सावित्रीबाई फुले: मनुवादी अंधकार में किरण की तरह फूटी युगनायिका !

भारत की पहली महिला प्रशिक्षित शिक्षक के जन्मदिवस 3 जनवरी पर विशेष

भारत की पहली प्रशिक्षित महिला शिक्षक के जन्मदिवस 3 जनवरी पर विशेष

रजनी तिलक

सावित्री बाई फुले कोई साधारण महिला नहीं थी, जिन्हें इतिहास के गर्भ में छुपा दिया जाए और वे गुमनामी के अंधेरों में छुप जायें। उन्नीसवीं शताब्दी की वह वह सुनहरी किरण थी जिसमें ब्रिटिश उपनिवेशवाद के भीतर अपनी न केवल आभा बिखेरी बल्कि अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग धार्मिक कर्मकांडों को चीर कर ज्ञान के स्रोत को अछूतों व स्त्रियों के लिये रेखांकित किया। तत्कालीन बीहड़ परिस्थितियों में समाज सुधारक क्रांतिज्योति सावित्री बाई फुले युग नायिका बनकर उभरीं। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि, निर्भीक व्यक्तित्व, सामाजिक सरोकारो से ओत-प्रोत ज्योतिबा फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दकियानूसी समाज को बदलने हेतु इन्होंने अपने तर्कों के आधार पर बहस किया। स्त्री जीवन को गौरवान्वित किया एवं सामाजिक न्याय को लक्षित किया।

भारत की प्रथम प्रशिक्षित शिक्षिका होने का गौरव उन्हें ही प्राप्त है। ऐसे समय में उन्होंने शिक्षा पर कार्य करना शुरू किया, जब शिक्षा के सारे द्वार स्त्रियों के लिए प्रायः बंद थे। स्त्रियों  को पैरों की जूती, वाचाल, नर्क का द्वार कहा जाता था। उनका जीवन चूल्हे-चौके और बच्चे पैदा करने, पति की सेवा करने तक ही सीमित था। उनकी इच्छा, रुचि, अभिरुचि व मान-सम्मान का कोई मूल्य नहीं था। किसी भी जाति की महिलाओं का जीवन निकृष्टतम था। वे स्वयं ये भी भूल चुकी थीं कि वे एक इंसान हैं। उच्च जाति के समुदायों की स्त्रियों  की स्थिति बेशक सोचनीय थी परन्तु दलित व पिछड़ी महिलाओं की स्थिति और अत्यधिक विकराल थी। उन पर उच्च जातियों के पुरुष-स्त्रियों के साथ-साथ अपने समाज के नियंत्रण का शिकंजा भी कसा हुआ था।

अंग्रेज शासकों के आगमन पर प्रशासकीय कार्यों के लिए अंग्रेजी के जानकारों की जरूरत को समझते हुए अंग्रेजी शिक्षा के प्रबंध किये गए। उनके आगमन से भारत के सुप्त जनमानस में सुगबुगाहट पैदा हुई। हालाँकि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने वालों में भी उच्च जातियों का प्रभुत्व बढ़ गया, फिर भी यह नहीं नकारा जा सकता है कि अंग्रेजी शिक्षा के आरम्भ से ज्ञान और जानकारी के रास्ते खुले। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से सामाजिक सुधार लाने हेतु समाज सुधारकों के प्रयास शुरू हुए। इन सुधारों के जागरण में स्त्रियां भी अछूती न रह सकी। भारत की स्त्रियों की स्थिति में सुधार व उनमें जागरण लाने के कार्य में विभिन्न समाज सुधारकों में से ‘सावित्री बाई फुले’ ताराबाई शिंदे व पंडिता रमाबाई, का नाम अग्रणीय है। हम भारतीय स्त्री आंदोलन को समझना चाहते हैं तो हमें सावित्री बाई फुले के जीवन को, उनके कार्य को तत्कालीन समाज के समक्ष रखकर आंकना चाहिए। सावित्री बाई फुले दबे-पिछड़े समाज माली जाति में पैदा हुई। नौ वर्ष की अल्पायु में विवाह के बाद घर गृहस्थी के साथ-साथ कठोर परिश्रम करके स्वयं पढ़ी और गांव-गांव जाकर दीन-हीन दुखी दलित और स्त्रियों के लिए पाठशाला खोलने में अग्रसर हुई।

सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को नायगांव में हुआ। जब वे नौ वर्ष की अल्पायु में थीं, उनका विवाह महान क्रांतिकारी ज्योतिबा फुले (तेरह वर्ष) से 1840 में हुआ। ज्योतिबा फुले उनके जीवन में शिक्षक बनकर आए। 1841 में पढ़ने-लिखने का प्रशिक्षण उन्हें ज्योतिबा फुले से ही मिला। पूना में रे जेम्स मिचेल की पत्नी नारी शिक्षा की पक्षधर थी। अतः नार्मल स्कूल द्वारा सावित्री बाई फुले को अध्यापिका प्रशिक्षण दिया गया। अंग्रेजी ज्ञान होने के बाद सावित्री बाई फुले ने 1855 में टामसन क्लार्क्सन की जीवनी पढ़ी। टामसन क्लार्क्सन नीग्रो लोगों पर हुए जुल्मों के विरुद्ध न केवल लड़े थे बल्कि कानून बनाने में सफल हुए थे। उनकी जीवनी पढ़कर सावित्री बाई फुले बहुत प्रभावित हुई। वह भारत के नीग्रो (अछूत और स्त्रियों ) की गुलामी के प्रति चिंतित थी। उन्होंने भारतीय गुलामों के शोषण का मुख्य कारण ‘अशिक्षा’ को खोजा। उदाहरणतः शिक्षा संबंधी कविताएं-

शूद्रों की चेतना जगाने के लिए
है सर्वोत्तम शिक्षा का मार्ग
शिक्षा से मिले ज्ञान,
ज्ञान से प्राप्त होवे इंसानियत
और पशुता होती है समाप्त।

                                                                (शूद्रों का दर्द : पीड़ा )               


जो करे खेती और करे सम्पादन विद्या

वे होवे ज्ञानी, और सुखी-समृद्ध
                                                                         ( सर्वश्रेष्ठ खेती )

विद्या है सच्ची धन-दौलत

है सभी दौलत से श्रेष्ठ
जिसके पास है ज्ञान का संचय
ज्ञानी वही सच्चा दुनिया में।
                                                                               ( सच्ची धन-दौलत) 

(अनुवाद शेखर पवार)

1 जनवरी 1848 में बुधवार पेठ (पूना में) पहला स्कूल खोला गया जिसमें सावित्री बाई फुले अध्यापिका हुई। उनके शिक्षिका बनने पर समाज में प्रखर विरोध हुआ। उन्हें धर्म को डुबाने वाली एवं अश्लील गालियां देकर उनको प्रताड़ित किया गया। गाली-गलौच, पत्थर, गोबर फेंकने पर भी सावित्री बाई फुले ने जब अपना काम बंद नहीं किया तो ससुर द्वारा दबाव डलवाया गया कि यदि सावित्री बाई फुले ने अछूतों को पढ़ाना बंद नहीं किया तो उनकी बयालीस पीढ़ियां नरक में जाएंगी।

