‘सेवा’ के नाम पर समाज को हिंसक और परपीड़क बना रहा है RSS !

बेशक आरएसएस की ये तथाकथित सेवा संस्थाएं सबसे ज्यादा हैं, पर क्या ये वास्तव में गरीबों की सेवा कर रही हैं? आइये, देखते हैं. इनमें एक संस्था विश्व हिन्दू परिषद है, जो गाँव-गाँव में मुसलमानों से लड़ने के लिए हिन्दुत्व के धर्मयोद्धा तैयार कर रही है, और उन्हें त्रिशूल बांटकर हिंसा के लिए उकसा रही है. यह कौन सी मानव-सेवा है? अगर हिन्दुत्व का मूल मन्त्र ‘परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम’ है, तो मुसलमानों को मारकर ये धर्मयोद्धा कौन सा पुण्य कमा रहे हैं, या कमाने वाले हैं?  अगर हिंसा और परपीड़ा पाप है, तो विश्व हिन्दू परिषद अपने लोगों को हिंसक और परपीड़क क्यों बना रही है?

प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी।  हमारे दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी नौवीं कड़ी जो  11 अगस्त 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक

 


आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–9

 

 

सच और मिथक

 

प्रश्नोत्तरी का सातवाँ प्रश्न—

‘हिन्दू समाज सेवा-कार्य नहीं करता, सेवा करने वालों का विरोध करता है?’

          यद्यपि बड़ी चालाकी से आरएसएस ने इस आरोप को अपने आप से हटाकर हिन्दू समाज से जोड़ दिया है, तथापि उसका जवाब देख लिया जाए, जो उसने इन शब्दों में दिया है—

‘निरपेक्ष, निस्वार्थ भाव से प्राणीमात्र की सेवा करना यह हिन्दू समाज का स्वभाव है. सामान्यत: हिंसा, पीड़ा, कष्ट देखकर हिन्दू का हृदय द्रवित होता है. यही कारण है कि ‘परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम’—दूसरों को दुःख देने का व्यवहार करना पाप माना जाता है. दूसरों की सेवा करना पुण्य है. प्यासे को पानी, भूखे को अन्न, अतिथि का सम्मान, यह सब कार्य श्रेष्ठ माने गए हैं.

‘पक्षियों को चुगने के लिए अन्न, पीने के लिए पानी, पशुओं को घास-पानी की व्यवस्था यह ग्राम-ग्राम में दिखाई देता है. मन्दिर में जाने वाली बहनें थाल में आटा-गुड़ लेकर जाती हैं, ताकि चिड़ियों को खिलाया जा सके. यात्रा मार्ग पर घनी छाया हेतु वृक्ष लगाना, यात्रियों हेतु विश्राम गृह [धर्मशाला], खानपान, चिकित्सा सुविधा प्रदान करना, यह पुण्य माना जाता है. समाज के सामान्य व्यक्ति से लेकर धनवान तक सभी यथाशक्ति सेवा भाव से ऐसे कार्य करते हैं, यह आम बात है.

‘सन्यासी, महापुरुष, समाज-सुधारकों ने अपनी वाणी से, लेखन से, व्यवहार से यही मार्गदर्शन किया है. संतश्री रविदास, कबीर, नरसी मेहता, तुकाराम, एकनाथ महाराज, गाडगे महाराज, नारायण गुरु ऐसे कई नाम लिए जा सकते हैं. स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने तो ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ का मन्त्र देकर अपने अनुयायियों को सेवा की प्रेरणा दी. ‘रामकृष्ण मिशन’ तो आज सेवा का पर्याय बना हुआ है.

‘इसी भाव से प्रेरित होकर रा. स्व. संघ [आरएसएस] के हजारों स्वयंसेवक आत्मीयता तथा कर्तव्यभाव से प्रेरित समाज की सेवा में लगे हैं, और यही कारण है कि किसी भी मानव-निर्मित या प्राकृतिक आपदा में प्रान्त, भाषा, पंथ के भेदों से ऊपर उठकर तत्काल राहत-कार्य में संघ का स्वयंसेवक लग जाता है. फिर वह कोई छोटा-मोटा हादसा हो या भूकम्प, तूफ़ान, बाढ़ जैसा निसर्ग का ताण्डव-नृत्य हो. अपने इस व्यवहार से ही समाज में संघ की यह छवि निर्माण हुई है. किसी ने कहा है कि RSS यानी Ready for Selfless Service.

