कार्टून, कार्टूनिस्ट, राज और समाज: इंसान के धड़ पर मछली की पूँछ!

देश के बाकी लोगों के लिए अच्छे दिन आये हैं या नहीं इसपर विवाद हो सकता है पर कार्टूनिस्ट और कार्टून विधा के लिए पिछले कुछ वर्ष वाकई ‘अच्छे दिन’ साबित हुए. एक ओर सरकार जनविरोधी नीतियाँ ला रही थी, सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों पर दमन कर रही थी वहीं पर दूसरी ओर कार्टून की बंजर होती जा रही जमीन फल-फूल रही थी बल्कि कार्टून के हिसाब से यह वक्त अबतक का सबसे क्रिएटिव वक्त बना दिया. रही सही कसर सोशल साइट्स ने पूरी कर दी. अब कार्टूनिस्ट धड़ल्ले से इन सोशल साइट्स पर अपना कार्टून अपलोड कर सकते थे और यही हुआ भी. देखते ही देखते सभी सोशल साइट्स कार्टूनों से लद गए.

26 जनवरी 1950 के दिन डाक्टर बाबा साहब अम्बेडकर संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि, “हम अंतर्विरोधों के समय में प्रवेश करने जा रहे हैं. हमने अपने राजनीति में एक व्यक्ति एक वोट को अपनाते हुए एक व्यक्ति की अहमियत को अपना लिया है पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमने एक व्यक्ति को सामाजिक और आर्थिक बराबरी का अधिकार नहीं दिया है. हम इस अंतर्विरोध को लेकर भला कब तक चल सकते हैं? हम कब तक किसी इंसान को उसके सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में बराबरी के अधिकार से वंचित कर सकते हैं? अगर हमने आर्थिक और सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए अभी कदम नहीं उठाये तो यह आने वाले दिनों में हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा बन जायेगा. अगर हमने अभी कदम नहीं उठाये तो आर्थिक-सामाजिक विषमता हमारे लोकतंत्र को ख़त्म कर देगी..”
हालाँकि यह डा. अम्बेडकर के कथन का शब्दशः अनुवाद नहीं है पर वह जो कहना चाहते थे उसका कुल लब्बोलुआब यह है कि ‘इंसान के धड़ पर मछली की पूंछ’ मत लगाओ क्योंकि मरमेड वगैरह कहानी में ठीक लगती हैं पर हकीकत की जिंदगी में इनसे कुछ हो नहीं पायेगा . न यह पानी में रहने के काबिल हैं और न ही इनसे जमीन पर जिंदगी बसर हो पायेगी.

डा. आंबेडकर को बोलना था सो बोल दिया. मानना-न मानना हम लोगों पर था. भारतीय समाज ने उनकी इन बातों को कितना माना यह तो नहीं पता पर भारत के मिडिया ने इस ‘इंसान के धड़ पर मछली की पूंछ माडल’ को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया. इस प्रकार शुरू होती है भारत में पत्रकारिता. यहाँ सोच से लेकर टेक्नोलोजी सब आयातित थे बस पाठक देसी थे. इस कहानी को जानने के लिए थोडा फ्लेश बैक में जाना जरूरी है.

 

भारत में पत्रकारिता की कहानी

तो किस्सा ये है कि जेम्स अगस्तस हिकी नामी एक आयरिश शख्श ने 1780-82 के दरमियान दो साल ‘हिकी-स बंगाल गजट’ निकाला. कहते हैं इस गजट को निकलने के चलते खुद हिकी साहब का बजट बिगड़ गया. जनाब हिकी उन दिनों के भारत के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स और उनकी नीतियों की खूब आलोचना करते थे. इसलिए गवर्नर साहब ने अखबार को ही बंद कर दिया.

सन 1818 के 23 मई को कलकत्ता के पास बसे श्रीरामपुर के बापटिस्ट मिशनरी सोसाइटी ने ‘समाचार दर्पण’ पत्रिका की शुरुआत की जिसे देश का पहला वर्नाकुलर पत्रिका कहा जाता है. किस्सा मुख़्तसर ये है कि भारत में अखबार या मिडिया दोनों यूरोपीय समाज की उपज थीं. हत्ता कि देश की दोनों पत्रिकाएँ भी यूरोपियों द्वारा ही शुरू की गयीं.

