पंकज श्रीवास्तव
उनके ट्विटर पर लिस्ट बनाने की धमकी के जवाब में सोशल मीडिया में ख़ुद को ‘अर्बन नक्सल’ बताने वालों की बाढ़ आ गई। ट्विटर पर ‘#मीटूनक्सल’ लगातार ट्रेंड करने लगा। देश भर में हुई बुद्धिजीवियों की हालिया गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ संसद मार्ग पर 30 अगस्त को हुए प्रदर्शन में ऐसे नौजवान लड़के-लड़कियों की भरमार थी जो ख़ुद को नक्सली घोषित करते हुए गिरफ़्तार करने की चुनौती दे रहे थे।
बहरहाल, इनमें राजनीतिक रूप से सजग लोगों की कमी नहीं थी, लेकिन सोशल मीडिया में जिन हज़ारों लोगों ने ख़ुद को नक्सली घोषित किया, वे इसका अर्थ समझते भी होंगे, विश्वास करना मुश्किल है। बिलकुल वैसे ही, जैसे फ़ैशन स्टेटमेंट बन चुकी चे ग्वेरा के चेहरे वाली टीशर्ट पहनने वाले तमाम नौजवान इस क्रांतिकारी की अमर कथा से आमतौर पर अनजान नज़र आते हैं और शायद जानने की ज़रूरत भी नहीं समझते हैं ।
ऐसे में यह ज़रूरी है कि ‘नक्सल’ शब्द के इतिहास और वर्तमान से जुड़ी कुछ बुनियादी बातों को पढ़-पढ़ा लिया जाए।
लेकिन इसके पहले यह भी देखना होगा कि ये ‘वामी’ क्या बला है, जो सोशल मीडिया पर ‘भक्त’ के जवाब में काफ़ी इस्तेमाल किया जाता है! ‘नक्सल’ शब्द का एक सिरा इसी ‘वामी’ से जुड़ा है।
‘वामी’ यानी ‘वामपंथी’ यानी बायाँ यानी…????
ज़्यादातर लोग शरीर के दाहिने हिस्से, खासतौर पर दायें हाथ का इस्तेमाल करते हैं। स्वाभाविक रूप से दायाँ हिस्सा बायें की तुलना में मज़बूत होता है। यहीं से एक सूत्र निकलता है कि बायाँ यानी ‘कमज़ोर पक्ष’ और दायाँ यानी ‘मज़बूत।’
पर राजनीतिशास्त्र और जीवविज्ञान में काफ़ी फ़र्क है। इसलिए वामी या वामपंथ को ऐतिहासिक संदर्भ से समझा जाना चाहिए, न कि किसी जैविक संयोग से।
बात समझने के लिए इतिहास की गलियों से ग़ुज़रना होगा। दुनिया की क्रांतियों के इतिहास में फ्रांस की क्रांति का शायद सबसे ज़्यादा महत्व है। ‘समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ को सभ्यता की कसौटी बना देने वाली इस 1789 की क्रांति के प्रवाह को रोकने के लिए फ्रांसीसी सम्राट लुई 16वें ने अरसे बाद एस्टेट्स जनरल की बैठक बुलाई। इसमें दायीं तरफ़ वे लोग बैठे जो सामंत वर्ग के विशेषाधिकारों को बनाए रखना चाहते थे और बायीं ओर वे लोग बैठे जो विशेषाधिकारों को ख़त्म करना चाहते थे।
यहीं से ‘वामपंथ’ और ‘दक्षिणपंथ’ शब्दों की उत्पत्ति मानी जाती है जो राजनीतिक विमर्श के दौरान सर्वाधिक इस्तेमाल किए जाते हैं। यानी ‘वामपंथी’ वे हुए, जो कमज़ोरों के पक्ष में खड़े हों, स्थिति को बदलना चाहें और ‘दक्षिणपंथी’ वे जो शोषणकारी व्यवस्था को बरक़रार रखना चाहते हैं।
(इस बहस की तमाम बारीक़ियो को समझने के लिए पाठकों को किताबों की शरण मे जाना चाहिए। इस लेख में बस कुछ मोटी बातें ही बताई जा रही हैं।)