‘यह भाव केवल आपदाओं तक सीमित नहीं रहा. नगरों में विभिन्न संस्थाओं [लगभग 240 पंजीकृत संस्थाएं] तथा अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित संस्थाओं जैसे, विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती, राष्ट्र्सेविका समिति, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, दीनदयाल शोध संस्थान, भारत विकास परिषद, सेवा भारती, वन बन्धु परिषद के माध्यम से 26 हजार से अधिक सेवाकार्य चल रहे हैं, जो अपने आप में एक कीर्तिमान है. अन्य किन्हीं भी सेवा संस्थाओं से यह कहीं अधिक है.’ [प्रश्नोत्तरी, पृष्ठ 10-11]

बेशक आरएसएस की ये तथाकथित सेवा संस्थाएं सबसे ज्यादा हैं, पर क्या ये वास्तव में गरीबों की सेवा कर रही हैं? आइये, देखते हैं. इनमें एक संस्था विश्व हिन्दू परिषद है, जो गाँव-गाँव में मुसलमानों से लड़ने के लिए हिन्दुत्व के धर्मयोद्धा तैयार कर रही है, और उन्हें त्रिशूल बांटकर हिंसा के लिए उकसा रही है. यह कौन सी मानव-सेवा है? अगर हिन्दुत्व का मूल मन्त्र ‘परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम’ है, तो मुसलमानों को मारकर ये धर्मयोद्धा कौन सा पुण्य कमा रहे हैं, या कमाने वाले हैं?  अगर हिंसा और परपीड़ा पाप है, तो विश्व हिन्दू परिषद अपने लोगों को हिंसक और परपीड़क क्यों बना रही है?

इस सम्बन्ध में यहाँ आरएसएस के संगठनों द्वारा, जिनमें विश्व हिन्दू परिषद मुख्य रूप से शामिल है, अंजाम दी गयीं कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र करना बेहद जरूरी है, जिनमें हजारों निर्दोष मनुष्यों का खून बहाया गया था. अंग्रेजी पत्रिका ‘Frontline’ के 26 सितम्बर 2008 के अंक में ‘Second Link in the chain’ नाम से  के. एन. पनिक्कर की कवर स्टोरी बताती है कि आरएसएस ने हिन्दू साम्प्रदायिकता की पहली लेबोरेटरी गुजरात में और दूसरी लेबोरेटरी उड़ीसा में स्थापित की थी. दोनों राज्यों में उसने अल्पसंख्यकों का खून बहाया था. इस लेबोरेटरी-योजना में वह सबसे पहले बड़ी संख्या में अपने संगठन खड़े करता है और फिर उनके हजारों कार्यकर्त्ता अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरत फैलाकर हिन्दू उन्माद का कारोबार शुरू करते हैं. परिणाम होता है  निर्दोष लोगों की निर्मम हत्याएं,  जिनका उन्हें कोई अफ़सोस नहीं होता है.

