ईरानी क्रांति@ 40: इन्क़लाब या मज़हब की आड़ में लूट की छूट देने वाला तख़्तापलट !

व्यवस्था परिवर्तन ( सिस्टम ) और सत्ता परिवर्तन ,दो अलग अलग राजनीतिक -आर्थिक हस्तक्षेप हैं. इस्लामी क्रांति के बाद ईरान में भी कुछ ऐसा ही घाटा है.

रामशरण जोशी


 “ दुनिया के उत्पीडित उन बातों को स्वीकार  करने से मना करदें जिन्हें वे माज़ी में स्वीकार करते रहे हैं. आज, महा शक्तियों  को चाहिए कि वे राष्ट्रों को सुनें .इसलिए .. हमें दुनिया के लोगों  को बताना होगा की अब पुराना ज़माना बदल चूका है. मज़लूमों को अब खड़े होना  और आततायी से प्रतिशोध लेना चाहिए .यह किया जा सकता है.” ( इमाम खोमैनी , 28.2.1984 )

शिया सम्प्रदाय प्रधान ईरान  में धर्मगुरु सय्यद रूहोल्लाह मुसावी उर्फ़  अयातुल्ला खोमैनी के नेतृत्व में हई ‘इस्लामी क्रांति’ ने  अपनी आयु के चालीस बरस पूरे कर लिए हैं. ईरान के शाह वंश के अंतिम शासक मोहम्मद रज़ा पहलवी उर्फ़  आर्य मेहर शाह की करीब तेरह वर्ष पुरानी हुकुमत के खिलाफ सफलतापूर्वक हुई इस क्रांति के साथ ही  स्थापित ईरानी इस्लामी गणतंत्र उर्फ़ इस्लामी निजाम के भी चार दशक पूरे हो चुके हैं. इस चार दशकीय सफ़र में क्रांति अपने लक्ष्यों  और इस्लामी गणतांत्रिक राज्य इसकी भावना और लक्ष्यों को उपलब्धियों में रूपांतरित करने में कितने सफल रही है,यह सवाल इक्कीसवीं सदी के ईरानी के दिमाग में  कोंधना स्वाभाविक है. इस क्रांति के साथ वैचारिक सहानभूति रखने वाले गैर -ईरानियों का सामना भी इस सवाल से जब-तब होता है.पिछले साल नवम्बर की तेहरान यात्रा के  दौरान यही सवाल रह-रह कर मेरे मस्तिषक पर दस्तक देता रहा; पूछता रहा कि क्या इमाम खोमैनी का ईरान बन सका ? क्या क्रांति के दावेदार एक समतावादी इस्लामी निजाम कायम कर सके ?, क्या इस्लामी क्रांति  और आधुनिक युवा ईरानियों के बीच व्याप्त अंतर्विरोधों का समाधान किया जा सका ?, क्या इस धार्मिक क्रांति के विरुद्ध सामजिक-आर्थिक -राजनीतिक क्रांति संभव है ? इस सदी के ईरानियों से मुठभेड़ के बाद ऐसे ही कई सवाल झकझोरते रहे इस लेखक को.कुछ के  संकेत तेहरान से लौटकर जनवरी में प्रकाशित दो लेखों में मैं दे चुका हूँ. (इस लेख के अंत में दोनों लेखों का लिंक है जिसे क्लिक करके पढ़ सकते हैं।)