दुनिया बदलने का सपना मनुष्य का सबसे पुराना और स्थायी सपना है। यह सपना कभी पूरा नहीं होता। क्योंकि हर सपना पूरा होने के क्रम में नए लक्ष्य निर्मित कर देता है। सभ्यता के विकास के तमाम चरण इसी के देन हैं। बहरहाल, इसी क्रम में वामपंथ की भी तमाम छटाएँ सामने आईं। जनवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि इसी की अलग-अलग अभियव्यक्तियाँ हैं। इन सबके केंद्र में ‘जन’ रहा। ‘जन’ से मतलब सिर्फ़ सर्वहारा नहीं है। ‘जन’ वह है जो किसी का शोषण करने की स्थिति में नहीं है।
वैसे ‘जनवाद’ का मसला बड़ा दिलचस्प है। पूँजीपति वर्ग लोकतंत्र के उस रूप पर फिदा है जहाँ चुनी हुई पार्टियों का शासन होता है और वह धनशक्ति के बल पर इन पार्टियों को अपनी चेरी बना लेता है। जब चंद कॉरपोरेट घरानों के हाथ में किसी देश की कुल संपत्ति का 50 फ़ीसदी से भी ज़्यादा सिमट जाए तो यह ख़तरा और बढ़ जाता है। भारत में यह ख़तरा साफ़ नज़र आ रहा है जहाँ सत्ताधारी दल बीजेपी के लिए कुछ घराने एटीएम का काम कर रहे हैं। लोकतंत्र का यह रूप पूँजीपतियों की तानाशाही है। अमेरिका में तो एक ख़रबपति ट्रम्प अपने पैसे के दम पर राष्ट्रपति ही बन बैठा। यह रास्ता अनिवार्य रूप से फ़ासीवाद की ओर जाता है। इटली के तानाशाह मुसोलिनी का स्पष्ट कहना था कि फ़ासीवाद=राज्य+ कॉरपोरेट।
जबकि सच्चे जनवाद की स्थापना से आशय जनता के हाथ में शासन की बागडोर थमाना और उसकी दिशा को आमजन के हित में मोड़ना है।
‘समाजवाद’ उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण चाहता है। इस व्यवस्था के तहत राज्य ही सबकी ज़रूरत पूरा करता है। भारत में समाजवाद शब्द स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से ही एक लोकप्रिय अपील रखता है। काँग्रेस के अंदर नेहरू और सुभाष की जोड़ी को हमेशा समाजवादी ही कहा गया। लेकिन लोहिया, जयप्रकाश नारायण और आचार्यनरेंद्र देव जैसे धुरंधर समाजवादियों ने आज़ादी के साथ ही समझ लिया कि नेहरू की कोशिशों के बावजूद पार्टी को दक्षिणपंथी प्रभाव से मुक्त कराना मुश्किल है और पुूरा समाजवादी खेमा कांग्रेस से बाहर आ गया।
यूँ तो भारत का संविधान भी समाजवादी है है लेकिन भारतीय राज्य ने जिस बेशर्मी से ‘याराना पूँजीवाद’ को गले लगाया है, वह बेमिसाल है। यह सीधे-सीधे संविधान की भावना से मुँह मोड़ना है। हालाँकि कुछ लोगों का मानना है कि आपात्काल के दौरान संशोधन करके संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ के साथ ‘समाजवाद’ शब्द ज़बरदस्ती जोड़े गए लेकिन यह ग़लत है। संविधान में सभी धर्मों की आज़ादी और ग़ैरबराबरी का नाश करते हुए समतामूलक समाज बनाने का संकल्प पहले से मौजूद है। (इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द को संविधान से निकालने की याचिका को ख़ारिज कर चुका है।)