सावित्री बाई फुले के साथ-साथ फातिमा शेख व सगुणा भी ज्योतिबा की छात्राएं थीं। फुले दम्पति ने शूद्रों-अतिशूद्रों और औरतों के बीच शिक्षा की ज्योति जलाकर गुलामी से मुक्ति की राह दिखाई। गांव-गांव में जाकर विद्यालय खोले। एक ओर ऊंची जातियों में बाल-विवाह से हुई विधवाएं, बलत्कृत होती और गर्भवती होने पर भ्रूण हत्या करती या शर्म से स्वयं आत्महत्या कर लेतीं। दूसरी ओर अछूत औरतें एक बूंद पानी के लिए भी सवर्णों की दया पर जीतीं। सामाजिक बहिष्करण की शिकार होती। एक दिन जब सावित्री बाई फुले बच्चों को पढ़ाने पाठशाला जा रही थी तो उन्होंने देखा कि रास्ते में कुएं के पास कुछ औरतें फटे-पुराने कपड़े पहनकर धनी औरतों से मिन्नतें कर रही हैं ‘‘हमें मार लो, पीट लो, हमारी मार-मार कर खाल उधेड़ लो, परन्तु हमें दो लोटे पानी दे दो।’’ चिलचिलाती धूप में कुएं से दूर खड़ी इन औरतों को देखकर ऊंची जाति की औरतें हंस रही थीं और हंसते-हंसते डोल भर-भर कर पानी उनके ऊपर फेंक देती। सावित्री बाई फुले यह कृत्य सहन न कर सकीं। वे उन अछूत औरतों के पास गईं और उन्हें अपने घर लिवा लाईं। अपना तालाब दिखाते हुए बोली, ‘‘जितना चाहे पानी भर लो, आज से यह तालाब तुम सबके लिए है।’’ कहते हुए उन्होंने 1868 में अपना तालाब अस्पृश्यों के लिए खोल दिया। अंततः शिक्षा एवं अछूतों का साथ न छोड़ने पर उन्हें उनके पति के साथ घर से निकाल दिया गया।

1848 में एक तरफ इंग्लैंड में स्त्री  शिक्षा की मांग हो रही थी तो दूसरी ओर फ्रांस में मानव अधिकार के लिए संघर्ष चल रहा था। भारत में सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले ने शूद्रों अतिशूद्रों व स्त्री  शिक्षा एवं सामाजिक आधार की नींव रखकर नए युग का सूत्रापात किया। 1849 में पूना में उस्मान शेख के यहां उन्होंने प्रौढ़ शिक्षा आरंभ की 1849 में ही पूना, सतारा व अहमदनगर जिले में अन्य पाठशाला खोली। स्कूली शिक्षा के साथ-साथ ही सावित्री बाई फुले ने महसूस किया स्त्रियों  की स्थिति सुधारने के लिए स्त्रियों को संगठित करना चाहिए। 1842 में उन्होंने ‘महिला मंडल’ का गठन किया और बाल-विवाह के तहत हुई विधवाओं के साथ हो रहे जुल्म व शारीरिक शोषण का विरोध किया। स्त्रियों  के बाल काटने के विरुद्ध नाइयों से अनुरोध किया तथा इसमें सफलता हासिल की। ‘भ्रूण  हत्या’, ‘बाल हत्या’ के विरुद्ध विधवा मांओं को शरण देना शुरू किया। अंततः उनके लिए 1852 में बाल-हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। 1864 में अनाथाश्रम की स्थापना की। छुआछूत उस समय बहुत ज्यादा थी। शूद्र सामाजिक जीवन से केवल बहिष्कृत ही नहीं थे, प्रताड़ित भी किये जाते थे। उनका खाना-पीना, रहना सब दूसरों की दया पर था, अतः उनका जीवन पशु समान था। अछूत महिलाएं घंटों दया की भीख मांगती, बदले में थोड़ा-सा पीने का पानी मिलता। उस्मान शेख की बहन फातिमा शेख भी स्त्री शिक्षा में सावित्री बाई फुले के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही थी। 24 सितम्बर 1873 में ‘‘सत्यशोधक समाज’’ की स्थापना की गई और सैकड़ों विवाह साधारण तरीके से कम खर्च किये कराए। 1875 से 1877 तक महाराष्ट्र में अकाल पीड़ित लोगों की मदद के लिए सरकार पर दबाव डालकर अनेक रिलीफ केन्द्र एवं भोजन केन्द्र शुरू करवाए।


सावित्री बाई फुले दंपति को अपना कोई बच्चा नहीं था। अतः उन्होंने एक काशीबाई नामक ब्राह्मण विधवा से हुए बच्चे को गोद लेकर उसे पढ़ाया-लिखाया व डाॅक्टर के रूप में अपने जैसा अच्छा इंसान बनाया। अपने पति की मृत्यु के बाद वे सत्य शोधक समाज की अध्यक्ष बनीं। उनकी अध्यक्षता में अनेक सुधारात्मक काम हुए। सत्य शोधक समाज की स्थापना 24 सितम्बर 1873 को हुई थी। जीवन के अंतिम दिनों में पुणे में प्लेग के प्रकोप से अछूत बस्तियों में लोगों की सेवा करती हुई निर्वाण को प्राप्त हुई।