आखिर किस पृष्ठभूमि में इस  इस्लामी क्रांति का आगाज़ हुआ था, इसे जानना ठीक रहेगा. 1967 से  ईरान में शाह की हुकूमत थी. एक तरफ शाह बेहद आधुनिक,धर्मनिरपेक्ष ,पश्चिम-अमेरिका परस्त और पूंजीवादी,  दूसरी तरफ बेहद अधिनायकवादी,राज्य आतंकवादी और छद्म लोकतंत्रवादी थे. राजधानी तेहरान और दूसरे शहर चरम उपभोक्तावादी टापू   बन चुके थे. शहरों में चकलाघरों का बोलबाला था. विलासतामयी जीवन -शैली थी अभिजात वर्गों की . राष्ट्र की तेल-खनिज सम्पदा पर कब्ज़ा  बहु राष्ट्रीय निगमों का हो चला था.शहंशाह शाह को यूरो -अमेरिकी राष्ट्रों का संरक्षण प्राप्त था. विश्व स्तर पर शाह का यह दबदबा अलग से था.लेकिन,  समाज में विषमता फैलती जा रही थी. ग्रामीण ईरान में गुरबत का राज़ था. राज्य के जुल्मों -सितम और बढ़ती गैर बराबरी के खिलाफ जब-तब विरोध भी होते रहते थे जहाँ वामपंथी  शक्तियां सक्रिय थीं, वहीँ कट्टर मज़हबी शक्तियां भी उतनी ही सक्रिय थीं. खुद खोमैनी 1963 से साम्राज्यवाद , पश्चिम परस्त आधुनिकता और शाह के अत्याचारों के खिलाफ विभिन्न मोर्चों पर  सक्रिय थे. जब उनका प्रतिरोध एक राजनीतिक जनशक्ति की शक्ल लेने लगा तो उन्हें ईरान छोड़ना पड़ा और फ्रांस में शरण लेनी पड़ी. देश से अनुपस्थिति के बावजूद , उनके अनुयायी शाह के खिलाफ संघर्ष करते रहे. इस संघर्ष में  अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियां भी शिरकत करती रहीं.

इस लड़ाई में  वामपंथी शक्तियां  काफी गोलबंद थीं.मान सकते हैं , साम्राज्यवाद,उपनिवेशवाद ,पूंजीवाद  और पश्चिमोन्मुख आधुनिकता के विरुद्ध धर्म की यह दिखावटी प्रगतिशील भूमिका थी. शायद इसलिए वामपंथी, लोकतान्त्रिक दलों,समूहों  और बुद्धिजीवियों ने खोमैनी अनुयायियों का अपना समर्थन भी दिया. अधिनायकवादी शाह के खिलाफ मोर्चाबंदी की, ईरानियों को गोलबंद किया,आन्दोलन चलाये, और जेलें भरीं. काफी  लोग मारे भी गए. १९७८ से शरू हुई क्रांति १९७९ में परवान चढ़ी. शाह के सैनिकों ने भी अपने आततायी शासक के खिलाफ बगावत करदी. हिंसा का दौर शुरू हुआ. और अंततः रज़ा पहलवी की हुकूमत का पतन हो गया. शाही  परिवार को देश से भागना पड़ा. इसके साथ ही इस्लामी क्रांति सफलतापूर्वक अस्तित्व में आई. क्रांति के नाम पर मजहब का परचम बुलंद हुआ और इसके साथ ही अन्य सहयोगी परिवर्तनकामी शक्तियों को हिंसात्मक ढंग से  हाशिये पर फेंक दिया गया. पेरिस से खोमैनी की वापसी हुई और मज़हबी अंधभक्ति की नयी इबारत लिखी जाने लगी.इसीलिए नए शासक मुल्लाहों ने दावा किया ‘अब मुल्ला हुकूमत करेंगे. . दस हज़ार साल तक इस्लामी गणतंत्र रहेगा.अब  मार्क्सवादी अपने लेनिन के साथ जायेंगे.हम तो इमाम खोमैनी के रास्ते पर चलेंगे.’ ( वी.एस. नायीपाल: अमोंग दी बिलिवेर्स ; पृष्ठ 56 ).तब से लेकर आज चालीस बरस तक इमाम खोमैनी के वारिसों की एकछत्र हुकुमत बदस्तूर कायम  है.

जब यह इस्लामी क्रांति हुई थी तब दुनिया में  शक्ति के दो ध्रुव – सोवियत संघ और अमेरिका थे. पूर्वी  यूरोप में साम्यवादी सरकारें थीं. माओ के उत्तराधिकारी धीरे धीरे पूंजीवादी रास्ते पर चल पड़े थे. शीत युद्ध का युग था. सोवियत संघ के निशाने पर अफगानिस्तान था. मास्को  समर्थित या समर्थक शक्तियों का प्रभाव काबुल में बढ़ रहा था. पड़ोसी देश ईरान भी इससे अछूता नहीं था. लेकिन इस्लामी क्रांति को ईरानी जनता का व्यापक समर्थन भी मिल रहा था. अंध आधुनिकता  के खिलाफ परम्परावादी शक्तियां संगठित होने लगी थीं. अंधाधुंध पश्चिमीकरण के खिलाफ आक्रोश का ज्वार फूटा पड़ा था .ब्यूटी पार्लर से उठकर आधुनिकाएं बुर्का में तब्दील होती जा रही थीं.सड़कों पर सरे आम  वेश्यालयों के मालिकों और वेश्याओं को फांसी पर चढ़ाया जा रहा था. इस्लामी क्रांति ने कुत्सित मोड़ ले लिया था; संगीत पर पाबंदी लगादी गयी थी; औरतों पर इस्लामी क़ानून -कायदे लादे जाने लगे थे. इन्क़लाबी  गार्ड सर्वत्र तैनात थे और निगरानी रख रहे थे. सागर तटों पर स्त्री-पुरुष के साथ साथ स्नान पर रोक थी.क्रांति के कुछ महीने बाद ईरान की यात्रा पर निकले नायीपाल ने अपनी पुस्तक में क्रांति के प्रभावों  को परम्परावादी बनाम आधुनिकतावादी या आस्थावादी बनाम अनास्थावादी जंग के रूप में याद किया है.