जबकि ‘साम्यवाद’ एक ऐसी स्थिति है जिसमें ‘राज्य’ होता ही नहीं। सबकी ज़रूरतें पूरी होती हैं और सभी उत्पादन में क्षमता भर योगदान देते हैं। राज्य का ‘विलोप’ फिलहाल नितांत कल्पना मानी जाती है (यूटोपिया), यही वजह है कि कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी फिलहाल समाजवाद या जनवाद की स्थापना को ही अपना लक्ष्य मानती हैं। पूँजीवादी शोषण के दुश्चक्र को तोड़ना ही उनका घोषित कार्यभार है। साम्यवाद उनके लिए भी दूर की कौड़ी है।
(दरअसल, यह कहानी ‘ हरि अनंत, हरिकथा अनंता’ टाइप है। पत्रकारिता संस्थानों में घुस आए मैनेजमेंट के बंदे कहते घूमते हैं कि आज के लोग, ख़ासतौर पर युवा पीढ़ी कुछ भी गंभीर या कि लंबा-चौड़ा नहीं पढ़ना चाहती। उनकी मानें तो ये पीढ़ी सिर्फ़ ‘कमाओ, खाओ और मौज करो’ वाली है जो दिमाग़ पर ज़्यादा ज़ोर देना ही नहीं चाहती। लेकिन इन पंक्तियों के लेखक को संसद मार्ग और जंतर-मंतर पर नारा लगाते दिखे तमाम बेचैन नौजवानों की शक्लें भी याद आ रही हैं जो थोड़ा लंबा लिखने का हौसला दे रही हैं।)
उम्मीद है कि पाठकों को ‘वामी’ का मामला समझ आ गया होगा। अब ‘नक्सली’ भी समझ लिया जाए। सोशल मीडिया में ‘घर-घर नक्सल’ जैसी तुकबंदियों के दौर-दौरा में यह बताना ज़रूरी है कि इस शब्द के पीछे ‘परिवर्तन की आकांक्षा, आतंक और हिंसा’ से लबरेज़ एक लंबा इतिहास है जो भारत के कम्यनिस्ट आंदोलन की कोख से जन्मा है।
बहुत लोगों के लिए नक्सली का मतलब हिंसक होने से है, लेकिन हिंसा इसका सिर्फ़ एक पहलू है। वैसे भी दुनिया के तमाम क्रांतिकारी परिवर्तनों में हिंसा की बड़ी भूमिका रही है। अमेरिका, फ्राँस, रूस और चीन जैसी युग-परिवर्तन करने वाली क्रांतियाँ रक्तरंजित ही रही हैं। भारत में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ तमाम हिंसक विद्रोह हुए थे और महात्मा गाँधी की अहिंसावादी आंदोलन के परवान चढ़ने के साथ-साथ ‘बम का दर्शन’ लिए भगत सिह और उनकी हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की पूरी टोली भी सामने थी जो क्रांति में हिंसा का सहारा लेने के ख़िलाफ़ नहीं थी। रूसी क्रांति के नायक लेनिन से बेतरह प्रभावित भगत सिंह दरअसल भारत में बोल्शेविक टाइप की क्रांति ही करना चाहते थे। फाँसी का फंदा चूमने के पहले उनका आख़िरी संदेश था- ‘इन्कलाब ज़िंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो।’
असेंबली में फेंके गए भगत सिंह के बम का दुनिया भर में यही संदेश गया था कि भारत में बोल्शेविक क्रांति की तैयारी हो रही है। विदेशी अख़बारों में छपा था कि धमाका करने वाले ‘रेड’ हैं।
लेकिन अगर पार्टी “कम्युनिस्ट” है तो उसे ‘सर्वहार राज’ के लिए क्रांति का रास्ता बताना ही पड़ेगा। लेकिन विद्वानों के बीच रास्ता बड़ा मसला होता है और रास्ते को लेकर वाद-विवाद इतना बढ़ा कि 1964 में पार्टी टूट गई। एक नए दल सी.पी.आई (एम) का जन्म हुआ। यहाँ ‘एम’ का मतलब ‘मार्क्सवादी’ था गोया सीपीआई ने मार्क्स को तिलांजलि दे दी थी।
