हम लोग यह नहीं भूल सकते कि हिटलर ने जर्मनी में जो कुछ किया वह ‘कानूनी’ था और हर वह चीज़ जिसे हंगरी के स्वतंत्रता सेनानियों ने किया वह ‘गैरकानूनी’ था। हिटलर के जर्मनी में किसी यहूदी की मदद करना और उसे सांत्वना देना ‘गैरकानूनी’ था, लेकिन मुझे इस बात पर पूरा यकीन है कि अगर उन दिनों मैं जर्मनी में रहता तो मैंने अपने यहूदी भाइयों की सहायता की होती भले ही वह गैरकानूनी होता… हम जो अहिंसक तरीके से सीधी कार्रवाई करते हैं वह तनाव के जन्मदाता नहीं हैं। हम महज उस छिपे तनाव को सतह पर लाने की कोशिश करते हैं जो पहले से ही मौजूद है।
मार्टिन ल्यूथर किंग, जुनियर
जनतंत्र अपने दस्तख़त किस तरह करता है
ऊपरी तौर पर देखें तो बहुसंख्यकवाद- बहुमत का शासन- एक तरह से जनतंत्र जैसा ही ध्वनित होता है, लेकिन वह जनतंत्र को सिर के बल खड़ा करता है। अगर वास्तविक जनतंत्र को फलना-फूलना है तो यह जरूरी है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार और सिद्धांत उसके केन्द्र में हों। यह विचार कि राज्य और धर्म में साफ अलगाव होगा और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा, यह उसका दिशानिर्देशक सिद्धांत होना चाहिए।
बहुसंख्यकवाद न केवल विचार के स्तर पर बल्कि व्यवहार में भी जनतंत्र को परास्त करता है।
जनतंत्र का बहुसंख्यकवाद में रूपांतरण हालांकि एक वास्तविक ख़तरा है, पूंजी के शासन के तहत- खासकर नवउदारवाद के उसके मौजूदा चरण के तहत- एक दूसरा ख़तरा यह मंडराता रहता है कि वह धनिकतंत्र- धन्नासेठों के शासन- में तब्दील हो जाए।
अब जबकि भारत में 17वीं लोकसभा चुनावों की आपाधापी मची है, यही वह दो बड़े सवाल हैं जो सभी के मन में मंडरा रहे हैं, क्या वही गतिविज्ञान- जिसने विगत पांच वर्षों को आज़ाद भारत के इतिहास में अलग बनाया है- वह जारी रहेंगे या उसमें कोई विच्छेद होगा।
यह एक विचलित करने वाला परिदृश्य है जहां दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र ने ‘’2014 से गलत दिशा में छलांग लगायी है’’ (अमर्त्य सेन)- जिसने आम तौर पर अल्पभाषी कहे जाने वाले वैज्ञानिकों को भी लोगों को ऐसी राजनीति को खारिज करने के लिए अपील करने के लिए प्रेरित किया है जो ‘’हमें बांटती है, हम में डर पैदा करती है और हमारे समाज के बड़े हिस्से को हाशिये पर डालती है’’; जिन्होंने जनता को यह भी याद दिलाया है कि ‘’विविधता हमारे जनतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है और भेदभाव तथा असमावेश उसके जड़ पर आघात पहुंचाता है।‘’
सवाल उठता है कि क्या आने वाले दिनों में हम बहुसंख्यकवाद के अधिक सामान्यीकरण को विकसित होता देखेंगे या एक अधिक समावेशी, समतामूलक और कम विषाक्त दुनिया में जीने की आम लोगों की ख्वाहिशें अन्ततः नफरत के सौदागरों की साजिशों पर हावी होंगी और दूसरे, दरबारी पूंजीपतियों और पैसेवालों को मिली छूट पर लगाम लगेगी और पुनर्वितरण के विचार अधिक जोरदार ढंग से वापसी करेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक एक ‘’स्वयंभू सांस्कृतिक संगठन’’ की मौजूदगी से इस गतिविज्ञान में नया आयाम जुड़ गया है- जिसके सिद्धांत, विचारधारा और गतिविधियां संविधान की बुनियाद के प्रतिकूल पड़ती हैं- जो हक़ीकत में भारत में शासन कर रहा है। वह ऐसा संगठन है जिसके सिद्धांत- जो भारतीय राष्ट्रवाद को धार्मिक बहुसंख्यकों के सन्दर्भों में प्रस्तुत करते हैं- उनके नागरिक समुदाय के बड़े हिस्से के लिए बेहद गंभीर नकारात्मक सामाजिक और राजनीतिक परिणाम दिखाते हैं और जो संविधान का उल्लंघन करते हैं।‘’
http://caravandaily.com/rss-principles-are-in-violation-of-constitution-detrimental-to-india-hamid-ansari/
लगभग 42 साल पहले भारतीय अवाम ने जनतंत्र के प्रयोग को कुंद करने की कोशिशों को अपने संगठित प्रयासों से शिकस्त दी थी। आज जबकि अधिक गुप्त, कुटिल और साम्प्रदायिक ताकतें उभार पर हैं, जिन्हें जनता के एक हिस्से में लोकप्रियता भी हासिल है, तब क्या भारत की जनता अपनी जीत को दोहरा सकेगी?