बाद में अख़बारों की संख्या बढ़ी और लोगों में (‘भद्रलोक’ और पढ़े-लिखे) अखबार को पढने की आदत भी विकसित हुई. दिलचस्प यह है कि भले ही अखबार,फिल्म,चाय,सिगरेट वहैरह अंग्रेजों की देन है पर फिल्म, चाय और सिगरेट ने जल्द ही ‘भद्रलोक’ का दामन छोड़ कर आम नागरिकों तक अपनी पहुँच बना ली जबकि अखबार शुद्ध तौर पर ‘भद्रलोक’ के घरों तक सीमित रही. इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह थी कि किसी अखबार/पत्रिका का प्रचार,समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ जुड़ा हुआ था . एक अनुमान के मुताबिक ब्रिटिश राज के शुरूआती दिनों में भारत में केवल 3.2 फीसदी आबादी शिक्षित थी.

 

 


अख़बार में कार्टून की जरूरत ही क्या थी?

शुरूआती दिनों में तकनीक के मामले में भारतीय पत्रकारिता पूरी तरह से यूरोप पर निर्भर थी. छपाई की तकनीक अभी भी अपने ‘बाल-कांड’ अवस्था में थी. ‘हाफटोन’ या ग्रे-स्केल’ में छपाई कोई सोच भी नहीं सकता था. आनेवाले दिनों में बेशक कागज के उत्पादन, छपाई की स्याही में विकास होता रहा पर जहां तक छपाई की तकनीक का सवाल था वह अगले ढाई सौ वर्षों लगभग यह एक जैसी रही यानी मूल छपाई ‘लाइन-ड्राइंग’ में ही होती थी. इसकी सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि किसी फोटो को छापना बहुत बड़ा सरदर्द था.फोटो छापना न केवल मुश्किल था बल्कि महंगा भी था और समय भी बहुत लेता था. पाक्षिक, मासिक, साप्ताहिक पत्रिकाओं के पास इतना वक्त होता था कि वह कुछ फ्होतोग्रफ यदा कदा छाप लें पर दैनिक अख़बारों के लिए ये बड़ी दूर की कौड़ी थी. बेशक, कुछ खास मौकों पर दैनिक अख़बारों को फोटो छापने पड़ते थे पर प्रिंट की क्वालिटी ऐसी लाजवाब होती थी की पूछिए मत. छपने के बाद इंदिरा गाँधी और राजनारायण में फर्क करना मुश्किल होता था.

मुश्किल यह था कि अखबार-खबर वैसे भी एक नीरस चीज होती है. ऐसे में बगैर फोटो या चित्र के अखबार बड़े बोर साबित हो रहे थे.इस खाली स्थान को पूरा किया एक नए हुनर ने जिसे कार्टून कहा जाता है. कार्टून या व्यंग्य-चित्र की खासियत यह थी कि यह अपने आप में चित्र या विजुअल की कमी को पूरा करता था, अपने आप में व्यंग भी था और सबसे बड़ी खूबी यह थी कि यह अपने आप में एक रेखाचित्र (line drawing) था जिसे बगैर ज्यादा खर्चे के और कम समय में रोज बी रोज आसानी से छापा जा सकता था ( अब क्या बच्चे की जान लोगे?)
अख़बारों ने हाथों हाथ कार्टून को लपक लिया. एक कार्टून ने अखबार के पन्नो के न केवल अक्षरों के मोनोटोनी को ख़त्म किया बल्कि व्यंग्य के चलते यह पाठकों द्वारा भी खूब पसंद किये जाने लगे. जल्द ही कार्टून की विधा ने अपने आप को स्थापित कर लिया. जहां तक कार्टूनिस्ट की बात थी वह तो साहब रातों-रात ‘डेमी-गॉड’ बन गए. उनकी प्रसिध्धि को इस बात से आँका जा सकता है कि कभी किसी कार्टूनिस्ट को देश का प्रधानमंत्री चाय पर बुला रहा है तो कभी पता चलता कि देश के एक प्रमुख ( अंग्रेजी) अख़बार में कार्टूनिस्ट की पगार उसके संपादक से भी अधिक है.