ज़ाहिर है, इस नई पार्टी में जो लोग सीपीआई छोड़कर आए, वे मज़दूरों-किसानों के बल पर ‘पूँजीवादी राजसत्ता’ को उखाड़ फेंकने का सपना देख रहे थे। इस नई पार्टी के नेताओं में उत्साह भी काफ़ी था और जल्दी ही उन्हें एक प्रयोग का मौक़ा मिल गया पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी के पास नक्सलबाड़ी नाम के गाँव में। ये गाँव दार्जिलिंग जिले में पड़ता है।
यह 1967 के बसंत की बात है। सीपीएम नेता चारू मजूमदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी में किसान विद्रोह फूट पड़ा। यह एक स्थानीय ज़मींदार के शोषण ख़िलाफ़ सशस्त्र कार्रवाई थी। ‘ज़मीन जोतने वाली की’-यह नारा पहले से लोकप्रिय था। पुलिस ने गोलीबारी की जिसमें 11 लोग मारे गए। इनमें दो बच्चे भी थे। ज़मींदार और एक दारोगा भी मारा गया।
इस तरह इसी नक्सलबाड़ी गाँव से उपजे आंदोलन का नाम पड़ा- ‘नक्सलवाद।’ और जिन लोगों ने किसानों की इस सशस्त्र गोलबंदी को सही माना, वे कहलाए नक्सलवादी।
सीपीएम के तत्कालीन नेेतृत्व को को चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में हुई यह कार्रवाई बचकानी लगी। आख़िरकार इन लोगों ने पार्टी से निकल कर एक अखिल भारतीय क्रांतिकारी समन्वय समिति बनाई और 22 अप्रैल 1969 को यानी लेनिन के जन्मदिन पर एक नई पार्टी सीपीआई (एम.एल) का जन्म हुआ। इस बार कोष्ठक में ‘एम’ के साथ ‘एल’ भी जुड़ गया यानी यह पार्टी हुई -सीपीआई( मार्क्सवादी-लेनिनवादी)।
चारु मजूमदार इस नई पार्टी के सबसे बड़े नेता थे जिन्होंने ‘चीन का चेयरमैन- हमारा चेयरमैन’ का नारा दिया। ज़ाहिर है, वे भारत में चीन जैसी क्रांति की कल्पना करते थे जहाँ 20 साल पहले माओ ने गाँव-गाँव किसानो को गोलबंद करके शहरों को घेरने की योजना बनाई गई थी और अंतत: राजसत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था। चारू मजूमदार का सपना भी कुछ ऐसा ही था। क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने वर्गशत्रुओं के सफ़ाए का आह्वान किया जिसकी परिणति व्यक्तिगत हत्याओं में हुई। यहाँ तक कि तमाम ‘बुर्जुआ नेताओं’ और विचारकों की मूर्तियाँ भी तोड़ डाली गईं। अगले दो तीन साल तक यह सब चलता रहा। यूँ तो इसका असर पूरे देश के नौजवानों पर हुआ पर पश्चिम बंगाल ख़ासतौर पर इसकी चपेट में आया। तमाम प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों तथा मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को इस आंदोलन ने आकर्षित किया। उधर, सत्ता ने भी भरपूर दमनचक्र चलाया। नक्सली होने के शक मात्र पर तमाम नौजवानों को गोली से उड़ा दिया गया। मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धार्थशंकर रे ने दमन में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। महाश्वेता देवी का उपन्यास – ‘1084वें की माँ’ इसी का जीवंत दस्तावेज़ है।
1972 में चारू मजूमदार समेत तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी हिरासत में ही मौत हो गई।