आज से एक सौ पिच्चासी वर्ष पहले समाज में अंधविश्वास कुरीति-रूढ़ि परम्पराओं के विरुद्ध शिक्षा, ज्ञान, समता और नारी समानता के लिए लड़ने वाली भारत की पहली शिक्षिका, समाज सुधारने वाली पहली क्रांतिकारी नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता को इतिहास ने, मीडिया ने यहां तक की वर्तमान नारी मुक्ति आंदोलन ने भुला दिया। आज मजबूरन उनको याद करने के लिए उनके स्मृति दिवस पर ब्राह्मणवाद, मनुवाद व हिन्दुत्व के विरुद्ध आंदोलित हुई हैं। हमारी सरकार ने प्रौढ़ शिक्षा, अध्यापक प्रशिक्षण सरकारी पाठ्यक्रम में उनका नामोनिशां तक नहीं रखा। उनके नाम के न तो कोई संस्थान हैं, न विद्यालय, न विश्वविद्यालय। इतिहास में ऐसी नारी को भुला दिया, जिसका जीवन स्वयं एक युग बोध है। आज हम नारीवादी आंदोलन और सावित्री बाई फुले के समय की नारी आंदोलन की समीक्षा करें तो पाएंगे कि वर्तमान मुद्दों पर नारी आंदोलन ठहर गया है। वे मुद्दे जो तत्कालीन समाज में सावित्री बाई फुले के नेतृत्व में बखूबी लड़े गए।

आज महानगरों में दहेज, भ्रूण-हत्या, यौन शोषण, बलात्कार के इर्द-गिर्द के मुद्दों पर ही नारी आंदोलन सक्रिय है, लेकिन एक सौ पिचहत्तर वर्ष के इतिहास में स्त्री  का दोयम दर्जा पूर्ववत है। शहरीकरण के चलते व पूंजीवाद के विकास ने औरतों को घर से बाहर निकलने का अवसर जरूर दिया है, पर मोटे तौर पर उसकी स्थिति नहीं बदली है।

सावित्री बाई फुले ने समाज के भीतरी ढांचे में छेद किया। उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज का मूल स्रोत ब्राह्मणवाद में ढूंढ़ा, उन्होंने ब्राह्मणवाद से लड़ने का हल शिक्षा और समाज के ढांचे में परिवर्तन को माना। उनकी कार्य शैली में सादगी थी। वे सादा जीवन, वर बहु पक्ष को एकत्रित कर ब्राह्मणी आडम्बरी को छोड़ सामूहिक विवाह करने की प्रेरणा देती तो व शादी कराती। सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा पंडों व ब्राह्मणों का पर्दाफाश करती। बाल विधवाओं के केश काट देने पर वे नाइयों के पास गईं, उनसे बातचीत की कि वे ये मुंडन का काम अपने हाथों से न करें। उनके समझाने से पूरे नाई समाज ने उनकी बात मानी। उनके काम को जहां उच्च जातीय वर्ग का विरोध मिला वहां निचले समाज का खुलकर साथ मिला।

