बहसतलब: क्या गाँधी जी भगत सिंह को बचा सकते थे ?


नरेश  बारिया  स्वदेशी

 

आज  के  दौर  का  युवा  ना  कभी  लायब्रेरी  में  जाकर  इतिहास  का  एक  पन्ना  पढ़ता  है , ना ही  कभी  कोई तथ्यों  को  सच्चाई  की  कसौटी  पर  खंगालता  है ।  बस  उसके  मोबाइल  में  जो  झूठ  किसी ने  पेश  किया  होता  है,  वो  उसी  झूठ  को  सच  मानकर  महाज्ञानी  बन  जाता  है ।  आज  के  ज़माने  में  सोशल  मीडिया  सबसे  बड़ा  झू्ठ  फैलाने  का  अड्डा  है ।  और  हैरत  की  बात  यह  है  की  ज़्यादातर  गांधीजी  के  विषय  पर  झू्ठ  फैलाने  उन्हें  गालियाँ  देने  का  काम  वो  लोग  करते  है  जो  अपने  आपको  सबसे  बड़े  धार्मिक  होने  का  दावा  करते  हैं  ।

जो  व्यक्ति  इंसान  तो  क्या  चींटी मारने  को  भी  महापाप  समझता  हो , उस  व्यक्ति  पर  भारत  के  कुछ  लोग  भगत सिंह  और  उनके  साथियों  को  मरवाने  का  आरोप  लगा  रहे  है !  गांधीजी  कभी  खूनी , चोर , लुटेरे  के  भी  फांसी  के  पक्ष  में  नही  रहे , ऐसे  व्यक्ति  पर   भगतसिंह  जैसे  देशभक्त  को  नहीं  बचाने  का  आरोप  ?  बापू  पर  ऐसे  घटिया  आरोप  लगाने वाले  किस  विचारधारा  के  हैं,  वो  कहने  की  आवश्कता  नहीं।

भगत सिंह  और  उनके  साथियों  पर  एसएसपी  जे.पी  सांडर्स  की  हत्या  का  मुकदमा  चल  रहा  था ।  सांडर्स  हत्या कांड  में  भगत सिंह  के  अपने  ही  साथी  जय गोपाल  और  हंसराज  वोहरा  ने  सरकारी  गवाह  बनकर  अदालत  में  गवाही  दी  थी । ( जब  एसेम्बली  में  बम  फोड़ा  गया  था  तब  भी  भगतसिंह  के  खिलाफ  उनके  अपने  आदमी ने  ही  गवाही  दी  थी । ) सांडर्स  हत्या  में  अंग्रेजों  की  दिखावे  की  अदालत  ने  भगत सिंह , सुख देव  और  राजगुरु जी  को  23  मार्च  1931  सुबह  7  बजे  फांसी  देने  का  हुकुम  सुनाया  था।

‘भगतसिंह  की  फांसी  रुक  सकती  थी  यदि  गांधी  चाहते  तो ‘– इस  विचार  को  फैलाने वालों  को  शायद  यह  नहीं  मालूम  की  महात्मा  गांधी  ने  खुद  का  बचाव  भी  कभी  नहीं  किया , अपने  जीवनकाल  में  जब -जब  गांधीजी  को  सज़ा  सुनाई  गई , उन्होंने  हंमेशा  अंग्रेजी  हुकुमत  से  यही  कहा  कि– ‘ हाँ , मैंने  ये  जुर्म  किया  है . . . अपने  देशवासियों  को  जगाया  है ।’  यही  नही , चौरी – चौरा  कांड  में  वो  २३  पुलिसकर्मी  (ज़्यादातर  भारतीय मूल  के )  मारे  गये  थे  तब  वो  हत्याकांड  की  सारी  ज़िम्मेदारी  गांधीजी ने  अपने  आप  पर  लेते  हुए कोर्ट  में  यह  मांग  की  कि  मुझे  कड़ी  से  कड़ी  सज़ा  दी  जाए। ‘ ( जो  व्यक्ति  हमारे  विचारों  का  नही  होता , उसका  बचाव  हम  सार्वजनिक  स्थानों  पर  तो  क्या  उनका  बचाव  हम  सोशल  मीडिया  पर  भी  नहीं  करते , मगर  फिर  भी  गांधीजी ने  भगतसिंह  का  बचाव  किया। )  क्रांतिकारीयों  में  और  गांधीजी  में  हिंसा  और  अहिंसा  के  मुद्दे  पर  मतभेद  था, मनभेद  तो  लेषमात्र  भी  न  था ।

गांधीजी  की  सोच  यह  थी  कि  क्रांतिकारी  गतिविधि  का  सामना  करने  के  लिए  अंग्रेज़  सरकार  फौजी  खर्च  बढाती  है , जो  हम  गरीबों  के  पैसों  से  वसूला  जाता  है।  इतनी  भिन्न  सोच  होने  के  बावजूद  गांधीजी  क्रांतिकारीयों को  बचाने  आगे  आए ।