जल्दी ही सीपीआई (एम.एल) में ‘लाइन’ के सवाल पर बहस तेज़ हुई। एक तबका ‘व्यक्तिगत सफ़ाए की लाइन को निरर्थक मानने लगा था और ज़रूरी होने पर ही हिंसा का सहारा लेना चाहता था जबकि दूसरी लाइन सशस्त्र क्रांति को ही अंतिम विकल्प मानती थी। साथ ही भारतीय समाज और राज्य के चरित्र को लेकर भी बहस थी।
इस पार्टी में टूट-फूट का सिलसिला जल्दी ही शुरू हुआ और साल दर साल बढ़ता ही गया। तमाम छोटे-छोटे ग्रुप बनते गए। दो-दो, तीन-तीन लोगों ने अपनी अलग पार्टी बना ली। किसी न्यूक्लियस के अभाव में पूरा आंदोलन ही लगभग बिखर गया। बहरहाल, पहले कॉमरेड जौहर और फिर विनोद मिश्र के नेतृत्व एक धड़ा सीपीआई (एम.एल.) लिबरेशन के रूप में संगठित तौर पर सामने आया। (‘लिबरेशन’ इस ग्रुप का मुखपत्र का नाम था।)
कानपुर में जन्मे विनोद मिश्र भी चारू मजूमदार से प्रेरित होकर दुर्गापुर इंजीनियरिंग कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में कूदे थे। उनके बैच के कई और लोग भी इसी राह पर चल पड़े थे। ‘लिबरेशन’ का मुख्य आधार बिहार में बना जहाँ उसने मुख्य रूप से भूमिहीनों को संगठित किया। दलितों के मान-सम्मान के लिए इसने ख़ासतौर पर लड़ाई लड़ी। 80 के दशक में ही उसने ‘ब्राह्मणवाद’ को शत्रु के रूप में चिन्हित किया जो कम्युनिस्ट आंदोलन में एक नई बात थी। बिहार में उसे ‘चमारों की पार्टी’ कहा जाने लगा था। उसने चुनावी राजनीति में हस्तक्षेप के लिए इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसा जन संगठन बनाकर लोकप्रिय प्रयोग किया और 90 की दशक की शुरुआत में उसने भूमिगत सशस्त्र संघर्ष की जगह पूरी तरह संसदीय रास्ता अपना लिया।
सीपीआई (एम.एल) लिबरेशन अब एक रजिस्टर्ड पार्टी है जो देश के तमाम हिस्सों में चुनाव लड़ती है। बिहार और असम में वह लोकसभा सीटें जीत चुकी है। बिहार और झारखंड में तो लगातार उसके विधायक जीतते रहे हैं। इस समय भी बिहार विधानसभा में उसके तीन विधायक हैं।चर्चित छात्र संगठन आइसा (ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन) इसी से जुड़ा है।
गैरसंसदीय रास्ते पर आज भी चल रही धाराओं में सबसे मज़बूत पीपुल्स वार ग्रुप को माना जाता है। ‘पीपुल्स वार’ इसका मुखपत्र और कोंडापल्ली सीतारमैया इसके चर्चित नेता हुए। यह ग्रुप मूलत: आंध्रप्रदेश में सक्रिय था। सितंबर 2004 में इसका माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एम.सी.सी) नाम के एक अन्य नक्सली संगठन के साथ विलय हो गया। एक नई पार्टी बनी जिसका नाम हुआ सीपीआई (माओवादी)। यह पार्टी चुनाव नहीं लड़ती। संसदीय रास्ते को संशोधनवाद (एक तरह से क्रांति के रास्ते को छोड़ना) मानती है। इसे विश्वास है कि बंदूकों के बल पर वह राजसत्ता को उखाड़ फेंकेगी और ‘सर्वहारा की तानाशाही’ स्थापित करेगी। देश के तमाम आदिवासी इलाकों में इसका प्रभाव माना जाता है।