गुजरात में 2002 में आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने हजारों मुसलमानों का नृशंस नरसंहार किया था—गर्भवती औरतों के पेट चीरकर उनमें से शिशुओं को निकालकर तलवारों से काटा था, तमाम लड़कियों और औरतों के साथ बलात्कार किया था, घरों में आग लगाकर जिन्दा जलाया था, और कमरों में पानी भर कर उसमें करेंट छोड़ कर लोगों को तड़पा-तड़पाकर मारा था. और सत्ता में आने के बाद आरएसएस-भाजपा मिलाकर भव्य जश्न मनाया था. पनिक्कर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जिस तरह गुजरात में आरएसएस ने मुसलमानों की हत्याओं को अंजाम देने से पहले गोधरा कांड की जमीन तैयार की थी, उसी तरह उसने अपनी दूसरी लेबोरेटरी उड़ीसा में ईसाईयों को मौत के घाट उतारने की घटना को अंजाम देने के लिए विश्व हिन्दू परिषद के नेता स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या की पृष्ठभूमि तैयार की गई थी.  यह हत्या 23 अगस्त 2008 को हुई थी. उसके दो हफ्ते बाद विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल के हजारों कार्यकर्ताओं ने ईसाई समुदाय की बस्तियों में लूटपाट की और उनमें आग लगा दी, जिस तरह अभी हाल में उत्तरप्रदेश में सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव में हिन्दू युवा वाहिनी के ठाकुरों ने जाटवों के घरों में आग लगाई थी. इसमें ईसाई समुदाय के सोलह लोग जलकर मर गए थे. ये बर्बर हमले कंधमाल और बारागढ़ जिलों में हुए थे. इसमें रजनी माझी नाम की एक हिन्दू लड़की भी, जो नर्स के रूप में काम करती थी, जलकर मर गई थी. इसके बाद आरएसएस ने उड़ीसा की पटनायक सरकार पर धर्मांतरण और गो-हत्या पर रोक लगाने का दबाव बनाया था.

यह है आरएसएस के हिन्दू समाज की मानव सेवा और समाज सेवा, जिसके लिए लोगों को जिन्दा जलाया जाता है. जिस हिंदुत्व की पृष्ठभूमि में सती के नाम पर औरतों को जिन्दा जलाने की क्रूर प्रथा रही हो, उसे किसी भी मानव प्राणी को जिन्दा जलाने में क्या ग्लानि हो सकती है? आखिर 1999 में कुष्ठ रोगियों की सेवा करने वाले ग्राहम स्टेंस को, उनके दो बेटों और एक बेटी के साथ जिन्दा जलाकर ही तो बजरंग दल के नेता दारा सिंह ने ‘महान समाज-सेवा’ का काम किया था. क्या ऐसा कोई  प्रदेश है, जिसमें विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं ने निर्दोष मनुष्यों का रक्त बहाकर ‘महान समाज सेवा’ न की हो।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बारे में कौन नहीं जानता? यह आरएसएस के आक्रामक हिन्दू छात्रों का संगठन है, जो कालेजों और विश्वविद्यालयों में राष्ट्रवाद के नाम पर दलित और मुस्लिम छात्रों को अपना निशाना बनाता है. पिछले दिनों इसी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने अपनी दलित विरोधी गतिविधियों से हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोध छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए  बाध्य किया था. इसी विद्यार्थी परिषद ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रवाद का आक्रामक खेल खेला था—अपने ही लोगों को भीड़ में घुसा कर उनसे भारत-विरोधी नारे लगवाये थे, और आरोप वहां के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और एक मुस्लिम छात्र  उमर खालिद  पर लगाकर उनपर राष्ट्रद्रोह का झूठा मुकदमा दर्ज कराया था. अदालत तक में आरएसएस के गुंडों ने कन्हैया कुमार की पिटाई की और पुलिस मूक दर्शक बनी रही थी.  यही खेल  उसने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में दोहराया था, जिसमें उसे  जबरदस्त प्रतिरोध के कारण मुंह की खानी पड़ी थी. चूँकि अखिल भारतीय विद्यार्थी आरएसएस का संगठन है, इसलिए यह बताने की जरूरत नहीं है कि यह परिषद दलितों-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की उच्च शिक्षा का भी विरोधी है, और शिक्षा में उनके आरक्षण का भी विरोध करता है.

यह भी गौरतलब है कि आरएसएस की तरह ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सोच भी वैज्ञानिक नहीं है. उसने 1999 या उसके बाद के किसी वर्ष में ‘शिक्षा का भगवाकरण : मिथ्या प्रलाप : तथ्य और सत्य’ नाम से एक पम्फ्लेट कालेजों में बांटा था, जिसमें भारतीय शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रम पर सवाल उठाते हुए कहा था—‘आखिर हमें पढ़ाया क्या जा रहा है ?’ और इस सवाल के अंतर्गत उसने वही राग अलापा है, जिसके आधार पर आरएसएस हिंदुत्व पर गर्व करने को कहता है. वह राग इस तरह है—

