RSS ने ‘सुधर जाने’ और राजनीति से दूर रहने का वादा तोड़ पटेल को धोखा दिया !

जिस सरदार सरोवर बाँध पर विश्व की सबसे बड़ी प्रतिमा के रूप में सरदार पटेल को पीएम मोदी ने स्थापित करते हुए लौहपुरुष की ‘उपेक्षा के इतिहास’ को दुरुस्त करने का ऐलान किया, वह ‘सरदार सरोवर’ किसी और ने नहीं पहले जवाहरलाल नेहरू की कल्पना का नतीजा है। नर्मदा बाँध पर बने उस विशाल सरोवर का नाम ‘सरदार’ के नाम पर करने का फ़ैसला भी उनका ही था। 5 अप्रैल 1961 को उन्होंने ही इसकी आधारशिला रखी थी।

और प्रतिमाओं को विचारों से नहीं ऊँचाई से नापने वालों (जितनी ऊँची प्रतिभा, उतनी ऊँची प्रतिमा जैसा नारा इसी फूहड़पन का प्रतीक है) को शायद यह जानकर अचरज हो कि गुजरात में सरदार पटेल के जीते जी ही उनकी एक प्रतिमा लगाई गई थी। गोधरा में लगाई गई इस प्रतिमा का अनावरण किसी और ने नहीं पं.नेहरू ने किया था। वही नेहरू, जिन्हें पटले के ख़िलाफ़ बताने के लिए शाखामृगी मशीनरी रात-दिन लगी हुई है। यह बात छिपाई जा रही है कि सरदार पटेल ने ही आरएसएस पर  प्रतिबंध लगाते हुए उसे गाँधी जी की हत्या का ज़िम्मेदार बताया था। और जिन शर्तों के साथ प्रतिबंध हटा, उसका कभी सम्मान नहीं किया गया।

वैसे, पूछा तो यह भी जा सकता कि पटेल स्वयं को गाँधी की एड़ी बराबर भी नहीं मानते थे, तो फिर गाँधी की प्रतिमा बनेगी तो कितनी ऊँची होगी या होनी चाहिए? या कि गाँधी की ऐसी प्रतिमा गुजरात में लगाने का विचार मोदी जी को क्यों नहीं आया? क्या इसलिए कि पटेल के नाम पर उत्तर भारत के ओबीसी को एकजुट करने की योजना है, जबकि गाँधी उनके किसी काम के नहीं?

दरअसल, 15 दिसंबर 1950 को पटेल के निधन के बाद से उनकी एक ऐसी छवि बनाने की कोशिश की गई जैसे वे गाँधी या नेहरू के सपनों से अलग किस्म के भारत का सपना देखते थे। महात्मा गाँधी की हत्य़ा के बाद आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को भी उनकी मर्ज़ी नहीं, बल्कि नेहरू की मर्ज़ी बताकर, ख़ासतौर पर प्रचारित किया गया।

जबकि हक़ीक़त बिलकुल उलट है। हक़ीक़त तो ये हैं कि आरएसएस ने राजनीति में शामिल होकर सरदार पटेल के साथ किए गए वादे को तोड़ा है। पटेल ने संघ की ‘विनाशकारी ’ प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए उस पर, राजनीति से दूर रहने समेत तमाम क़िस्म की शर्तें लगाईं थीं, ताकि वह देश के राजनीतिक परिदृश्य को ‘विषाक्त’ न कर सके।

संघ की ओर से अक़्सर कहा जाता है कि पटेल ने उस पर लगाया प्रतिबंध हटा लिया था। पर क्या यह यूँ ही हटा था। संघ 4 फरवरी 1948 गैरकानूनी घोषित हुआ और 11 जुलाई 1949 प्रतिबंध हटा। इस बीच बहुत कुछ घटा।

महात्मा गाँधी की हत्या के बाद पटेल के निशाने पर आए आरएसएस 1925 में गठित हुआ था लेकिन न कोई संविधान था और न सदस्यता रसीद। प्रतिबंध हटाने के लिए उसने खुद को सांस्कृतिक कामकाज तक सीमित रखने और अपना संविधान बनाने का आश्वासन दिया। 11 जुलाई 1949 प्रतिबंध हटाने का एलान करने वाली भारत सरकार की विज्ञप्ति में कहा गया –

“ आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में, भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट कर दिया जाएगा। यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि हिंसा करने या हिंसा में विश्वास करने वाला या गुप्त तरीकों से काम करनेवाले लोगों को संघ में नहीं रखा जाएगा। आरएसएस के नेता ने यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान जनवादी तरीके से तैयार किया जाएगा। विशेष रूप से, सरसंघ चालक को व्यवहारत: चुना जाएगा। संघ का कोई सदस्य बिना प्रतिज्ञा तोड़े किसी भी समय संघ छोड़ सकेगा और नाबालिग अपने मां-बाप की आज्ञा से ही संघ में प्रवेश पा सकेंगे। अभिभावक अपने बच्चों को संघ-अधिकारियों के पास लिखित प्रार्थना करने पर संघ से हटा सकेंगे।..इस स्पष्टीकरण को देखते हुए भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि आरएसएस को मौका दिया जाना चाहिए। ”