सबसे दिलचस्प यह है कि कमोबेश यह स्थिति भारत में दो सौ वर्षों से ज्यादा समय तक बनी रही. यकीन मानिए यह हालत नब्बे के दशक तक जस के तस रहे और लगभग इतने दिनों तक कार्टून और कार्टूनिस्ट ने जमकर राज किया.

इसका यह कतई मतलब नहीं था की कार्टूनिस्टों पर कभी गाज नहीं गिरी पर वह अपवाद हैं. इमरजेंसी के दौरान कई कार्टूनिस्टों की नौकरी गयी. कुछ को जेल की हवा भी खानी पड़ी पर यह तो दूसरे पत्रकारों के साथ भी हुआ था. बड़े-बड़े दिग्गज संपादक जिस इमरजेंसी के दौरान चूं तक नहीं कर रहे थे वहाँ एक कार्टूनिस्ट की क्या बिसात?

 

कार्टून विधा के सूरज का अस्त होना

समय ने करवट बदली. विडम्बना देखिये, कार्टूनिस्ट के इस अडिग स्थान को चुनौती किसी प्रतिष्ठान से या किसी राजनैतिक उथल-पुथल से नहीं बल्कि कुछ सॉफ्टवेयर और एक अदद प्रिंटिंग मशीन  यानी टेक्लीनोलॉजी से मिली. साफ्टवेयर का नाम था ‘क्वार्क-एक्सप्रेस’, ‘फोटोशोप’ और प्रिंटिंग मशीन का नाम था ‘ओफ़्सेट-प्रिंटिंग’ मशीन. इस नयी टेक्नोलोजी से अब न केवल ब्लैक एंड व्हाइट फोटो बल्कि रंगीन फोटो छापना भी बहुत ही आसान हो गया था.

फोटो अपने आप में एक खबर भी थी और इससे अखबार खूबसूरत लगता था. जल्द ही अखबार फोटो से सज धज कर छपने लगे.जब फोटो छपने लगे तब विज्ञापन छपने से कौन रोक सकता था भला. जल्द ही अखबार रंगीन विज्ञापनों और फोटो से बहर गए. इस रंगीन दुनिया में ब्लैक एंड व्हाइट कार्टून की कद्र कौन करता? उसकी अहमियत अब ख़त्म हो चुकी थी. कार्टून भले ही लोगों के द्वारा पसंद किये जाएँ पर सत्ता की आँखों को यह हमेशा खटकते थे. एक फोटो के साथ यह खतरा भी नहीं था बल्कि फोटो की एक news value थी जो किसी खबर की विश्वसनीयता को और भी बढाता था. इसका एक आर्थिक पक्ष भी था की एक कार्टूनिस्ट की तन्खवाह पर कई फोटो-ग्राफर रखे जा सकते थे. जल्द ही वह दिन आया जब कार्टूनिस्ट किसी अख़बार के लिए एक asset की जगह liability बन गए और उन्हें चलता किया जाने लगा. यह कुछ वैसा ही था जैसे कभी रंगीन टीवी आने से लाखों ब्लैक एंड वाइट टीवी बनाए वाले बेरोजगार हो गए थे या कसेट ने रिकार्ड के लोगों को बेरोजगार लिया और बाद में सीडी ने कसेट से जुड़े लोगों को. बाजार अर्थव्यवस्था शायद इसी तरीके से काम करती है.