आज के नारी आंदोलन का हम गहन अध्ययन करें तो पाएंगे कि उनकी सभाओं में स्लम झुग्गी झोपड़ी की औरतें जरूर दिखेंगी लेकिन मुद्दों में गरीबी, आवास, आवश्यक नागरिक सुविधाएं, सरकारी शिक्षा, शौचालय, स्वास्थ्य इत्यादि के सवालों पर आंदोलन पर रुख उपेक्षित है। संगठनों के तौर तरीके, रहन-सहन व बैठकों से पूर्ण सुविधा वर्ग की झलक मिलती है। इन आंदोलनों के प्रति समाज के पूर्वाग्रह है तो संगठनों के तौर तरीके भी समाज से कटे हुए है। सावित्री बाई फुले का काम वर्ग और जातिविहीन नजर आता है। उनका अपना सब कुछ आंदोलन के लिए था, और वह स्वयं आंदोलन के लिए थी। 185 वर्ष पूर्व जब छुआछूत, नारी विरोध अपनी चरम सीमा पर था उन्होंने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण, घर के सब साधन अछूतों व महिलाओं के लिए समर्पित कर दिये थे। पति के देहांत पर स्वयं क्रिया में शामिल हुई। आज भी इतनी महान क्रांतिकारी जननायिका ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगी। वह थी भारत के प्रथम क्रांतिकारी महिला नेता व शिक्षिका जिसके जीवन ने कोटि-कोटि औरतों को शिक्षा का मार्ग दिखाया। वह वास्तव में नारी आंदोलन की रीढ़ थी जबकि, 19वीं शदी, तत्कालीन सामाजिक प्रभाव ही संकुचित था। प्राचीन अंध परम्पराओं तथा नवीन विचारों के द्वंद जड़ मूर्ति पूजा से लेकर छुआछूत जैसी अनगिनत रीति रिवाज, परम्पराओं की विषमता तथा कूपमंडूकता से समाज ग्रस्त था। एक ही मानव समूह सैकड़ों और हजारों जातियों तथा उप-जातियों में बंटा हुआ था। हर जाति के अपने संस्कार थे। स्त्रियों  का जीवन शूद्रों की भांति घरेलू गुलामी का शिकार था। उसमें बदलाव लाने का काम सावित्री  बाई ने किया।

संपूर्ण देश में कुछेक जातियों को छोड़कर कुछ जातियों का जीवन अशिक्षा, आर्थिक विपन्नता, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा हुआ था। सामाजिक कुरीतियां, धार्मिक पाखंड अपने चर्म शिखर पर था। सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा बाल मुंडन, बलि प्रथा, विधवा विद्रोह के प्रतीक बनकर उभर रहे थे। पर्दा, देवदासी छुआछूत जैसे कृत्य समाज में बेरोकटोक अपना अस्तित्व बनाये हुए थे। इन कुरीतियों का फायदा उठाकर पुरोहित व ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों का वास्ता देकर समाज में अन्याय, शोषण, अंधविश्वास व गैर बराबरी को बरकरार रखने का षड्यंत्रा करता रहा। इसका प्रभाव समस्त स्त्रियों  के साथ विशेषतः शूद्रों और उनकी स्त्रियों  पर ज्यादा अन्यायमूलक, दमनात्मक शोषणकारी था। फुले दंपति ने ऐसी शिक्षा की कल्पना की जिसमें जाति, लिंग व वर्ग के वर्चस्व के कारण समुदाय में समायी गहरीखाई को पाटा जा सके। शिक्षा ही वह पहला संस्कार है जो मनुष्य मात्रा के बौद्धिक विकास को लक्षित करता है। अंग्रेजों के देश में आगमन से पारम्परिक शिक्षा में कुछ बदलाव शुरू हुए। फुले दंपति ब्राह्मणवादी विचारधारा पोषक शिक्षा के विरुद्ध थे। वे वर्ण-जाति-वर्ग आधारित शिक्षा के प्रचार-प्रसार के खिलाफ थे। उनके अनुसार- ‘‘विद्या बिना मति गयी, मति बिना गति गई’’ ‘‘विद्या बिना मति गयी, मति बिना गति गई’’ जीवन की गति सम्यक शिक्षा निर्धारित करती है।

सावित्री बाई फुले न केवल सामाजिक कार्यकर्ता शिक्षिका थीं बल्कि वे कोमल हृदय चेतनाशील, कवयित्री  भी थीं। ‘काव्य फुले’ नाम की उनकी कविता संग्रह में उन्होंने अनेक मार्मिक एवं मारक कविताएं लिखीं। उनका यह कविता संग्रह 1854 में छपा तथा दूसरा कविता संग्रह ‘बाबन्न कशी सुबोध रत्नाकर’ 1891 में अपने पति ज्योतिबा फुले को याद करते हुए आया। वे प्रखर लेखिका व तार्किक विदुषी थीं, जब भी कोई समस्या आती वे उस पर गंभीरता से विचार करके सटीक जवाब देतीं। इतिहास और आंदोलनकारियों की उपेक्षा से भी सावित्री बाई फुले छुपी न रह सकी। दलित व पिछड़े समुदायों के आंदोलन की नायिका सावित्री बाई फुले आज अपने समूचे अस्तित्व के साथ उनमें स्थापित हो चुकी हैं।