इस विज्ञप्ति से साफ है कि संघ पर किस तरह के आरोप थे और भारत सरकार को उसके बारे में कैसी-कैसी सूचनाएं थीं। वह भारतीय तिरंगे तक का सम्मान नहीं करता था। लेकिन प्रतिबंध हटाना शायद लोकतंत्र का तकाजा था और इसके सबसे बड़े पैरोकार तो प्रधानमंत्री नेहरू ही थे।

गाँधी जी की हत्या ने दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया था जिसकी जिम्मेदारी गृहमंत्री के नाते सरदार पटेल के पास थी। तमाम तथ्यों को देखते हुए उन्होंने माना कि गाँधी की हत्या में आरएसएस का भी हाथ है और 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया। 11 सितंबर 1948 को पटेल ने आरएसएस के सरसंघचालक एम.एस.गोलवलकर को पत्र लिखा कि-

‘हिंदुओं को संगठित करना और उनकी सहायता करना एक बात  है, लेकिन अपनी तकलीफों के लिए बेसहारा और मासूम पुरुषों, औरतों और बच्चों से बदला लेना बिल्कुल दूसरी बात….इसके अलावा ये भी था कि उनके कांग्रेस विरोध ने, वो भी इस कठोरता से कि  न व्यक्तित्व का ख्याल, न सभ्यता का, न शिष्टता का,  जनता में एक प्रकार की बेचैनी पैदा कर दी। इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे, हिंदुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए आवश्यक न था कि जहर फैले। इस जहर का फल अंत में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी। सरकार व जनता की रत्ती भर सहानुभूति आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके खिलाफ ही गई। गांधी जी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया और मिठाई बांटी, उससे यह विरोध और भी बढ़ गया। इन हालात में सरकार को आरएसएस के खिलाफ कदम उठाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था।’

गौर कीजिए, सरदार पटेल के मुताबिक गांधी जी की हत्या के बाद संघवालों ने मिठाई बाँटी और प्रतिबंध के अलावा कोई चारा नहीं था। जाहिर है, सरदार पटेल नेहरू की जबान नहीं बोल रहे थे, अपना मन खोल रहे थे। बौतर गृहमंत्री उन्हें देश भर से खुफिया जानकारियां मिलती थीं। यही नहीं सरदार पटेल ने 18 जुलाई 1948 को हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी एक पत्र लिखकर बताया कि प्रतिबंध के बावजूद आरएसएस बाज़ नहीं आ रहा है। उन्होंने लिखा—

“ जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा की बात है, गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है और मुझे इसमें इन दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ नहीं कहना। लेकिन हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि  करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका। मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अतिवादी भाग षड़यंत्र में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां, सरकार और राज्य-व्यवस्था के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा थीं। हमें मिली रिपोर्टं बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं। दरअसल, समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली अधिक उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है। ”

ज़ाहिर है, पटेल के नाम का जमकर इस्तेमाल करने वाले आरएसएस ने उनकी मौत के बाद उनसे किए गए वादे को कोई तवज्जो नहीं दी। राजनीति में उसने इस क़दर भाग लिया कि तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्री से लेकर भारत का प्रधानमंत्री कौन बनेगा, बीजेपी के सत्ता पाने पर वही तय करता है। पहले जनसंघ और फिर बीजेपी बनाकर उसने साफ़ कर दिया कि राजनीति न करने का उसका वादा महज़ रणनीति थी और उसने ऐसा करके पटेल की आँख में धूल झोंकी थी। सरसंघ चालक का चुनाव आज भी नहीं होता बल्कि उत्तराधिकारी की घोषणा की जाती है।

आरएसएस को पूरा हक है कि वो अपने विचारों को ही अंतिम सत्य माने और वैसी ही दुनिया बनाने की कोशिश करे। लेकिन उसे ये हक नहीं कि जीवन भर गांधीवादी रास्ते पर चलने वाले सरदार पटेल को अपने फायदे के लिए भगवा चोला पहना दे। सरदार पटेल जीवन भर हिंदू राष्ट्र के विचार के सख़्त ख़िलाफ़ थे, जिसकी घुट्टी संघ की शाखाओं में प्रवेश के साथ ही पिलाई जाती है। शायद वो भूल गया है कि कुछ झूठ ऐसे भी होते हैं जो सौ बार नहीं हजार बार बोले जाएं तो भी सच नहीं हो सकते।

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।

 



 

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