सांडर्स  हत्या  और  भगतसिंह  की  फांसी  की  परिस्थितीयाँ  कैसे  निर्माण  हुई  उस  पर  नज़र  डालते  हैं —

1928  में  अंग्रेजों  ने  जॉन  सायमन  को  भारतीय  स्थिति  पर  रिपोर्ट  देने  और  राजनीतिक  सुधारों  की  सिफारिश  के  लिए  नियुक्त  किया,  जिसे  सायमन  कमिशन  से  जाना  जाता  है।  सायमन  कमिशन  भारत  के  भाग्य  का  फैसला  करने वाला  था , परंतु  आश्चर्य  तो  इस  बात  का  था  कि  इस  कमिशन  में  एक  भी  भारतीय  नहीं  था । महात्मा  गांधी ने  निश्र्चय  कर  लिया  सायमन  की  इतनी  अधिक  उपेक्षा  कर  देनी  है  कि  मानो  हमने  उनके  अस्तित्व  को  ही  नकार  दिया  हो।  गांधीजी  की  घोषणा  का  असर  ये  हुआ  कि  पूरे  भारत  में  जॉन  सायमन  को  विरोध  का  सामना  करना  पड़ा ।  जगह  जगह  काले  झंडे  दिखाए  जा  रहे  थे।  सायमन  गो  बैक , सायमन  वापस  जाओ  के  गगन भेदी  नारे  लग  रहे  थे।  गांधीजी  का  बहिष्कार  इतना  बुलंद  था  कि  उन्होंने  कमिशन  का  कभी  नाम  तक  अपनी  ज़ुबान  से  नहीं  लिया ।

इसमें  ये  बात  तो  निश्चित  थी  कि  ये  विरोध  पूरे  अहिंसक  तरीके  से  हो  रहा  था ।  अंग्रेजों  की  लाठियों  की  बौछार  से  पं०  नेहरुजी  लखनऊ  में  बुरी  तरह  घायल  हो  गए ।  लाहौर  में  बुज़ुर्ग  लालालाजपत  रायजी  पर  अंग्रेजों  ने  इतनी  बेरहमी  से  लाठियाँ  बरसाईं  की  लालाजी  वहीं  पर  शहीद  हो  गए ।  ये  नज़ारा  भगतसिंह  से  देखा  नहीं  गया।  भगतसिंह ने  लालाजी  के  चरणों  को  चूमते  हुए  लाठी  बरसाने वाले  जेम्स  स्कोर्ट  को  मारने  का  निर्णय  किया ।

क्रांतिकारीयों  ने  स्कोर्ट  को  मारने  की  रणनीति  बनाई ।  स्कोर्ट  पुलिस  स्टेशन  से  कब  बाहर  आए  उस  बात  की  जानकारी  देने का  काम  जयगोपाल  को  दिया  गया ।  मगर  पुलिस  स्टेशन  से  स्कोर्ट  की  जगह  सांडर्स  बाहर  आया  और  जयगोपाल ने  सांडर्स  को  पहचानने  में  गलती  कर  दी  और  गलत  सिग्नल  दे  दिया। भगत सिंह  कुछ  समझे  उसके  पहले  राजगुरु ने  अपनी  पिस्तौल  से  गोली  चला  दी ।  ये  देखकर  भगत सिंह ने  भी  सांडर्स  पर  गोलियों  की  बौछार  कर दी ।  इस  तरह  गलती  से  स्कोर्ट  की  जगह  सांडर्स  मारा  गया ।

ये  गलती  क्रांतिकारियों  को  मन  ही  मन  खाए  जा  रही  थी, क्योंकि  स्कोर्ट  को  मारकर  लालाजी  की  हत्या  का  बदला  लेने वाला  बैनर  क्रांतिकारीयों  ने  पहले  ही  बनाकर  रखा  था ।  सांडर्स  हत्याकांड  के  बाद  अंग्रेजों  को  चकमा  देकर  भगतसिंह , चन्द्रशेखर  आझाद  और  राजगुरु  लाहौर  से  कलकता  आने  में  सफल  रहे । उस  घटना  के  बाद  क्रांतिकारीयो ने  एक  साल  तक  कोई  गतिविधि  नहीं  की । अंग्रेज़  क्रांतिकारीयों  को  हत्यारा  कह  रही  थी।  अपने  माथे  पर  लगा  हत्यारे  का  लेबल  क्रांतिकारीयों  को  बर्दाश्त नहीं  हो  रहा  था।  वे  हत्यारे  नहीं  बल्कि  जनता  को  जागरूक  करने वाले  क्रांतिकारी  थे।  अपनी  बात  जनता  तक  पहुंचाने के लिए  भगतसिंह ने  असेम्बली  में  बम  फेंका।