सावित्री बाई फुले समग्र का अनुवाद शेखर पवार कर चुके हैं, जो शीघ्र ही द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन ( स्त्रीकाल का अनुसंगी प्रकाशन) से लोगों  के बीच पहुंच जायेगा। सावित्री बाई फुले का जीवन न केवल दलित पिछड़ी अल्पसंख्यक आदिवासी, घुमन्तु जातियों के लिए प्रेरणादायी है बल्कि हमारे देश के लिए गौरव और सम्मान की पहचान है।

सावित्रीबाई की कवितायें: 

अंग्रेजी पढ़ो अंग्रेजी पढ़ो अंग्रेजी पढ़ो
स्वाबलंबन का उद्योग, ज्ञान धन का संच करो निरंतर।
विद्या के बिना व्यर्थ जीवन पशु जैसा, आलसी बन चुप ना बैठो।।
विद्या प्राप्त करे शद्रों-अतिशूद्रों के दुःख निवारण हेतु।
अंग्रेजी का ज्ञान हासिल करने का शुभ अवसर हाथ आया।
अंग्रजी लिखकर पढ़कर जात-पात की दीवारों को ढहा दो।
भट-बामणों के षड्यत्रों के पिटारों को दूर फेंककर।।

बालक को उपदेश 
काम करना है जो आज, उसे अब कर तत्काल।।
जो करना है दुपहरी में, उसे कर अब जाकर।।
कुछ क्षणों के बाद का कार्य, इसी वक्त करो पूरा जोर लगाकर।।
हो गया समाप्त कार्य या नहीं, न मौत पूछती है कारण।।

श्रेष्ठ धन दौलत
प्रातः काल में जाग जाओ बेटे। हाथ-मंुह धोकर बनो चुस्त।।
नहा धोकर बन तरो ताजा। करो माता-पिता को वंदन।।
स्मरण कर गुरुजनों को। पढ़ाई में लगाओ मन।।
समय बरबाद ना करो। बड़ा ही कीमती है दिन।।
करो हासिल ज्ञान। विद्या को देवता जान।।
लीजिए विद्या का लाभ। दृढ़ निश्चय कर।।
विद्या धन है बच्चे। सभी दौलत से बढ़कर।।
धन का संचय जिसके पास। ज्ञानी मानते हैं उसे सब जन।।

संत
जो वाणी से उच्चार करे,
वैसा ही बर्ताव करे,
वे ही नरनारी पूजनीय।
सेवा परमार्थ,
पालन करे व्रत यथार्थ, और
होवे कृतार्थ, वे सब वंदनीय।।
सुख हो या दुख,
कुछ स्वार्थ नहीं,
जो जतन से कर अन्यों का हित।
वे ही ऊंचे,
मानवता का रिश्ता जो जानते हैं वे सब,
सावित्री  कहे, सच्चे संत।।

संदर्भ:
भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले संपादन: रजनी तिलक, अनुवाद: शेखर एवं शलभ।
सावित्री बाई फुले समग्र वाड्.मय, संपादक: डा. सारनाथ सादडकर, सारनाथ प्रकाशन बुक डिपो, परभणी।
महात्मा फुले का उत्तर भारत में प्रभाव – मोहन दास नैमिसराय, महात्मा फुले: साहित्य और विचार, संपादक: हरिनरके।
क्रांतिज्योति सावित्री बाई फुले: डी.के. खापर्डे, महात्मा फुले: साहित्य और विचार, संपादक: हरिनरके।

राजनी तिलक साहित्यकार, दलित स्त्रीवादी विचारक और एक्टिविस्ट हैं. यह स्त्रीकाल में छपे उनके एक लेख का अंश है।


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