निबंधों (जिनमें से कुछ पहले प्रकाशित हुए हैं और जिन्हें इस संकलन के लिए संशोधित किया गया है) के इन संकलनों का केन्द्रीय सरोकार बहुसंख्यकवाद का वही सामान्यीकरण है जो यहां उजागर हो रहा है। यह एक ऐसी स्थिति है जहां भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों की नुमाइन्दगी आज़ादी के बाद संसद में सबसे कम देखी गयी है और जिसे रफ्ता-रफ्ता सार्वजनिक विमर्श से भी ओझल कर दिया जा रहा है।
भाग एक जहां भारत के घटनाक्रम को दक्षिण एशियाई सन्दर्भ में स्थित करने की कोशिश करता है और लोगों के अनुभवों के साझापन की तलाश करता है, वहीं वह इस बात की भी पड़ताल करता है कि नफरत पर टिकी विचारधाराओं और नेताओं के प्रति सम्मोहन की सामाजिक जड़ें कहां स्थित हैं।
भाग दो हिन्दुत्व वर्चस्ववादी आन्दोलन के संस्थापकों और ‘’नया भारत’’ जो उनके निर्देशों तले विकसित हो रहा है, उसमें उभर रहे नए आयकन की चर्चा करता है।
भाग तीन भारतीय गणतंत्र पर हावी होते दिख रहे इस खतरे से जूझने को लेकर कुछ फौरी सुझाव पेश करता है।
किताब महान इंडोनेशियाई लेखक प्रमोदया अनंत तूर (फरवरी 20, 1925 – अप्रैल 30, 2006) को समर्पित की गयी है जिन्होंने प्रताड़ना, कारावास और सेन्सरशिप सभी कुछ लम्बे समय तक झेला और जिनके लेखन ने इंडोनेशियाई अवाम की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया है।
यह बात महत्वपूर्ण है कि प्रमोदया- एक वामपंथी- को न केवल उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दिनों में जेल भेजा गया बल्कि साठ के दशक के मध्य में जब इंडोनेशिया में कम्युनिस्ट इन्कलाबियों के भारी दमन के लिए सीआईए समर्थित फौजी तख्तापलट हुआ- जिसमें लाखों लोग मारे गए- तब उन्हें लम्बे समय तक जेल में रखा गया था। उन्हें 1979 में कारावास से रिहा किया गया, लेकिन वह 1992 में घर के अन्दर ही नज़रबन्द रहे।
चार उपन्यासों की उनकी श्रृंखला- जिसके लिए वह सबसे अधिक जाने जाते हैं- ‘’बुरू क्वार्टेट’’ ऐसे ही पीड़ादायक कालखंड में कारावास में ही लिखी गयी थी। ‘’क्या यह मुमकिन है’’- प्रमोदया ने बाद में पूछा था- ‘’कि किसी व्यक्ति से अपने लिए बोलने के हक़ को छीन लिया जा सके’’?
उनकी स्मृति चिरायु होवे!