यहाँ  गौर  करने वाली  बात  यह  है  कि  जान  लेने  और  जान  देने वाले  नवयुवक  इस  बार  किसी  की  जान  नहीं  जाए  ऐसी  परवाह  कर  रहे  थे ।  भगतसिंह ने  जानबूझकर  बेअसर ( अहिंसक ) बम  बनाया , वो  भी  असेम्बली  में  रिक्त  स्थान  पर  फेंका  जहाँ  पर  कोई  मौजूद  नहीं  था ।  जबकि  लालाजी  की  मौत  का  कारण  सायमन  उसी  असेम्बली  में  मौजूद  था।  भगतसिंह  चाहते  तो  बम  सायमन  पर  फैंककर  लालाजी  की  मौत  का  बदला  ले  सकते  थे  फिर  भी  भगतसिंह ने  इस  बार  मौका  होने  के  बावजूद  अहिंसक  तरीका  अपनाया ।

चाहे  जो  हो , भले  ही  क्रांतिकारी  गांधी  की  अहिंसा  को  उस  हद  तक  नही  पसंद  करते  थे , पर  इस  बात  से  इन्कार  नही  किया  जा  सकता  है  कि  अहिंसा  अपना  काम  धीरे धीरे  कर  रही  थी ।  जेल  में  भारतीय  कैदियों  के  साथ  हो  रहे  भेदभाव  के  खिलाफ  भगतसिंह ने  जो  रास्ता  चुना  वो  भी  संपूर्ण  तरीके  से  अहिंसक  ही  था , वो  था  गांधीजी  का  सबसे  बड़ा  हथियार  अनशन ।  जेल  में  मिल  रही  असुविधा  के  विषय  पर  भगतसिंह ने  बहुत  सौम्य  रूप  में  पत्र  लिखा  था।

जब  अनशन  लंबा  चला  उसमें  एक  साथी  जतिन  दास  की  मौत  हो  गई  तब  कांग्रेस  की  विनती  को  मान  देकर  भगतसिंह ने  अपना  अनशन  छोड़ा  था । गांधीजी  के  करीबी  मित्रों  में  से  एक  प्राणजीवन  मेहता  भगतसिंह जी  को  जेल  में  मिलने  गए  तब  भगतसिंह जी ने  प्राणजीवन  मेहता  से  पंडित  नेहरुजी  और  सुभाषचंद्र  का  विशेष  तौर  से  धन्यवाद  माना , क्योंकि  नेताजी  और  नेहरुजी  शुरुआत  से  ही  भगतसिंह जी  के  केस  में  रूचि  ले  रहे  थे  |  नेहरुजी ने  ही  अंग्रेज़  सरकार  से  भगतसिंह  को  राजकीय  कैदी  घोषित  करने  की  मांग  की  थी  |

भगतसिंह , सुखदेव , राजगुरु  को  7  अक्टूम्बर  1930  के  दिन  फांसी  की  सज़ा  सुनाई  गई  थी ।  मुकदमा  11  फरवरी  1931  तक  चला , फैसले  में  कोई  बदलाव  नही  आया।

दरअसल  1930 में  गांधीजी ने  नमक  सत्याग्रह  आंदोलन  किया  था ।  उस  अहिंसक  आंदोलन  की  दुनियाभर  में  चर्चा  हुयी  थी  और  उसे  अंग्रेजी  हुकुमत  की  काफी  किरकिरी  हुई ।  अंग्रेजों  ने  गुस्से  में  आकर  कांग्रेस  पार्टी  को  असंवैधानिक  पार्टी  घोषित  कर  दिया ।  कांग्रेस  के  सभी  दफ़्तरों  में  छापे  डाले  गये , गांधीजी  समेत  कई  बड़े  कांग्रेसी  नेताओं  को  जेल  में  डाला  गया ।  आजादी  की  लड़ाई  लड़ने वाली  प्रमुख  कांग्रेस  पार्टी  को  अपना  अस्तित्व  बचाना  मुश्किल  हो  गया  था ।

गांधीजी  जब  जेल  में  थे  तब  अदालत  भगतसिंह  को  फांसी  का फैसला  सुना  चुकी  थी ।  फैसले  पर  वायसराय  की  अंतिम  मुहर  लगनी  बाकी  थी । गांधीजी  जैसे  ही  26  जनवरी  1931 में  जेल  से  रिहा  हुए  उन  पर  भगतसिंह  की  फांसी  रुकवाने  का  दबाव  बन  गया । 17 फरवरी  और  5  मार्च  1931  के  दौरान  गांधीजी  का  तत्कालीन  वायसराय  इरविन  के  साथ  ऐतिहासिक  करार  चल  रहा  था ।  उस  करार  को  ” गांधी – इरविन  समझौता ”  के  नाम  से  भी  जाना  जाता  है । उस  समझौते  के  मुताबिक  गांधीजी ने  अंग्रेजों की  कुछ  शर्तें  मानकर  भारत  के  90  हज़ार  से  ज़्यादा  कैदियों  को  जेल  से  छुड़वाया  था । सभी  देश प्रेमी  ये  चाहते  थे  कि  गांधीजी  अपने  प्रभाव  का  इस्तेमाल  करके  भगतसिंह , सुखदेव , राजगुरु  को  बचाए।