2009 में भारत सरकार ने सीपीआई (माओवादी) को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया। माना जाता है कि कॉरपोरेट कंपनियाँ आदिवासी इलाकों में खनन गतिविधियाँ हर हाल में बढ़ाना चाहती हैं। विकासदर बढ़ाने को बेचैन सरकार को भी यह नीति रास आ रही है। PESA क़ानून और संविधान की पाँचवी अनुसूची का भी उसे ख़्याल नहीं जो आदिवासियों की इच्छा को सर्वोपरि मानता है। लेकिन माओवादी इस राह में रोड़ा बने हुए हैं जो खनिजों की प्रचुरता वाले इलाकों में ख़ासतौर पर सक्रिय हैं। नतीजा पुलिस और सुरक्षाबलों के साथ माओवादियों की हिंसक झड़पों में लगातार ख़ून बह रहा है। माओवादियों के नाम पर आम आदिवासियों को भी भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। सरकार माओवादियों को आतंकवादी बताते हुए कहती है कि वे आदिवासियों की ज़िंदगी दूभर बना रहे हैं। वसूली करते हैं और बेगुनाहों की जान लेते हैं। उधर माओवादी, सरकार को जल, जंगल और ज़मीन का लुटेरा बताते हैं जो कॉरपोरेट कंपनियों के लिए आदिवासियों का संहार कर रही है। उनकी नज़र में भारत का लोकतंत्र ढोंग और पूँजीपतियों की तानाशाही ही है।
मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय ने यूपीए-2 के ‘ऑपरेशन ग्रीनहंट’ के दिनों में जंगलों में कई दिन माओवादी गुरिल्लों के साथ बिताया था और मार्च 2010 में आउटलुक पत्रिका में एक चर्चित लेख लिखा था-“वाकिंग विद कॉमरेड्स।” इस लेख ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या की ओर ध्यान खींचा था।
पुलिस ने पिछले दिनों इसी माओवादी पार्टी से संबंध के आरोप में तमाम बुद्धिजीवियों को गिरफ़्तार किया है। इस आरोप में कितना दम है, यह तो अदालत में तय होगा, लेकिन इतना तय है कि इनमें से कई, दशकों से मानवाधिकार के मसले पर सक्रिय हैं और मौजूदा कानूनों के आधार पर ही अदालतों में याचिकाएँ डालते रहे हैं। इनका आरोप है कि सरकार कॉरपोरेट कंपनियों के साथ नत्थी होकर आदिवासी इलाकों में लूट का अभियान छेड़े हुए है और जो भी आदिवासियों के हक़ का सवाल उठाता है उसे ‘माओवादी’ बता दिया जाता है।
उम्मीद है कि इस लेख को पढ़कर पाठकों को ‘वामी’ या ‘नक्सली’ होने का कुछ मतलब समझ में आया होगा। नक्सलबाड़ी की विरासत से ख़ुद को जोड़ने वाले अहिंसा और हिंसा, दोनों रास्ते पर हैं। आपका मतलब क्या है, यह आपको तय करना है।
हमारी तो इल्तिजा बस इतनी है कि अगली बार “मी टू अर्बन नक्सल’ कहने से पहले जिगर मुरादाबादी का ये शेर याद कर लीजिएगा-
ये इश्क नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजै,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.
(ऊपर की मुख्य तस्वीर में नक्सलबाड़ी गाँव में लगी कम्युनिस्ट नेताओं की मूर्तियाँ नज़र आ रही हैं जिन्हें नक्सलबाड़ी आंदोलन की प्रेरणा माना जाता है। बाएँ से लेनिन, स्टालिन, माओ, लिन प्याओ, चारू मजूमदार, सरोजदत्त और महादेव मुखर्जी।)