निकस चलबे तोहें ले के संवरिया, ढाल तरुवरिया कमर कस लेबे ….निकस चलबे..!

रामजी राय

 

लोक धुनों, गीतों की रची-बनीं और उसी में गुथी-सनी गायिका गिरिजा देवी नहीं रहीं।

8 मई 1929 को बनारस में जन्मी गिरिजा देवी के हृदय ने कल 24 अक्टूबर, 2017 को 88 वर्ष की उम्र में धड़कना बंद कर दिया।

उनकी गायकी को पहचानने वाले ये जानते हैं कि उन्होंने ठुमरी को जो भी ऊंचाई दी हो लेकिन वे लोक, लोक धुनों, गीतों की रची-बनीं और उसी में गुथी-सनी थीं। उन्होंने लोक गीतों की सहजता के भीतर बसी जटिलता, उल्लास के भीतर भी मौजूद रहने वाले दुःख के धागों को गा पाने की कला को साधा था। न केवल कला में बल्कि जीवन में भी।
वे लोक गीतों में चैता, कजरी, होरी ही नहीं उन लोकगीतों को भी उसी ऊंचाई से गाती थीं जीन्हें विज्ञ जन जानते भी न होंगे।
“घरवा में से निकसीं ननद भउजइया जुलुम दुनू जोड़ी रे सांवरिया” या कि “कारे भंवरा रे तू तो जुलुम किया” ऐसे ही और भी कितने।

संगीत की मुझे तनिक भी समझ नहीं बस उसका दीवाना श्रोता भर हूँ और अपने इसी बूते कहा रहा हूँ ऐसे ही लोक धुनों से रचे-बने और उसी में गूंथे-सने बिस्मिल्ला खान भी थे। उनकी गिरिजा देवी के साथ शहनाई पर संगत जिन्होंने सुना है वे मानेंगे कि उन दोनों को सुनते हुए लगता ही नहीं कौन किसकी संगत कर रहा है। संगत की ऐसी एकतानता बड़ी मुश्किल बात होती है। ज़रा कभी सुनिये उन दोनों को – चढ़ल चइत चित लागे न रामा बाबा के भावनावाँ हो…” आपको भी ऐसा ही एहसास होगा।

एक स्मृति

पटना के रेडियो स्टेशन के पास खुले प्रांगण में आयोजित संगीत समारोह। बहुत सारे कलाकार। उसमें ठुमरी गायिका गिरिजा देवी और शोभा गुर्टू भी। शोभा गुर्टू ने सुनाया बहुत लेकिन लोग झूम गए जब गाया ” भई सारी गुलाबी चुनरिया रे, मोहे मारे नज़रिया संवरिया रे..”।

उसके बाद गिरिजा देवी। आईं। बैठीं। मुंह में पान की गिलौरी डालीं। और गाने से पहले कुछ बातें बोलीं जो गाने जा रही थीं, उसके बारे में। बोलीं – आप लोगों ने जो मैं गाने जा रही हूं, उसे बहुत बार सुना होगा लेकिन और रूप में। मैं आज आपको उसका ओरिजनल, मौलिक रूप सुनाऊँगी। और भी कुछ दो-चार वाक्य। फिर आलाप लेकर गाना शुरू किया-
“निकस चलबे तोहें ले के संवरिया
ढाल तरुवरिया कमर कस लेबे
बदनामी न सहबै निकस चलबै तोहके लाइके संवरिया….”
मंत्रमुग्ध श्रोता। सुन कर हम सब महेश्वर, चंद्रभूषण, इरफान और मैं भी चकित। सोचने लगे, हां सुने तो थे बहुत बार, गांव-नगर में शादी-ब्याह के मौकों पर आने वाली नर्तकियां जो गाती थीं लेकिन उसके बोल और तासीर कितनी अलग थी -” निकस चलबै तोहके ले के संवरिया
धीरे से खोलबो मों पिछली किवड़िया। निकस चलबो…”
इसमें तो प्रेम का योद्धा रूप था जो बहुतों को भा रहा था और ललकार रहा था और संभव है बहुतों को डरा भी रहा था।

उस दिन चंद्रभूषण शोभा गुर्टू के गाये ‘रंगी सारी गुलाबी चुनरिया’ में मगन थे और हम लोग गिरिजा देवी के ‘ढाल तरुवरिया कमर कस लेबै’ में। इस पर आपस में कुछ बहस भी हुई थी। आज गिरिजा देवी के साथ वही गीत याद आ रहा है और सोच रहा हूँ चंद्रभूषण यानीं चंदू को भी इस दौर में वही गीत याद आ और भा रहा होगा। प्रेम की हत्या की सत्ता के इस दौर में प्रेम का योद्धा हो जाना कितना जरूरी है।

एक और बात

प्रेम के इस योद्धा रूप की गायिका गिरिजा देवी से मिलने इरफान और मैं बनारस के उनके घर गए थे। हम लोगों का दुर्भाग्य कि वे तब बनारस में नहीं थीं और हम उनसे न मिल सके, आगे बहु फिर कभी। इसका मलाल रहेगा। वे नहीं थीं लेकिन घर में काम करने वाली थी। घर बड़ा ही सूना-उदास सा क्यों था? ऐसा तो नहीं होता! हमलोगों ने इस बेचैनी में काम करनेवाली से बात की। वो बोलीं- दीदी अब यहां कभी-कभी ही आती हैं। उदास रहती हैं यहां आने पर। इस नाते कि ऊ त रहीं जमींदार परिवार की लेकिन अपने मन से शादी कीं यहीं के व्यापारी परिवार में। वे उनके गाने को बहुत पसंद करते और उन्हें प्यार करते थे। ई घर वालों को पसंद नहीं आया और तब से घर का कोई यहां नहीं आता। इसका बड़ा दुःख रहता है दीदी को। यहां उस कमरे में उनकी एक बहन रहती हैं, (पास या दूर की अब यह याद नहीं।) उन्हें अब कुछ सुनाई नहीं देता।

हमें घर की उदासी के रहस्य का पता तो मिल गया था लेकिन मिल गया था प्रेम के योद्धा रूप के गायिका के गायकी की शक्ति का रहस्य भी। हम न मिल पाने से दुःखी थे लेकिन खुश-खुश लौट रहे थे। हमें जो मिला वह अनमोल था।

(लेखक समकालीन जनमत के प्रधानसंपादक हैं. उन्होंने फे़सबुक पर यह लिखा, हमने साभार प्रकाशित किया.)



 

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