उत्तर साम्राज्यवादी -उपनिवेशवादी  और उत्तर द्वतीय विश्वव युद्ध के दौर में होनेवाली इस इस्लामी क्रांति को दुनिया ने समाजवादी क्रांति  के विकल्प के रूप में देखा था.पश्चिम के लोगों ने इसमें गहरी दिलचस्पी दिखाई थी. चूंकि फ्रांस के युवा आन्दोलन  और न्यू लेफ्ट के समय के बौद्धिक वर्ग ने इसके प्रभावों -परिणामों पर नज़र रखी थी. अरब देशों ने इसे एक धार्मिक-आर्थिक -राजनीतिक विस्फोट के  रूप में लिया. हालाँकि, पड़ोसी देश इराक शिया प्रधान देश था लेकिन उसका शासक सद्दाम हुसैन सुन्नी समुदाय से था.इसके साथ ही अमेरिका परस्त. इसलिए दोनों पड़ोसी देशों के बीच  लगभग एक दशक तक युद्ध चलता रहा. धर्म पर पूंजीवाद भारी रहा.इमाम कुछ नहीं कर सके. अमेरिका चाहता था कि क्रांति का खात्मा इसके बचपन में ही कर दिया जाए. अमेरिका के पुश्तैनी दोस्त सऊदी अरब  भी क्रांति की सफलता से भयभीत था. वह भी इसकी अकाल मृत्यु के ख्वाब देख रहा था क्योंकि वहां राजशाही थी जो कि आज तक सत्ता में बनी हुई है. इमाम खोमैनी ने बार बार अपने भाषणों में विश्व में फैले  दबे-कुचले मुसलमानों को अमेरिकी साम्राज्यशाही और पश्चिमी पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष करने का आहवान किया था. इसलिए पश्चिमी एशिया के मुस्लिम तानाशाह क्रांति से आतंकित महसूस करने लगे थे. इमाम की इस्लामी क्रांति दीर्घजीवी  न रहे, इसकी कोशिश करते रहे. ज़ाहिर है, अमेरिका की शह उन्हें मिलती रही. यही वजह है, ईरानी शासकों की नजर में अमेरिका आज भी अहम् शत्रु बना हुआ है. यह बात अलग है, आधुनिकता और पश्चिमी जीवनशैली के प्रति दीवानगी रखनेवाले  युवा और उभरते मध्य वर्ग में अमेरिका की लोकप्रियता घटी नहीं है. उनके ख्वाबों का पहला व अंतिम पड़ाव ‘अमेरिका’ ही है. प्राथमिकता की दृष्टि से धर्म दूसरे पायदान पर है.वैसे अमेरिका द्वारा लादे गए ‘ प्रतिबंधों ‘ के खिलाफ भी हैं ,लेकिन मुल्ला -मौलवी  के लिए भी कोई खास मोहब्बत नहीं मिली. संकोच के साथ, शाह के ईरानी समाज के प्रति ‘चाहत ‘ दिखाई दी. इस उभरती हुई युवा चाहत के प्रति शासक भी बाखबर हैं इसलिए इसके लिए पश्चिमी राष्ट्रों और अमेरिका को दोषी ठहराते हैं. धार्मिक और प्रशासनिक  नेतृत्व मानता है कि इन देशों ने इस्लामी क्रांति और ईरानी गणतंत्र के खिलाफ अपसांस्कृतिक युद्ध चला रखा है. नई नस्ल को पथभ्रष्ट किया जा रहा है। युवाओं में असंतोष फैलाया जा रहा है. इसलिए सोशल मीडिया पर कड़ी नजर है सरकार की. विदेशी चेनलों के  प्रसारण बाधित रहते हैं. हालाँकि , इस्लामी निजाम भी इसका जवाबी हमला देता रहता है. इस्लामी क्रांति के उद्देश्यों और मंजिल को बार बार याद कराया जाता है. इमाम के महान ईरान के खवाब और उनके उपदेशों का भरपूर प्रचार किया जाता है इमाम के चित्र हर जगह मिल जायेंगे.

