पंकज चतुर्वेदी
विष्णु खरे में श्रेष्ठ कविता को लेकर एक दुर्लभ और असमाप्य क़िस्म का लगाव था। इसीलिए कमतर रचनाशीलता और उसके अभ्यासी, महत्त्वाकांक्षी एवं दुराग्रही कवियों को वह बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। उनकी आलोचना एक संजीदा, बारीक विश्लेषण, समुज्ज्वल आक्रोश और अप्रत्याशित साहस से समृद्ध और धारदार थी। मूल्यों के पतन की किसी भी चेष्टा पर वह निर्मम और निर्भय कशाघात करते थे। इस प्रक्रिया में ऐसा नहीं कि वह हमेशा सही रहे हों या उनसे थोड़ी-सी अतियाँ और अन्याय न हुए हों। मगर जिनकी नाजायज़ महत्त्वाकांक्षा के लिए उनकी आलोचना या उपस्थिति मात्र वज्रपात की तरह थी, उन्होंने बड़ी चालाकी से इन्हीं ग़लतियों को रेखांकित करके उनकी एक नकारात्मक-सी छवि निर्मित और प्रचारित की और उनके रचनात्मक एवं वैचारिक अवदान के बेशक़ीमत पक्षों की सायास और भरसक उपेक्षा की। नतीजतन अपनी कविता और आलोचना में उन्होंने जो जोखिम उठाये, उनकी क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ी। उन्हें अपने प्रियजनों एवं पाठकों, ख़ास तौर पर कवि बिरादरी से आत्यंतिक महत्त्व, सम्मान और आत्मीयता मिली, मगर शायद साहित्य संसार में उन्हें वह केन्द्रीयता और शीर्षस्थानीयता हासिल नहीं होने दी गयी, जिसके कि वह वास्तव में अधिकारी थे और हिंदी की तमाम प्रतिष्ठित संस्थाओं-अकादमियों-पत्रिकाओं-
विष्णु जी की शख़्सियत ऐसी थी कि लोग उनसे या तो प्यार करते थे या डरते थे। अपने निर्भ्रांत, दो-टूक और बेधक वक्तव्यों की बदौलत बीच की कोई स्थिति वह रहने नहीं देते थे और इससे जो ईमानदारी या पारदर्शिता उन्होंने अर्जित की थी, अपनी उस प्रतिष्ठा का उन्हें ज़रा सुख और गौरव भी महसूस होता था। मगर उनके काम में ऐसी अपरिहार्यता है कि निजी वजहों से नापसंद किये जाने के बावजूद उसकी अवज्ञा नहीं की जा सकती। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट उनके प्रिय कवियों में-से थे और उन्होंने एक कविता लिखी है ‘एक चीनी शेर की नक़्क़ाशी को देखकर।’ शायद यह काव्य-न्याय ही है कि जब भी साहित्य-प्रेमियों को विष्णु खरे का ध्यान आयेगा, ब्रेष्ट की यह रचना याद ज़रूर आयेगी :
“तुम्हारे पंजे देखकर
डरते हैं बुरे आदमी
तुम्हारा सौष्ठव देखकर
ख़ुश होते हैं अच्छे आदमी
यही मैं चाहूँगा सुनना
अपनी कविता के बारे में।”
उनकी एक कविता, जो मुझे सर्वाधिक प्रिय है, वह है ‘एक कम।’ आज न जाने क्यों यह घुमड़-घुमड़कर मेरे चित्त पर छा जा रही है, क्योंकि इसके लहजे में ही वह बात है, जिसके चलते मुझे बराबर यह लगता रहा है कि इसके बयान में भारत के सर्वहारा की ही नहीं, स्वयं कवि की आपबीती भी शामिल है। यह जितनी वस्तुनिष्ठ, उतनी ही मर्मस्पर्शी, अंततः स्तब्ध कर देनेवाली रचना है, ख़ुद उनकी ही ज़िंदगी की तरह। सच तो यही है कि विष्णु खरे ने जीते-जी साहित्य संसार में ‘अपने को हटा लिया था हर होड़ से’, इसलिए अब जबकि वह नहीं हैं, हम कम-से-कम उस एक अप्रतिम कवि के न होने के अवसाद से घिरे तो रह ही सकते हैं और मुमकिन हो, तो सत्यनिष्ठा की जो राह उन्होंने दिखायी है, उसका यथाशक्ति अनुसरण करते हुए :
एक कम
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1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीक़ों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है
कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है
मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज़
लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी
या ग़ुस्से पर आश्रित
तुम्हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो
(रघुवीर सहाय पता नहीं क्यों इस कविता को साग्रह सुनते थे, इसलिए
उन्हीं की स्मृति को समर्पित)
(‘सब की आवाज़ के पर्दे में’, राधाकृष्ण प्रकाशन,
नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण : 2000, पृष्ठ 64)