भाऊ कहिन-9
हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?
यह प्रमुख सचिव यह भी तय करता था कि खबर क्या हो ।
घण्टों इस दरबार में नियमित हाजिरी लगाने वाले उसके न्यूज सेंस की तारीफ करते अघाते नहीं थे ।
एक गंम्भीर बीमार , किसी हस्पताल में भर्ती पत्रकार के लिये अच्छे होने तक चिकित्सा में आर्थिक सहायता की दरख्वास्त लेकर गए उसके साथी को उसने घूर कर ऊपर से नीचे तक देखा ।
वह सिहर गया था ।
प्रमुख सचिव ने पूछा –
आज तो बॉटम स्टोरी आपकी देखी ।
— जी , वह … दरअसल ..।
— ठीक है , लेकिन ख्याल रखा कीजिए .. आप लोगों से कितनी फ्रेंडली है यह सरकार ।
— जी ।
एक दूसरे से इर्ष्या और एक दूसरे का ‘ काम लगाना ‘ तो यहां सतत चलते रहने वाला सहज आचरण है । यही धारण करने योग्य उच्च जीवन मूल्य भी । अब धर्म भी ।
एक बहुत ही प्रभावी, तकरीबन आला हैसियत के एक मंत्री से एक पत्रकार ने पूछा –
— वह .. ( किसी का नाम लेकर ) सुबह सबेरे ही रोज आपके आवास पर आकर क्यों बैठ जाता है ..
— और मिलना मेरी मजबूरी है .. इसलिये कि मैं पीछे से निकल जाऊं , संभव नहीं है । मेरे आवास में पीछे से निकल जाने का कोई रास्ता नहीं है ।
मंत्री के यहां आने-जाने वालों में एक थुलथुल और गंजे वह पत्रकार भी थे जिन्होंने अंग्रेजी , तय है मेडिकल रिप्रजेंटेटिव या एयर होस्टेस से ही सीखी होगी ।
उन्हें अयोध्या में बाबरी ध्वंस या नेपाल राजघराने में ही एक लोहमर्षक कांड की रिपोर्टिग के दौरान देखा तो था , लेकिन रिपोर्ट नहीं पढ़ी ।
अंग्रेजी को लेकर एहसास – ए- कमतरी के शिकार एक हिन्दी अखबार के प्रधान संपादक को वह भा गये ।
वह स्टेट हेड इसलिए बना दिए गए कि अंग्रेजी में बात कर सकते थे ।
हो सकता है प्रधान संपादक के टंग ट्वीस्टर हो गए हों ।
प्रधान संपादक को अक्सर संपादक के अभिनय वाला संवाद बोलना पड़ता था ।
अपने हिन्दी साम्राज्य की गरीब प्रजा के आगे 5 – 7 लाइन अंग्रेजी बोलने का दहशत पैदा करने वाला असर होता है ।
इस प्रमुख सचिव से अपने अखबार के लिये कुछ करोड़ का विज्ञापन लाने के एवज में एक बहुत औसत पत्रकार राज्य संपादक और चैनल हेड भी हो गया ।
उसका यश चतुर्दिक फैलने लगा और सरकार ने उसे अलंकृत भी कर दिया ।
विज्ञापन किसी अखबार या चैनल की अधिनिर्धारक , चालक ताकत होती है । वह अलग ही संप्रभु निकाय खड़ा करता है ।
Jअमेरिका की एक पत्रिका न्यूयार्कर में भारत के भी एक अखबार व्यवसायी का इंटरव्यू छपा था ।
उसने कहा था — … हम खबरों का नहीं यानि समाचार पत्र का नहीं विज्ञापन का व्यवसाय करते हैं ।
जाहिर हैं अखबार में 80 प्रतिशत खबरें विज्ञापन के हलके से होती हैं ।
समाज की वास्तविक अंतरयात्रा से निकले नैरेशन की जगह बेहद कम हो गई है ।
बाजार और मालिक के हित से हमबिस्तर कुछ टुच्चे संपादकों ने ऐसा ढांचा खड़ा किया है कि कहना ही होगा —
जो हलाल नहीं हुये , सब के सब दलाल हैं । जो परेशान नहीं हैं बहुत कलुषित हैं ।
दांत निपोरते , हाथ जोड़ते खड़े हैं ।
उनकी रीढ़ गायब है ।
इसीलिये ढाबे के बुझे चूल्हे में फायर झोंक कर जला रहे एक जादूगर को देख सब तालियां पीट रहे हैं ।
जिसने खींस नहीं निपोरी उसे नहीं मिलेगा इतिहास का रफ ड्राफ्ट तैयार करने का मौका ।
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मालिक और कमतर संपादकों की साज़िश ने नैसर्गिक प्रतिभा के अंकुरों पर पाथर रख दिया है !
