यह लेख 2017 में मीडिया विजिल में प्रकाशित हुआ था, पर जिस तरह से लगातार बीजेपी-आरएसएस की ओर से नेहरू-पटेल विवाद को हवा दी जाती है, या पटेल के पहले प्रधानमंत्री न बन पाने का स्यापा किया जाता है, उसे देखते हुए यह आज भी प्रासंगिक है। 15 दिसंबर, यानी आज सरदार पटेल की पुण्यतिथि भी है। मौक़े और दस्तूर के मुताबिक़ इसे फिर प्रकाशित किया जा रहा है।
आप इस शीर्षक को देखकर हँस सकते हैं। भला सरदार पटेल निधन के इतने अरसे बाद मोदी को यूँ कैसे झिड़क सकते हैं ! ज़िंदा थे तो ज़रूर आरएसएस पर पाबंदी लगा दी थी। बाद में लिखित संविधान और राजनीति से दूर सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करने की शर्त पर ही पाबंदी हटाई थी। लेकिन अब क्या कर सकते हैं ?
आपकी बात ठीक है। लेकिन यह शीर्षक किसी व्यंग्यलेख से नहीं, इतिहास के दस्तावेज़ से निकला है। सरदार पटेल जैसी शख्सियतों की ख़ासियत यह होती है कि वे मुँह देखी नहीं करते। उनके विचार बाक़ायदा लिखित होते हैं।
इस बात का एक संदर्भ है। कई चुनावी रैलियों में प्रधानमंंत्री मोदी याद दिला चुके हैं कि देश अफ़सोस करता है कि पटेल पहले प्रधानमंत्री नहीं बने। मीडिया के सैकड़ों कैमरों के ज़रिये यह बात एक बार फिर घर-घर पहुँची। 2014 लोकसभा चुनाव के पहले भी उन्होंने बाक़ायदा इस ‘अफ़सोस अभियान’ को गति दी थी और प्रकारांतर में राहुल गाँधी के पुरखे नेहरू को विलेन साबित करना चाहते थे ।
लेकिन क्या वाक़ई पटेल को भी यह अफ़सोस था। आइये आपको इतिहास के कुछ पन्नों की सैर कराते हैं।
भारत की आजादी का दिन करीब आ रहा था। मंत्रिमंडल के स्वरूप पर चर्चा हो रही थी। 1 अगस्त 1947 को नेहरू ने पटेल को लिखा-
”कुछ हद तक औपचारिकताएँ निभाना ज़रूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूँ। इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं।’
जवाब में पटेल ने 3 अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा-
” आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड
पटेल की ये भावनाएं सिर्फ औपचारिकता नहीं थी। अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले उन्होंने नेहरू को लेकर जो कहा वो किसी वसीयत की तरह है। 2 अक्टूबर 1950 को इंदौर में एक महिला केंद्र का उद्घाटन करने गये पटेल ने अपने भाषण में कहा—-“अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं। बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी। अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं एक गैरवफादार सिपाही नहीं हूं।”
साफ है, पटेल को नेहरू की जगह पहला प्रधानमंत्री ना बनने पर मोदी जी जैसा अफसोस जता रहे हैं, वैसा अफसोस पटेल को नहीं था। वे आरएसएस नहीं, गांधी के सपनों का भारत बनाना चाहते थे। पटेल को लेकर इस अफसोस के पीछे एक ऐसी राजनीति है जिसे कम से कम पटेल का समर्थन नहीं था।
लेकिन जब आप पटेल के विचारों को पढ़ें तो यह बात पूरी तरह ग़लत नज़र आती है। वे हिंदू-मुस्लिम एकता के सख़्त हिमायती थे और मानते थे कि भारत का भविष्य इसी एकता में है। सच है कि पटेल पक्के गाँधीवादी थे और बतौर गृहमंत्री उन्होंने जो भी किया वह नेहरू कैबिनेट के सदस्य बतौर ही किया। हाँ, उनमें मतभेद भी थे, जो स्वाभाविक ही था। क्या गाँधी और नेहरू में मतभेद नहीं थे ?
क्या आपको अब भी लगता है कि इस लेख का शीर्षक ग़लत है ?
डॉ.पंकज श्रीवास्तव, मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।
( लेख में जिन पत्रों का ज़िक्र है,वे ‘सरदार पटेल का पत्र व्यवहार’, 1945-50, प्रकाशक नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद में दर्ज हैं।)