समझौते  में  हिंसा  के  आरोपी  कैदियों  को  छोड़ने  के  लिए  अंग्रेज़  राज़ी  नहीं  थे।  भगतसिंह  की  फांसी  पर  वायसराय  इरविन  की  मुहर  लगनी  अभी  बाकी  थी । वैसे  भी  गांधीजी  फांसी  की व्यवस्था  में  यकीन  नहीं  रखते  थे ।  इसलिए  गांधीजी ने  वॉइसरॉय  इरविन  को  फांसी  को  उम्र कैद  में  बदलने  हेतु  18  फरवरी, 19  मार्च  और  23  मार्च  के  तीन  चिट्ठियाँ  लिखी  थीं  |  गांधीजी ने  वायसराय  के  सामने  अपनी  बात  रखते  हुए  कहा  कि  यदि  आप  फांसी  के  फैसले  को  सज़ा  में  परिवर्तित  करते  हैं  तो  आप  क्रांतिपक्ष  को  बहुत  हद  तक  शांत  कर  सकते  है।  ये  रोज़ रोज़  का  खूनखराबा  रुक  सकता  है ।  वायसराय  ने  कहा  कि  ये  मुमकिन  नही  है  क्योंकि  भगतसिंह ने  हमारे  पुलिस  ऑफिसर  की  हत्या  की  है।

इस  पर  गांधीजी ने  कहा  कि  जान  के  बदले  जान  लेना  हमे  धर्म  नहीं  सिखाता ।  वैसे  भी  फांसी  उस  व्यक्ति  को  सुधरने  का  एक भी  मौका  नही  देती  ! भगतसिंह ने  जो  किया  वो  अपनी  मानसिक  अस्थिरता  के  कारण  किया ।  वैसे  भी  कानून  कहता  है , मानसिक  अस्थिरता  वाले  को  फांसी  की  नहीं  इलाज  की  ज़रूरत  होती है ।  गांधीजी ने  ईसाई धर्म  और  प्रभु इशु  का  वास्ता  देते  हुए  कहा  कि  यदि  बच्चों  ने  अपनी  नासमझी  में  कोई  अपराध  किया  भी  है  तो  जान  लेने  का  हक  केवल  ईश्वर  को  है ।  यही  बात  प्रभु  यीशु  भी  मानते  थे ।  वायसराय  ने  फांसी  पर  नरमी  अपनाने  का  गांधीजी  को  आश्वासन  दिया  था । समझौते  के  दौरान  ये  तय  हुआ  था  कि  जेल  से  निकलने  के  बाद  कोई  भी  क्रांतिकारी  या  सत्याग्रही  ब्रिटिश  सरकार  के  विरुद्ध  काम  नही  करेगा ।   सरकार- विरुद्ध  किसी  भी  गतिविधि  में  शामिल  नही  होगा ।

किन्तु  गांधी  को  बदनाम  करने  हेतु  ” गांधी – इरविन  समझौते ”  को  ” लिजंड   ऑफ़  भगतसिंह ”  फिल्म  में  बहुत  ही  घटिया  तरीके  से  दर्शाया  गया  ! ! !  उस  वक्त  के  मशहूर  लेखक   सावरकर ने  भी  अपने  किसी  भी  पत्रक  में  भगत सिंह  की  फांसी  रद्द  करवाने  की  बात  नहीं  लिखी . . . .  उल्टा  तत्कालीन  सरसंघसंचालक  ” केशव  बलीराम  हेडगेवार जी ”  ने  अपने  मुख पत्र  में  फरमान  जारी  किया  कि  गांधी  के  सत्याग्रह  से  सभी  को  अलिप्त ( दूर )  रहना ।  हेडगेवार  ने  तो  यहाँ  तक  कह  दिया  था  कि  नौजवानों  को  भगतसिंह  जैसे  छिछोरे  देशभक्त  से  दूर  ही  रहना  चाहिए।

1920  में  ब्रिटिश  सरकार  की  ऐसी  ही  कुछ  शर्तें  मनवाकर   गांधीजी ने  लोक मान्य तिलक , वल्लभ भाई  के  बड़े  भाई  विठ्ठल भाई  पटेल और  वीर  सावरकर  की  कालापानी  की  सज़ा  रद्द  करवाने  की  मांग  की  थी । और  यही  अंग्रेजों  की  शर्तें  सावरकर ने  मान  ली  और  1921 मैं कालापानी  तथा  1924  में   जेल  से  रिहा  कर  दिए  गए । भगत सिंह  की  फांसी  रद्द  होने  की  सुगबुगाहट  को  फैलते  ही  सिविल सर्विस ऑफिसर  में  रोष  फैल  गया ।  तत्कालीन  पंजाब  के  गवर्नर  केडर ने   गवर्नर  पद  से  इस्तीफा  देने  की  धमकी  ब्रिटिश  सरकार  को  दे  दी !