इसी आने वाले 21 सितम्बर 2017 को , अपना 64 वां साल पूरा करुंगा ।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपने गंवई समाज में किसी के 50 पूरा करते – करते , उसे बूढ़ा मान लिया जाता है ।
इन बेचारों को हॉलीवुड के 55 पार के एक्शन हीरोज के बारे में नहीं पता ।
इन्होंने उन विज्ञापनों की बड़ी – बड़ी होर्डिंग नहीं देखी होगी जिसमें किसी सुंदरी से चिपटा , थ्री पीस सूट पहने , पकी दाढ़ी वाला कोई , किसी सूट – शर्ट वाली कम्पनी का ब्रांड दूत होता है ।
मैं उनसे अपनी तुलना नहीं कर रहा । न बाजार विज्ञापित जवानी मुझे चाहिये ।
में तो बस इतना बताना चाहता हूं कि करईल माटी से बना मैं बहुत कठजीवी , सख्तजान हूं ।
नहीं मरूंगा किसी के लाख मारे ।
10 किलोमीटर तक बिना रुके , किसी से भी तेज , आज भी चल सकता हूं ।
ट्रेन के जनरल डिब्बे में लटक कर लखनऊ से दिल्ली तक की यात्रा कर सकता हूं ।
दमा होने के बावजूद बहुत सांस है । इनहेलर जरूर रखता हूं ।
आलोचना किसी की हो सकती है ।
कमियां कुछ न कुछ सबमें होती हैं ।
लेकिन किसी को उसकी पूरी सम्पूर्णता में ,असहमति के साथ भी देखा जाना चाहिये ।
राज्यसभा सदस्य ( नहीं मालूम इस वक्त भी हैं या नहीं ) और प्रभात खबर के संपादक रहे हरिबंश जी बहुत याद आ रहे हैं । पहली मुलाकात में ही इतनी आत्मीयता से मिले कि आज तक याद हैं । बात भोजपुरी में हुई ।
उनका लिखा आज तक याद है ।
नवीन जोशी जिनकी ढाई दशक पहले लिखी एक रपट आज तक याद है — ‘ नम दूब , गुनगुनी धूप और नाश्ते में जूही चावला ।
उनके नैरेशन की तारीफ महाश्वेता जी तक ने की थी ।
यशस्वी कवि और शब्द – विचार साधक , प्रखर जन बुद्धिधर्मी वीरेन डंगवाल जिन्होंने कानपुर से प्रकाशित अमर उजाला को क्लासिक अखबार बना दिया ।
और भी कई नाम हैं । उनका जिक्र करुंगा ।
मुझे उदयन शर्मा भी याद आ रहे हैं ।
बात शायद 1991 की है ।
बस्ती में एक समारोह के दौरान कुछ बच्चे फूड प्वाइजनिंग का शिकार होकर मर गए और कुछ गंम्भीर बीमार पड़े ।
शर्मा जी तब संडे आब्जर्वर के संपादक थे ।
रिपोर्टिंग के लिए खुद ही बस्ती पहुंच गये ।
1994 में उनसे एक सेमिनार में मुलाकात हुई , चन्द्रशेखर जी , कमलेश्वर जी और रामजेठमलानी के साथ । लखनऊ में ।
वह मुझे पहले से नहीं जानते थे ।
मैंने उनसे कहा —
आप ने बस्ती के जिस हादसे की ( पूरा संदर्भ बता कर ) रिपोर्टिग की थी , उसकी रिपोर्ट मैंने भी की थी ।
उन्होंने चन्द्रशेखर जी के सामने ही मेरा कंधा थपथपाते कहा –
तुमने मुझसे अच्छी रिपोर्ट लिखी थी ।
जानता हूं उन्होंने मुझ मुफस्सिल संवाददाता की रिपोर्ट नहीं पढ़ी होगी । उत्साह बढ़ाने के लिए एक प्यारा झूठ बोल दिया होगा । किसी को सराह सकने या उसे मान्यता देने का यह हौसला आज के असुरक्षा की भावना से पीड़ित , खुद को हीन समझ रहे संपादकों में है क्या ?
किसी ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा है — … मानें न मानें टैलेंट की कमी है । बल्कि उसका अकाल है ।
उन्हें वह सूरत नहीं नजर आती कि सरकार – मालिक और कमतर संपादकों की साजिशी एका की तिकड़ी ने नैसर्गिक प्रतिभा के अंकुरों पर पाथर रख दिया है ।
मैं उनकी बात सिरे से खारिज करता हूं ।
वो बतायेंगे कि आज के प्रबंध संपादकों , संपादकों को कैसा टैलेंट चाहिए ।
रामेश्वर पाण्डेय ‘ काका ‘ को इस बहस में हस्तक्षेप करना चाहिये ।
आज उनकी भी याद आ रही है ।
जारी….
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