ओ भारतमाता के लाड़ले सपूत ‘बन्ने मियाँ,’ हम तुम्हें प्रणाम करते हैं!

हिंदी के वरिष्ठ लेखक और आलोचक डॉ.कर्ण सिंह चौहान आजकल फ़ेसबुक पर  45 साल पहले आयोजित हुए लेखकों के मशहूर  ‘बाँदा सम्मेलन’ का संस्मरण लिख रहे हैं। यह सम्मेलन हर रंग के प्रगतिशीलों को संगठित करने की दिशा में एक प्रयास था जसे बाँदा निवासी, हिंदी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ अग्रवाल ने डॉ.रणजीत और स्थानीय सी.पी.आई. के सहयोग से आयोजित किया था। फ़रवरी 1973 में आयोजित इस दो दिवसीय सम्मेलन में सौ से ज़्यादा महत्वपूर्ण लेखकों ने हिस्सा लिया था। इसमें सज्जाद ज़हीर भी शामिल हुए थे जिन्हें प्रगतिशील लेखक संघ के गठन जैसा महान प्रयास करने का श्रेय जाता है। सम्मेलन के बहाने डॉ.चौहान ने सज्जाद ज़हीर उर्फ बन्ने भाई की याद  में जो लिखा है, उसे संजोकर रखना ज़रूरी है- संपादक

 

ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद!

(डॉ.कर्ण सिंह चौहान)

बाँदा सम्मेलन की स्मृति आज जब लिखने बैठा तो सुबह से मन में घुमड़ रही फैज़ अहमद फैज़ के शेर की ये लाइन स्वयं को लिखवाने को विवश करती रही । इस स्मृति से इसका कोई सीधा ताल्लुक नहीं है, फिर भी लगता रहा कि कहीं कुछ तो है ।

बाँदा में हमारे समय के कितने ही महत्वपूर्ण लोग आए थे जिन्हें हमने पहले भी सुना था, वहाँ भी सुना और बाद में काफी दिनों तक वे हमारी पातों में रहे या हैं । केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन, धूमिल, खगेंद्र, विजेंद्र, शिवकुमार । लेकिन जो तीन बड़ी हस्तियाँ वहाँ मौजूद थीं जिनके प्रति सचमुच हम से बड़ा अपराध हुआ था । वे थे – सज्जाद ज़हीर, शिवदान सिंह चौहान और मन्मथनाथ गुप्त ।

हम अपनी राजनीतिक दलगत खेमेबंदियों और संकीर्णताओं या तात्कालिक तकाजों या शायद नए जोश के चलते उनकी वहाँ उपस्थिति को न ठीक से समझ पाए, न उनके प्रति आवश्यक सम्मान जता पाए । यह उस अपराध-बोध को लगातार जीने का वायस तो है ही आगे के लिए सबक भी है कि आवेश चाहे जितना घनघोर क्यों न हो ऐसे अपराध न हो पाएं तो अच्छा ।

यह टीस इसलिए और अधिक सालती है कि यह केवल बाँदा की, एक सम्मेलन की कहानी नहीं है लगातार चलते कटु संवाद की कहानी है । इस तात्कालिक सरोकार जन्य कटुता में इतिहास के गरिमामय का भी मटियामेट करते चलते हैं और ऐसा करने पर फूले नहीं समाते ।

इसलिए बाँदा सम्मेलन की स्मृति में उसे लाना और बार-बार लाना दिल पर पड़े एक बोझ को कहकर कुछ कम करने जैसा है ।

अपनी संकीर्ण प्रतिबद्धताओं और प्रतिद्वंद्विताओं और पूर्वाग्रहों के चलते न इनकी उपस्थिति की उष्मा का अहसास किसी को हुआ, न उनके विचारों और अनुभवों का प्रकाश किसी ने लिया । यही नहीं, उनके प्रति हुई अवमानना के अपराध से वहाँ उपस्थित रहा कोई लेखक शायद ही कभी मुक्त हो पाए । यह दिल पर रखा एक ऐसा बोझ है जो न कहने से कम होता है, न रोने से ।

“बन्ने मियाँ” सज्जाद ज़हीर

उनके बारे में आम हिंदी के लेखक की बात तो छोड़िये प्रगतिशील लेखकों में से भी अधिकांश इतना ही जानते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी । आज उनका विस्तार से परिचय देना जरूरी लग रहा है ।

लखनऊ के पास एक छोटे से गाँव में 1905 में जन्मे सज्ज़ाद ज़हीर अवध के कोर्ट में जाने-माने मुख्य न्यायाधीश सैयद वज़ीर हुसैन की सात संतानों में से एक थे। उनका विवाह अजमेर में जन्मीं उर्दू की लेखक रज़िया से हुआ। उनके परिवार के कई लोग देश–विदेश में महत्वपूर्ण पदों पर थे और उनके भतीजे नूरुल हसन तो कांग्रेस सरकार में लंबे समय तक शिक्षा मंत्री रहे ।

ज़हीर की प्रारंभिक शिक्षा तो भारत में हुई लेकिन बैरिस्टरी लंदन से की जिसके लिए वे 1927 से 1935 तक लंदन में रहे ।

ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि, भारतीय राजनीति और प्रशासन में इतने संपर्कों और प्रभावों, इतनी शैक्षणिक योग्यताओं के चलते उनके लिए तथाकथित जीवन की सफलता का कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं था। वे स्वयं एक अच्छे लेखक थे जिन्होंने शुरूआत के दिनों में ही “लंदन की एक रात” जैसा उपन्यास लिख दिया था।

लेकिन व्यक्तिगत कैरियर और सफलता के रास्तों को छोड़ लंदन में ही उन्होंने अपने लिए एकदम नया क्रांतिकारी रास्ता चुन लिया और फिर जीवन भर उसी पर चलते रहे ।

अपनी प्रकाशित पुस्तक ‘रोशनाई’ में उन्होंने लंदन के अपने दिनों और प्रगतिशील लेखक संगठन के लिए रात-दिन के अनथक प्रयासों की जो कहानी कही है, वह रोमांचित करने वाली है ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि जिस प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणापत्र की शुरूआत लंदन में 1935 के दिनों से मानी जाती है, उसका श्रीगणेश 1933 में उर्दू में “अंगारे” नाम के प्रकाशित कहानी-संग्रह से हुआ जिसमें उर्दू के प्रगतिशील लेखकों की नौ कहानियाँ थीं । सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया जिसपर लंबी बहस चली और प्रगतिशील संगठन का विचार इस बहस से पुख्ता हुआ ।

1935 में भारत लौटकर आए सज्ज़ाद ज़हीर के प्रयासों का ही नतीज़ा था कि संघ के प्रस्तावित घोषणापत्र पर नेहरू समेत कितने ही अन्य क्षेत्रों के प्रसिद्ध लोगों के हस्ताक्षर थे। प्रेमचंद चाह्ते थे कि इस सम्मेलन की अध्यक्षता जाकिर हुसैन, माणिकलाल मुंशी या जवाहरलाल नेहरू से कराई जाय । लेकिन सज्ज़ाद ज़हीर ने प्रेमचंद को ही चुना। अप्रैल 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम सम्मेलन संपन्न हुआ और संगठन सभी भारतीय भाषाओं में लगातार व्यापक होता चला गया ।इसके लिए सज्ज़ाद ज़हीर ने कितना क्या-क्या किया होगा यह वे लोग तक जानते हैं जो एक छोटी सी स्थानीय इकाई के लिए ही हलकान हो जाते हैं ।

स्वाधीनता मिलने और देश का बँटवारा होने पर सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान चले गए और फैज़ अहमद फैज़ के साथ वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखी । पाकिस्तान में उन्हें रावलपिंडी षढ़यंत्र मामलों में जेल में डाला गया और वहाँ से 1954 में देश निकाला देकर वापस भारत भेज दिया । जहाँ फिर से वे अपने कामों में लग गए ।

तो संक्षेप में ये थे सज्जाद ज़हीर ।


हालाँकि जिस प्रगतिशील लेखक संघ को सज्जाद ज़हीर ने अपना जीवन देकर खड़ा किया था वह 1958 तक आते-आते पूरी तरह बिखर गया था । लेकिन वे हार मानने वालों में से नहीं थे। जहाँ भी उन्हें नई सुगबुगाहट दिखाई देती वे सब काम छोड़ वहाँ पहुँच जाते। 1973 में जैसे ही फिर से साहित्य संगठन के निर्माण की एक क्षीण सी आशा दिखाई पड़ी तो वे वहाँ आए और नए लोगों से मिली उपेक्षा, अवमानना के बावजूद चुपचाप सब सुनते-देखते रहे ।

हमने उन्हें दलगत राजनीतिक संदर्भ में देख अपना व्यवहार तय किया था । हम यह भूल गए कि ये वे लोग हैं जिन्होंने देश के लिए, समाज के लिए, उसके भूखे-दूखे जन-जन की मुक्ति के लिए अपना जीवन समर्पित किया था । इसके लिए ही उन्होंने एक दल को, एक राजनीति को, एक विचार को, एक संगठन को अपने सत्कर्म और समर्पण का माध्यम बनाया था । वह अनेक माध्यमों में से एक ही था उससे ज्यादा कुछ नहीं । हमने उस माध्यम को उनकी संपूर्ण पहचान में बदल दिया । इसीलिए वह सब हुआ जो नहीं होना चाहिए था । इसका अफसोस जीवन भर रहेगा ।

आज चार ढंग की कविताएं लिखकर हिंदी का लेखक अपने को नोबल का अधिकारी समझने लगता है, बिना जीवन और सड़क पर संघर्ष किए बोलकों के मंचों पर क्रांतिकारी जुमले फेंक हर तीसरा लेखक अपने को क्रांतिकारी पद पर सुशोभित कर लेता है, दो किताब लिखकर चाहते हैं कि उनपर धड़ाधड़ शोध शुरू हो जाएँ ।

ऐसे में सज्जाद ज़हीर जैसे लोगों का होना एक राहत और नजीर की तरह है ।

बाँदा सम्मेलन के कुछ महीने बाद सितंबर 1973 में हमने इस महान हस्ती को खो दिया ।

उनका इस तरह जाना उन सब लोगों को कितना साल गया होगा जिन्होंने कुछ ही दिन पहले उन्हें देखा था और उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया था ।

ओ भारतमाता के लाड़ले सपूत ‘बन्ने मियाँ’ हम तुम्हें प्रणाम करते हैं ।

 



 

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