ब्रिटिश  सरकार  की  गणित  के  मुताबिक़  यदि  गवर्नर  केडर  अपने  पद  से  इस्तीफा  देता  है  तो  उनके  बहुत  सारे  सहयोगी  जो  म्यांमार , अफगानिस्तान , अरब  देशो  में  ब्रिटिश  सरकार  की  नौकरीयाँ  करते  हैं  वे  सामूहिक  तौर पर  इस्तीफा  दे  सकते  हैं ।  वे  सारे  ब्रिटिश  युवक  स्वदेश  लौट  सकते  है ।  नए  युवको  को  ब्रिटेन  से  नौकरी  पर  लाना  मुश्किल  हो  सकता  है ।  गांधीजी  को  इस  बात  की  भनक  लगते  ही  वे 22  मार्च  को  वायसराय  इरविन  से  मिलने  पहुँच  गए  और  इरविन  को  अपना  आश्वासन  याद  दिलाया ।  23  मार्च  को  गांधीजी ने  वायसराय  को  चिठ्ठी  भी  लिखी  थी , चिठ्ठी  में  लिखा  था  कि  फांसी  के  फैसले  को  अनिश्चित  काल  तक  अमल  में  न  लाया  जाय । कृपया  भगत सिंह  और  उनके  साथियों  को  जीवन  का  एक  मौका  दीजिए ।  ( ये  बात  लॉर्ड इरविन  ने  अपनी  डायरी  में  लिखी  थी )

अंग्रेज़  सरकार  गांधीजी  की  हर  बात  माने  उसके  लिए  वो  बाध्य  नहीं  थी ।  वैसे  भी  अंग्रेज़  सरकार  भगतसिंह  की  फांसी  रद्द  करवाकर  गांधी  को  जनता  की  नज़र  में  हीरो  क्यों  बनाती  ?  वो  तो  आए  ही  थे  देश  में  फूट  पैदाकर  राज  करने  के  लिए  !  और  उन्होंने  यही  किया , भगतसिंह  और  उनके  साथियो  को  तय  तारीख  के  पहले ,  यानि  24 मार्च  के  पहले  २३  मार्च  शाम  7:33  को  ही  फांसी  दे  दी  . . . . !

सभी  मुद्दे  पर  अपना  नफा – नुकसान  देखने वाली  अंग्रेज़  सरकार ने  भगत सिंह  की  फांसी  से  अपना  दो  प्रकार  का  फायदा  कर  लिया  !  एक  भगत सिंह  जैसे  क्रांतिकारी  की  जान  ले  ली  और  गांधी  जैसे  सत्यवादी  को  जनता  की  नज़र  में  गिराने  की  कौशिश  की  ! अंग्रेज़  की  कूटनिति  का  परिणाम  यह  आया  की  आज  भी  कुछ  लोग  भगतसिंह जी  की  फांसी  को  लेकर  के  गांधीजी  को  दोषी  मान  रहे  है . . . .  मनगढ़ंत  आरोप  लगाकर  गांधीजी  को  बदनाम  कर  रहे  है .  ( आरोप  लगाने वाले  उन  मूर्खों  को  सोचना  चाहिए  कि  गांधीजी ने  अंग्रेजों  से  कहा  था  कि  आप  भारत  छोडकर  चले  जाइये , क्या  उसी  वक्त  गांधीजी  की  बात  मानकर  अंग्रेज़  भारत  छोडकर  चले  गये  थे  ? ? ? )

किन्तु  सच  तो  यह  है  कि  भगतसिंह  स्वयं  के  लिए  किसी  भी  प्रकार  की  क्षमा  याचना  नहीं  चाहते  थे ।  उन्हें  दृढ़विश्वास  था  कि  उनकी  शहादत  देश  के  हित  में  होगी ।  भगतसिंह  जी  स्वयं  जानते  थे  कि  जिस  रास्ते  पर  वे  चल  रहे  हैं  उसका  आखिरी  अंजाम  फांसी  ही  है ।  इसीलिए  वे  किसी  से  भी  अपने  जीवन  की आस  नहीं  रखते  थे ।  भगतसिंहजी  के  पिता  किशनसिंह जी ने  फांसी  की  सजा  रद्द  करने  की  ब्रिटिश  सरकार  से  गुहार  लगाई  तो  भगत सिंह  अपने  पिता  पर  गुस्सा  हो  गए ।  उन्होंने  अपने  पिता  को  यहाँ  तक  कह  दिया  कि  आपने  मेरी  पीठ  में  छुरा  घोंपा  है । अपने  जीवन  के  अंतिम  दिनो  में  भगत सिंह ने  अपने  साथी  कैदियों  से  कहा  था  कि  मुझे  फांसी  के  फंदे  तक  जाने  से  कोई  नहीं  रोक  सकता ।