अक्सर क्रांति को  तख्ता पलट,सत्ता परिवर्तन , सरकार परिवर्तन , चुनावी हार -जीत  के पर्याय के रूप में देखते हैं. ईरान में कुछ ऐसा ही हुआ. यह ठीक है  अधिनायकवादी शासक शाह का तख्ता पलट किया गया. सामान्य इरानी की राजनीतिक -आर्थिक  गतिशीलता का विस्तार हुआ.राज्य के साथ उसके नए सम्बन्ध अस्तित्व में आये. ईरान में धर्म  शासक व शासन का रोल भी निभाने लगा; धार्मिक सत्ता के साथ साथ राजसत्ता पर भी काबिज़ हुआ. पिछले  चार दशकों से ईरानी अवाम धर्म और उसके सांस्थानिक प्रतिनिधियों को एक साथ दो रोलों में देख रही है. लेकिन क्या राज्य के  आधारभूत चरित्र में गुणात्मक अंतर आया है ? क्या सम्पति सम्बन्ध बदले ? क्या जेनुइन लोकतंत्र स्थापित हो सकता? इन क्षणों में मुझे दिवंगत  प्रो. रणधीर सिंह के शब्द याद आ रहे हैं. इस सदी के पहले दशक में जब नेपाल संक्रान्ति काल से गुज रहा था और राजशाही का पतन सन्निकट दिखाई दे रहा था तब  उन्होंने एक सटीक टिप्पणी की थी. दिल्ली के राजेन्द्र भवन में आयोजित सेमीनार में नेपाल पर बोलते हुए डॉ. सिंह ने चेतावनी भरे शब्दों में कहा था कि राजशाही के  अंत और गणतंत्र के स्थापित होने से अधिक प्रसन्नता की ज़रूरत नहीं है. राजशाही के पतन से राज्य के प्रत्यक्ष चरित्र में परिवर्तन ज़रूर दिखाई देखा. वामपंथी सत्ता के सामने असली चुनौती  राज्य के सम्पति -चरित्र में आधारभूत परिवर्तन की होगी. वे इस कितना बदल पाते हैं और सदियों के विषमतावादी संबंधों को कितना समतावादी बना पाते हैं, यह देखना शेष है. व्यवस्था परिवर्तन ( सिस्टम ) और सत्ता परिवर्तन , दो  अलग अलग राजनीतिक -आर्थिक हस्तक्षेप हैं. इस्लामी क्रांति के बाद ईरान में भी कुछ ऐसा ही घटा है.

