़रीबों को दी और कश्मीर जन को उनका सम्मान वापस दिलाना सदा उनके एजेंडे में सबसे ऊपर रहा. 1946 में उन्होंने जिम्मेदार सरकार की मांग रखते हुए अपने संविधान के रूप में जो “नया कश्मीर” दस्तावेज़ जारी किया वह दक्षिण एशिया के तत्कालीन दौर का सबसे प्रगतिशील संविधान था। आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक बराबरी की व्यवस्था वाले इस दस्तावेज़ को लिखने में बेदी और फ़ैज़ जैसे कम्युनिस्टों की प्रमुख भूमिका थी।

1947 में जब क़बायली हमले के बाद हरि सिंह जम्मू भाग गए और प्रशासन शेख़ के हाथों में आया तो उस हमले से निपटने के बाद कश्मीर की सत्ता में आकर शेख़ ने भूमि सुधार का जो कार्यक्रम लागू किया वह पूरे उपमहाद्वीप में सबसे अनूठा था। एक झटके से ज़मीन जागीरदारों से छीनकर किसानों के हाथ मे दे दी गई और बदले में कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया। ज़मीन के पुराने मालिकान, जिनमें डोगरा शासक और सामन्त, कुलीन मुस्लिम वर्ग तथा कश्मीरी पंडितों के एक छोटे से वर्ग को उनके इस क़दम ने हमेशा के लिए दुश्मन बना दिया। शेख़ के ख़िलाफ़ जम के दुष्प्रचार किये गए और सरदार पटेल ने दुर्भाग्य से परोक्ष रूप से उनका साथ दिया।

यही दौर था जब शेख़ ने परिपक्वता दिखाने की जगह उत्तेजना और जल्दबाज़ी से काम लिया और पार्टी के भीतर भी असंतोष पनपा। नेहरू की लाख कोशिशों के बावजूद रिश्ते बिगड़े और शेख़ को गिरफ्तार किया गया। अपनी मृत्यु से कुछ पहले नेहरू ने न केवल उन्हें आज़ाद करवाया बल्कि एक बार फिर कश्मीर समस्या के हल के लिए पाकिस्तान भी भेजा, लेकिन नेहरू के दुर्भाग्यपूर्ण निधन के बाद यह प्रक्रिया फिर बाधित हुई। इसके बाद का इतिहास उनकी बार-बार गिरफ़्तारी और रिहाई का है। अंततः 80 के दशक में इंदिरा गांधी के साथ हुए दिल्ली समझौते के बाद स्थितियाँ सामान्य हुईं और उसके बाद शेख़ अपनी आख़िरी साँस तक कश्मीर के सर्वमान्य नेता बने रहे।

उनकी जीवनी ‘आतिश-ए-चिनार’ उस दौर का जैसे इतिहास है कश्मीर का। खुशवंत सिंह ने इसका सम्पादन कर अंग्रेज़ी में पेंग्विन से छपवाया था लेकिन आश्चर्य कि हिंदी में किसी ने उसे लाने की कोशिश नहीं की। ग़ालिब और इकबाल के अशआर से भरी यह जीवनी उनकी संवेदनशीलता का भी एक आईना है।

ऐसा भी नहीं कि ग़लतियाँ उनसे नहीं हुईं। उन पर भी पर्याप्त लिखा पढ़ा गया है…लेकिन शेख़ का व्यक्तित्व उन सबके बावजूद दक्षिण एशिया के उस दौर के नेताओं में विशिष्ट है। उन्हें नज़रअंदाज़ करके कश्मीर तो क्या भारत का भी आधुनिक इतिहास नहीं लिखा जा सकता।

 



 

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