दूसरा  सच  यह  है  कि  भगतसिंह  के  हिंसा  के  मार्ग  का  समर्थन  खुद  उनके  पिता  किशनसिंह जी  भी  नहीं  करते  थे ।  किशनसिंह जी  भगतसिंह  को  समझाते  थे  कि  हमें  गांधीजी  के  अहिंसा  मार्ग  से  अंग्रेजों  से  आजादी  लेनी  चाहिए । भगतसिंह ने  अपने  पिता  से  जवाब  में  ये  कहा  कि  गांधीजी  महान  है  उसमें  कोई  दोराय  नही  लेकिन  अंग्रेज़  जैसे  ज़ालिमो  से  अहिंसा  के रास्ते  से  नहीं  लड़ा  जा  सकता ।

लालालाजपत  राय  कट्टर  हिन्दूवादी  थे।  भगत सिंह  रूस  के  नेता  लेनिन  को  अपना  आदर्श  मानते  थे ।  भगतसिंह  ईश्वरी  शक्ति  में  विश्वास  नहीं  रखते  थे ।  वे  नास्तिक  थे ।  इस  बात  को  लेकर  भगतसिंह  के  खुद  अपने  साथियों  एवं  लालालाजपत  राय  के  बीच  स्पष्ट  मतभेद  थे।  भगत सिंहजी ने  अपने  अंतिम  दिनों  में  ”  मैं  नास्तिक  क्यों  हूँ ”  नामक  निबंध  लिखा  था ।  लालाजी ने  भगतसिंह  को  रुसी  एजंट  तक  कह  दिया  था ।  लालाजी ने  कहा  कि  ये  क्रांतिकारियों  के  नाम  पर  कुछेक  बेरोज़गारों  की  टोली  है  और  अगर  इन्हें  अभी  पचास-पचास  रुपए  की  नौकरी  दे  दी  जाय  तो  ये  लोग  सारी  देशभक्ति  भूल  जाएंगे । क्रांतिकारियों  की  सोच  भी  लालाजी  के  प्रति  कुछ  ठीक  नही  थी , क्रांतिकारियों  ने  लालाजी  को  मरा  हुआ  नेता  कह  दिया  था ।  लाहौर  की  गलियो  में  पर्चे  भी  बांटे  थे ।

गांधीजी  ने  कभी  किसी  क्रांतिकारी  को  आतंकवादी  नहीं  कहा ।  गांधीजी ने  कभी  किसी  विदेशी  कानून  का  समर्थन  नहीं  किया ।  गांधीजी  का  कोई  भी  परिवार  का  सदस्य  ” ईस्ट  इंडिया  कंपनी ”  में  काम  नही  करता  था । जो  लोग  ईस्ट  इंडिया  कंपनी  में  काम  करते  थे ,  जिन्होंने  कभी  आज़ादी  के  आंदोलन  में  कभी  भाग  नहीं  लिया ,  जिन्होंने  देश  का  तिरंगा  झंडा  फाड़  दिया  था ।  उन  लोगो  को  भी  गांधीजी  ने  कभी  देशद्रोही  या  देश  का  गद्दार  नहीं  कहा ।

जिन  लोगो ने  गांधी  के  सत्याग्रह  में  कभी  भाग  नहीं  लिया , भारत  छोड़ो  आंदोलन  के  खिलाफ  रहे , आंदोलन  की  रणनीतियाँ  अंग्रेजो  को  बताकर  आंदोलन  को  नाकामयाब  करने  की  कोशिशें  करते  रहे ।  उन्हें  भी  गांधीजीने  कभी  देशद्रोही  या  देश  के  गद्दार  नहीं  कहा ।  और  आज  कुछ  पाखंडियों  द्वारा  इतना  बड़ा  झूठ  फैलाया  जाता  है  कि  गांधीजी  ने  क्रांतिकारियों  को  आतंकवादी  कहा  था । यदि  गांधीजीने  किसी  को  आतंकवादी  या  देशद्रोही  कहा  होता  तो  आज  के  वक्त  गांधीजी  द्वारा  लगाए  गए  उन  आरोपों  से  पिंड  छुड़ाना  मुश्किल  होता  !  न्यूज़  चैनलो  में  दिनरात  चर्चा  की  होड़  लगी  होती ।

चंद्रशेखर  आज़ाद  के  ख़ुफ़िया  ठिकाने  पर  सिपाही  लाने  वाला  ना  तो  वो  कांग्रेसी  था  ना  ही  वो  गांधीवादी  था  !  वो  चन्द्रशेखर  आज़ाद  का  अपना  आदमी  ” वीरभद्र तिवारी ”  था  ! भगतसिंह  के  खिलाफ  गवाही  देने  वाले  ना  तो  वो  कांग्रेसी  थे  ना  ही  वो  गांधीवादी  थे ।  वे  दोनों  भगतसिंह  के  क्रांतिकारी  जोड़ीदार ” जय गोपाल  और  घोष बाबू ”  थे  ! बटुकेश्वर  दत्त  के  खिलाफ  गवाही  देने वाले  शोभा सिंह  और  शादी लाल  थे  जो  कांग्रेस  के  घोर  विरोधी  थे!  बटुकेश्वर  दत्त  जब  आजीवन  कारावास  की  सज़ा  भुगत  रहे  थे  तब  गांधीजी  के  ही  प्रयासों  से  बटुकेश्वर  दत्त  की  1938  में  जेल  से  रिहाई  हुई  थी ।  फिर  यही  बटुकेश्वर  दत्त  1942  में  गांधीजी  का  अंग्रेजो  भारत   छोड़ो  आंदोलन  में  शामिल  हुए  |