इस उद्धरण से यह आसानी से निष्कर्ष निकला जा सकता है कि आरएसएस की विद्यार्थी परिषद नाम की यह संस्था शिक्षा के क्षेत्र में किस तरह की समाजसेवा कर रही है? इससे  यह भी समझा जा सकता है कि अगर भविष्य में, भारत के दुर्भाग्य से, भारत  पर आरएसएस का सम्पूर्ण प्रभुत्व हो जाता है, और वह वर्तमान संविधान को खत्म करके अपना हिन्दू कानून लागू कर देता है, तो वह किस  तरह की शिक्षा-व्यवस्था को स्थापित करेगा, और उसमें दलित-पिछड़ी जातियों का भविष्य क्या होगा?

आरएसएस ने अपनी जिन अन्य संस्थाओं, जैसे दीनदयाल शोध संस्थान, वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती, सेवा भारती, वन बन्धु परिषद का जिक्र किया है, उनमें से एक संस्था ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ’ भी है, जो कुष्ठ रोगियों के लिए काम करता है.  पर जिस तरह की आरएसएस की कार्यप्रणाली है, उसे देखते हुए, यह मानना मुश्किल है कि उसमें कोई ऐसा महा मानव होगा, जो मदर टेरेसा की तरह बिना धर्मभेद और जातिभेद के कुष्ठ रोगियों की सेवा करता हो. मैं उसकी नीयतपर इस्लोये शक कर रहा हूँ, क्योंकि उसने इस संस्था के बारे में, केवल नाम-उल्लेख करने के सिवा,और कुछ भी नहीं बताया है.

लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि आरएसएस ने इन संस्थाओं में ‘हिन्दू जागरण मंच’ का बिलकुल भी उल्लेख नहीं किया है, जो हर राज्य में अलग-अलग नाम से काम कर रहा है, और उसका एक मात्र उद्देश्य मुसलमानों को आतंकित करना है? यह किस तरह की सेवा है? राष्ट्रवाद के नाम पर, भारत माता की जय के नाम पर, वन्दे मातरम के नाम पर और गाय के नाम पर जो हिंसा की जाती है, क्या वह भी मानव सेवा है?

यहाँ मैं आरएसएस के कुछ और शब्द देना चाहूँगा,  जो उसने हिन्दू समाज सेवा के बारे में अपने उपर्युक्त जवाब के अंत में कहे हैं. उसने कहा है—

‘रामकथा, कृष्णकथा का प्रशिक्षण लेकर ग्राम-ग्राम में अपनी वाणी से श्रद्धा जागरण का कार्य करने वाले भैया-बहन [आरएसएस कार्यकर्ता] वनवासियों एवं ग्रामवासियों में सुरक्षा का भाव निर्माण कर रहे हैं. संघ के स्वयंसेवक सेवा के द्वारा समाज में स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता, समरसता का भाव निर्माण करने का प्रयत्न कर रहे हैं. सेवा की आड़ में मतान्तरण का घिनौना कार्य करने वाली शक्तियों से समाज को सजक करना होगा.’ [प्रश्नोत्तरी, पृष्ठ 11]