इमाम के  वरिष्ठम बहु आयामी साथी डॉ.  अयातोल्लाह बेहशती ने क्रांति के कुछ समय बाद ही कहा था कि इस्लामी गणतंत्र में  निम्नतम और अधिकतम आय के बीच सिर्फ १ से 3 का अनुपात रहेगा. उत्तर इस्लामी क्रांति के निजाम में बेहशती विभिन्न उच्च पदों पर रह चुके थे वे दार्शनिक  भी थे..दुर्भाग्य से १९८१ में उनकी हत्या कर दी गयी. एक षड्यंत्र में उनके साथ कई उच्चपदस्थ सहयोगी भी मारे गए. निश्चित ही इस हादसे से क्रांति को धक्का लगा था.   चालीस के बाद आज के ईरान में गरीब -अमीर के बीच खाई चौड़ी ही नहीं हुई है, बल्कि बढ्ती जा रही है. पिछले साल लाखों लोग सड़कों पर उतरे भी थे.मीडिया में इसका कवरेज भी हुआ था. राजधानी तेहरान में  मेरे निजी अनुभव व अवलोकन इसकी तस्दीक भी करते हैं. पिछले लेख में इसका विस्तार से वर्णन किया जा चुका है. 2017 में सरकार ने प्रति परिवार व प्रतिमास 480 अमेरिकी डॉलर निर्धारित किये थे. इस आमदनी से  गरीबी की सीमा रेखा तय की गयी थी.ताज़ा अनुमान के अनुसार 33% से अधिक यानि 2 करोड़ 60 लाख ईरानी इस सीमा तले अपना जैसे-तैसे गुज़र-बसर कर रहे हैं. करीब एक या दो प्रतिशत लोग विलासी जीवन जी रहे हैं. अनुमान है की 2025 तक  अमीरों की आबादी कई गुना बढ़ जायेगी. और लोग सीमा-रेखा तले खिसक जायेंगे.सरकार, इस सच्चाई से इनकार नहीं कर सकती. सारांश में, उत्तर शाह ईरान में सम्पति संबंधों या उत्पादन संबंधों में बुनियादी परिवर्तन करने के दावे   इस्लामी क्रांति नहीं कर सकती. यही वज़ह है, इस सदी के इस्लामी गणतंत्र ने निजीकरण -उदारीकरण का दामन मजबूती से थाम लिया है. पश्चिम के पूंजीवाद और ईरान के पूंजीवाद में अंतर है. यह बचकाना तर्क भी ईरान में इस लेखक को  सत्ताधारियों से सुनने को मिला! इस तर्क या दलील से कौन सहमत हो सकता है? निजी हाथों में पूंजी और पूंजीवाद का चरित्र समान होता है. क्योंकि उसकी बुनियाद ही शोषण पर टिकी हुई है; श्रम का दोहन और सरप्लस को हड़पना.आय व सम्पत्ति का न्यायोचित वितरण करने  के क्षेत्र में क्रांति को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है.फ़्रांसिसी क्रांति से लेकर नेपाल तख्तापलट तक, धर्म ने आर्थिक संबंधों और पूँजी व पूंजीपतियों के बुनियादी चरित्र के परिवर्तन में निर्णायक भूमिका निभायी है, इतिहास से इसकी गवाही मिलती नहीं है. दक्षिण  अमेरिका में क्रांतियाँ हुईं, लिबरेशन थियोलोजी के समर्थकों ने अकिंचित योगदान दिया ज़रूर, लेकिन अमेरिकी साम्रज्यवाद ,उपनिवेशवाद और सैन्य हस्तक्षेप के खिलाफ चले संघर्षों की कमान कास्त्रो, चे ग्वेरा, अलेंदे जैसे राजनीतिककर्मियों के पास ही रही. इंडोनेशिया, मिस्र जैसे देशों में भी यही हुआ. रूस, चीन ,विएतनाम  जैसे देश भी इस सार्विक प्रक्रिया के अपवाद नहीं हैं बल्कि अगुआ हैं.

पिछड़े समाजों में जनता को संगठित करने में धर्म-मज़हब तात्कालिक आंशिक भूमिका ज़रूर निभाता है लेकिन निर्णायक नहीं. यदि निभाता भी है तो वह संपत्ति आधारित संबंधों में आधारभूत परिवर्तन और न्यायपूर्ण संबंधों के निर्माण के प्रति उदासीन हो जाता है. वह कालांतर में  यथास्थितिवाद का शिकार हो जाता है. ईरान में इस्लामी क्रांति की यही नियति दिखाई दे रही है; यह वर्ग-विषमता को समाप्त नहीं कर सकी है; पहले शाह समर्थक अभिजात -विशिष्ट वर्ग थे अब इस्लामी क्रांति व मज़हबी पुरोहित वर्ग समर्थक व् समर्थित अमीर वर्ग हैं.नतीजतन क्रांति का मूल उदेश्य धुंधला पड़ रहा है और इस्लामी गणतंत्र और जनता के बीच अलगाव बढ़ रहा है.युवाओं  में आक्रोश है. 13 प्रतिशत बेरोज़गारी है. ईरान में धर्म यांत्रिक बन चूका है, उसकी संवेदनशीलता सूखती जा रही है. इस्लामी क्रांति के वारिस इसका इस्तेमाल ‘कमोडिटी ‘ के रूप में कर रहे हैं. यदि धार्मिक नेतृत्व ने स्वयं को नहीं बदला, शासक वर्ग उभरती सच्चाईयों के प्रति उदासीन रहते हैं तो ज़ाहिर है, यह स्थिति किसी रोज़ अपनी ‘ तार्किक मंज़िल ‘ तक पहुंचेगी. इसे पुरोहित वर्ग  रोक नहीं सकेगा.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। 

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