शुरुआत  के  दिनों  में  चन्द्रशेखर  आज़ाद , भगतसिंह ,  राजगुरु  ये  तीनों  क्रांतिकारियों  में  देशभक्ति  की  भावना  गांधीजी  के  प्रभाव  के  कारण  ही  आई ।  फिर  भी  उस  दुबले पतले  बूढ़े  गांधी  को  इतनी  गालियाँ  ? जो  लोग  भगतसिंह  के  कंधे  पर  बंदूक  रखकर  गांधीजी  को  गालियाँ  दे  रहे  हैं  उन  लोगो  को  भगतसिंह  के  गांधीजी  के  सम्मान  में  लिखे  हुए  लेख  पढ़  लेने  चाहिए ।

यदि  हिंसा  से  ही  आजादी  आती ,  तो  1857  में  ही  आजादी  मिल  गयी  होती  क्योंकि  भारतीयों  ने  अंग्रेजों  की  जान माल  का  जितना  नुकसान  1857  के  गदर  में  किया  था  उतना  कभी  किसी  ने  भी  नही  किया  था ।  1857  में  अंग्रेजो  के  मुद्दे  पर  सभी  राजे रजवाड़े  एक  हो  गए  थे ।  किन्तु  1931  तक आते-आते  ज़्यादातर  राजे रजवाड़े  अंग्रेजो  के  अंग  बन  चुके  थे ।

गांधीजी  की  सोच थी  कि  यदि  हिंसा  का  मार्ग  लोकप्रिय  हो  गया  तो  आने वाले  आजाद  भारत  में  भी  अपनों  से  न्याय  पाने  के  लिए  लोग  हिंसा  का  मार्ग  ही  चुनेंगे ।  अहिंसा  कागज़ी  बात  बनकर  रहे  जाएगी ।

भगतसिंह  और  सुभाषचंद्र  बोस  के  गांधीजी  से  हिंसा  और  अहिंसा  को  लेकर  मतभेद  थे ।  बाकी  वे  दोनों  ही  गांधीजी  का  सम्मान  करते  थे ।  आजकल  कुछ  लोगों  द्वारा  गांधीजी  विरुद्ध  भगतसिंह  बनाने  की  कोशिश  हो  रही  है  वैसा   खुद  भगतसिंह  भी  नहीं  करते  थे ।  फरवरी  1931  में  अपने  एक  लेख  में  भगतसिंह  लिखते  है  कि  गांधीजी ने  मजदूरों  को  सत्याग्रह  आंदोलन  में  भागीदार  बनाकर  मज़दूर  क्रांति  की  नई  शुरुआत  कर  दी  है ।  क्रांतिकारियों  को  इस  अहिंसा  के  फरिश्ते  को  उनका  योग्य  स्थान  देना  चाहिए ।

दूसरी  बात  भगतसिंह ने  ये  भी  कही  थी  कि  हिंसा  अंतिम  क्षण  में  इस्तमाल  करने  की  चीज़  है  वर्ना  अहिंसा  के  मार्ग  से  ही  क्रांति  लाई  जानी  चाहिए । तो  ये  थी  शहीदे  आज़म  भगतसिंह  की  वाणी ।  यदि गांधीजी  के  मन  में  भगत  सिंह  को  लेकर  कोई  खोट  होती  तो  फांसी  के  तीन  दिन  बाद  कांग्रेस  अधिवेशन  में  भगतसिंहजी  के  पिता  सरदार  किशनसिंहजी  और  सुखदेवजी  के  भाई  मथुरादासजी  गांधीजी  से  मिलने  क्यों  आते  ?

फांसी  के  बाद  भगतसिंहजी ने  तो  गांधीजी  के  लिए  कोई  संदेश  नही छोड़ा  मगर  सुखदेवजी ने  गांधीजी  के  नाम  ज़रुर  एक  चिठ्ठी  लिखी  थी । उस  चिठ्ठी  की  शुरुआत  करते  हुए  सुखदेवजी ने  लिखा  था  ” आदरणीय  महात्माजी ” । सुखदेवजी  की  चिठ्ठी  गांधीजी  के  प्रति  थोड़ी  नाराज़गी  भरी  थी  लेकिन  उस  चिठ्ठी  का  सार  कोई  समझ  नही  पा  रहा  था  तब  गांधीजी  अपनी  जगह  से  उठकर  चिठ्ठी  अपने  हाथ  में  लेकर  वहां  बैठे  लोगो  को  समझाते  हुए  कहते  हैं  कि  ये  बच्चा  चिठ्ठी  के  जरिए  यह  कहना  चाहता  है  कि  मैंने  उन्हे  फांसी  से  बचाने  का  उचित  प्रयास  नहीं  किया . . . .  गांधीजी  का  मनोबल  इतना  मजबूत  था  कि  उन्होने  सुखदेव जी  की  ये  चिठ्ठी  दूसरे  दिन  यंग  इंडिया  अखबार  के  पहले  पन्ने  पर  छपवाई ।