इन पंक्तियों से साफ़ हो जाता है कि आरएसएस की समाजसेवा का अर्थ ईसाईयों के धर्म-प्रचार को रोकना है. यह कितना दिलचस्प है कि ईसाई प्रचारक ईसा मसीह की कथा सुनाकर आदिवासियों का, जिन्हें आरएसएस वनवासी कहकर जंगली प्राणी मानता  है, मतान्तरण करते हैं, [ध्यान रहे, धर्मान्तरण नहीं, अब यह अलग बात है कि मत बदलने के बाद वह धर्म भी बदल दे.] और आरएसएस के स्वयंसेवक राम और कृष्ण की कथा सुनाकर उनका मतान्तरण करते हैं. क्या दोनों ही मतान्तरण नहीं कर रहे हैं? और क्या दोनों ही आदिवासियों का आसान शिकार नहीं कर रहे हैं? लेकिन विडम्बना यह है कि यहाँ ईसाई मिशन ने अपने स्कूल-कालेजों से आदिवासियों को शिक्षित बनाया है, [गौर कीजिये, अगर रांची में सेंट जेवियर कालेज न होता, तो क्या आदिवासियों में शिक्षा का प्रकाश पहुँच पाता], वहां आरएसएस राम, कृष्ण की कथा सुनाकर और हनुमान के लोकेट बाँटकर उनका मतान्तरण हिंदुत्व में कर रहा है, जबकि हकीकत में आदिवासी समुदाय का हिन्दूधर्म से कुछ भी लेनादेना नहीं है, क्योंकि वह धर्म-विहीन या विधर्मी समुदाय नहीं है, उसके पास  अपना मौलिक ‘सरना’ धर्म है, जो प्रकृति-पूजक है. आरएसएस और ईसाई दोनों ही उसे उसके मूल धर्म से  विलग करने में लगे हुए हैं. लेकिन आदिवासियों को ईसाई मिशन से कोई खतरा नहीं है. खतरा सिर्फ आरएसएस को ईसाईयों से है. आरएसएस के लिए ईसाई मिशन इतना बड़ा खतरा है कि उसने यह जानते हुए भी कि आदिवासी समुदाय हिन्दू नहीं है, उसे जबरन हिन्दू बनाने पर तुला हुआ है, क्योंकि उसे एक विशाल हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त रूप देना है. इसलिए आरएसएस की गिद्ध-दृष्टि हमेशा आदिवासियों पर रहती है. उसकी कई सौ संस्थाएं उन्हें हिन्दू बनाने के लिए आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रही हैं.

इस सम्बन्ध में श्री सन्त राम बी. ए. ने 1948 में अपनी पुस्तक ‘हमारा समाज’ में हिन्दू संगठनों को बहुत करार जवाब दिया है. उन्होंने लिखा है—

‘आज ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध हिन्दू समाचार-पत्र बड़ा हो-हल्ला मचा रहे हैं कि वे अछूतों और आदिवासियों को लालच देकर हिन्दू धर्म से पतित कर रहे हैं और कि इन मिशनरियों को यूरोप और अमेरिका से करोड़ों रुपया आ रहा है. इन मिशनरियों के धर्मप्रचार को बंद करा देने के लिए इन पर विदेशों के गुप्तचर और राजनीतिक उपद्रवी होने का भी आरोप लगाया जाता है. परन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या केवल भारत के हिन्दू शूद्र ही निर्धन हैं? क्या भारत में रहने वाले साढ़े चार करोड़ मुसलमान, यहूदी, पारसी और अरब तथा ईरान आदि देशों के सभी मुसलमान क्या लखपति हैं? उनमें रूपये के जोर से ईसाई मिशनरियों को सफलता क्यों नहीं होती? इंग्लॅण्ड के लोग भी ईसाई हैं और जर्मनी के भी. फिर इंग्लॅण्ड के ईसाई देश-द्रोह कर के इंग्लॅण्ड की अपेक्षा जर्मनी पर अधिक प्रेम क्यों नहीं करते? भारत में मुसलमानों और ईसाईयों की देशभक्ति पर ही हिन्दुओं को क्यों संदेह होने लगता है? ऊँचे वर्ण के हिन्दुओं का तो इस बात में हित हो सकता है कि अछूत और सछूत शूद्र तथा आदिवासी हिन्दू कहलाते हुए उनके दास बने रहें, परन्तु इन शूद्रों और आदिवासियों का हिन्दू कहला कर उच्च वर्ण के हिन्दुओं का दास बने रहने में क्या हित हो सकता है? यदि ये लोग ईसाई या मुसलमान बनकर अपने मानवता के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों धर्मान्तरण न करें, वे क्यों हिन्दू धर्म से चिमटे रहें? जातपांत के कारण ही रामचन्द्र से लेकर राणाप्रताप तक कोई भी हिन्दू महापुरुष आदिवासियों को नागरिकता के समान अधिकार देकर सहस्रों वर्ष में बराबर के भाई नहीं बना सका.’ [पृष्ठ 216-17]

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