गांधीजी  वो  विभूति  थे  जो  प्यार  से  मिली  हुई  चीज़  के  साथ-  साथ  नफरत  से  मिली  भेंट  भी  विनम्रतापूर्वक  स्वीकार  कर  लेते  थे  । अधिवेशन  में  पहुँचने  के  पहले  कुछ  लोगो  ने  भगतसिंह  के  समर्थन  में  और  गांधीजी  के  ख़िलाफ़  नारे  लगाए  और  उन्हें  कपड़े  की  बनावट  के  काले  फूल  दिए  गए।  गांधीजी ने  वो  नफरत रुपी  काले  फूल  सहज भाव  से  स्वीकारते  हुए  अपने  आश्रम  भेज  दिए  ।

इस  घटना  को  ध्यान  में  रखते  हुए  पार्टी ने  गांधीजी  को  सुरक्षा  देने  का  फैसला  किया  मगर  बुराई  में  भी  अच्छाई  देखने वाले  गांधीजी ने  ये  कहते  हुए  सुरक्षा  लेने  से  इंकार  कर  दिया  कि  नौजवानों  का  विरोध  बहुत  ही  संयमित  था ।  अगर  वे  चाहते  तो  मुझ  पर  हिंसा  भी  कर  सकते  थे  कपड़े  के  काले  फूल  मेरे  मुंह  पर  फेंक  कर  मेरा  अपमान  कर  सकते  थे  लेकिन  उन  नौजवानों  ने  मेरे  साथ  ऐसी  कोई  हरकत  नहीं  की  जिससे  कि  मुझे  सुरक्षा  लेनी  पड़े।

नेताजी  सुभाषचंद्र  बोस  ने  जब  आजाद  हिंद  फ़ौज  बनाई  तब  उस  सेना  की  पहली  टुकड़ी  का  नाम  गांधी ब्रिगेड  रखा  था ।  जब  नेताजी  से  उनके  अपने  एक  साथी ने  पूछा– आजादी  मिलने  के  बाद  हम  क्या  करेंगे  ?  नेताजी ने  उत्तर  दिया ,  हम  गांधीजी  की  तरह  दीन – दुखियों  की  सेवा  करेंगे ।  यह  भी  ध्यान  रखिये  कि  गांधीजी  को  सबसे  पहले  ‘राष्ट्रपिता’  सुभाषचंद्र बोस  जी ने  ही  कहा  था ।

जिन  देशभक्तों  ने  देश  के  लिए  अपनी  जान  दी , वे  भी  कभी  गांधीजी  को  कटुवचन  नहीं  बोले , मगर  जिन  लोगों  ने  देश  के  लिए  अपना  नाख़ून  तक  नही  कटवाया  वो  लोग  आज  गांधीजी  को  गालियाँ  देते  हैं।   समझ  में  नहीं  आता  कि  कौनसा  धर्म  इंसान  को  अपने  ही  बुजुर्गों  को  गालियाँ   देना  सिखाता  है  ?

जो  व्यक्ति  लोगों  को  श्री राम  जैसी  मर्यादा  सिखाता  हो;  श्री  कृष्ण  जैसा  प्रेम  करना  सिखाता  हो;  हरीशचन्द्र  जैसी  सत्यता  सिखाता  हो;  बुद्ध  और  महावीर  की  तरह  अहिंसा  का  पालन  करना  सिखाता  हो — क्या  वो  व्यक्ति  किसी  क्रांतिकारी  को  मरवा  सकता  है ?  जो  व्यक्ति  अपने  भजनो  में  ये  गाता  फिरता  हो  कि  ” पर  दुःखे  उपकार  करे  तो ,  मन  अभिमान  ना  आवे  रे ”  उस  पर  अपनी  लोकप्रियता  बचाने  का  आरोप  ?

गांधीजी  वैष्णव  थे  इसलिए  कहते  थे  कि  वैष्णव  जन  उसे  कहते  हैं  जो  पराई  पीड़ा  जानता  है । किन्तु  भारत  जैसा  आध्यात्मिक  देश  गांधी  जैसे  सत्यवादी  का  सत्य  जानने  में  नाकाम  हो  रहा  है ।


(लेखक  प्रतिबद्ध  गाँधीवादी  हैं  और  राष्ट्रीय  आन्दोलन  फ्रंट  के  महत्त्वपूर्ण  सदस्य  हैं. यह लेख फ्रंट द्वारा संचालित ब्लॉग स्वाधीन से साभार प्रकाशित।)

 



 

 

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