दिलचस्प है कि हम अक्सर अखबार से कार्टूनिस्ट ख़त्म होने का रोना रोते हैं पर इस नयी तकनीक ने केवल एक कार्टूनिस्ट ही नहीं बल्कि बड़ी संख्या के लोगों को रातों रात बेरोजगार कर दिया. यह लोग थे पेस्टर, टाइप-सेटर और प्रूफ रीडर इत्यादि. हमारे सोच की खूबसूरती दिखिए कि चूँकि यह पेस्टर, टाइप-सेटर और प्रूफ रीडर इत्यादि लोग एक अखबार/पत्रिका के उत्पादन प्रक्रिया में सबसे निचले पायदान में आते थे सो इस बड़ी संख्या के लोगों के चुपचाप अखबार से निकल कर चले जाने का किसी ने अफ़सोस नहीं जताया. यह सब लोग इस नयी तकनीक के आने के बाद अखबार के लिए बेकार सिद्ध हो गए और बेरोजगार की भीड़ में या तो खो गए या उन्होंने कोई नया काम शुरू कर दिया. मैं एक को जनता हूँ. पेशे से वह पेस्टर थे. अपनी जिंदगी के पचासवें वर्ष में किसी अखबार में बीस साल काम करने के बाद उन्होंने एक दिन एग-रोल, ‘चाउमीन’ की दूकान खोल ली. क्या करते आखिर वे? उनको एक दिन नौकरी से निकाल दिया गया यह कह कर कि अब उनकी कोई जरूरत नहीं है. अपनी पूरी जिंदगी किसी अखबार में काम करने वाले इन हजारों लोगों के चले जाने को किसी ने तवज्जो नहीं दी क्योंकि यह पेस्टर, टाइप-सेटर और प्रूफ रीडर इत्यादि लोग एक कार्टूनिस्ट के जैसे किसी अखबार के ‘हीरो’ नहीं थे.

 

 

‘सीज़र की बीवी’ का आविर्भाव और भारत में कार्टून का ‘पुनर्जन्म’

पिछले दो दशक कार्टून विधा या कार्टूनिस्ट के लिए बहुत बुरे रहे. अख़बारों में उनके लिए जगह नहीं थी. जहां थी भी वहाँ उनके बीते दिनों के शान-ओ-शौकत जैसा कुछ नहीं था. एक विधा के रूप में कार्टून की तासीर ही कुछ बगावती है और यही वजह है कि यह सत्ता को कभी पसंद नहीं आई. सत्ता ने हमेशा गाहे-बगाहे अपनी इस नाराजगी को जगजाहिर भी किया. पर यह भी इतना ही सच है की जब-जब सत्ता निरंकुश हुयी तब तब उसने कार्टून नाम की विधा में नई जान फूंकी. हालिया इतिहास में इमरजेंसी इसका सबसे अच्छा उदहारण है. इस लिहाज से भारत के political cartoon को परिपक्व बनाने का श्रेय केवल और केवल इंदिरा गांधी को जाता है क्योंकि इमरजेंसी के दिनों हमारे देश में कुछ सबसे अच्छे और बेहतरीन कार्टून बने.

समय ने एक बार फिर से करवट बदला. कुछ सात एक साल पहले भारतीय राजनीति में ‘जुलियर सीजर की बीवी’ का आविर्भाव होता है जो ‘किसी भी संशय से ऊपर है’. इसका असर यह होता है कि पहली बार राजनैतिक कार्टून से किसी महान नेता का चहेरा एकदम से और यकायक गायब हो जाता है. तथाकथित मेन स्ट्रीम अख़बारों में महान नेता पर कार्टून बनने बंद हो जाते हैं. कभी-कभार अपवाद स्वरुप बनते भी हैं तो indirect way में, जैसे कभी महान नेता की पीठ दिखा दी गयी या कभी केवल उनके जैकेट या कुते को दिखा दिया गया. यह एक नया प्रयोग था जो भारतीय मिडिया में पहली बार किया गया. नेता पर कार्टून न बनाना अपने आप में वाकई एक ‘क्रांतिकारी’ प्रयोग था. यह इस बात का सीधा प्रमाण था कि मिडिया ने पूरी तरह से सत्ता के सामने समर्पण कर दिया है.

देश के बाकी लोगों के लिए अच्छे दिन आये हैं या नहीं इसपर विवाद हो सकता है पर कार्टूनिस्ट और कार्टून विधा के लिए पिछले कुछ वर्ष वाकई ‘अच्छे दिन’ साबित हुए. एक ओर सरकार जनविरोधी नीतियाँ ला रही थी, सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों पर दमन कर रही थी वहीं पर दूसरी ओर कार्टून की बंजर होती जा रही जमीन फल-फूल रही थी बल्कि कार्टून के हिसाब से यह वक्त अबतक का सबसे क्रिएटिव वक्त बना दिया. रही सही कसर सोशल साइट्स ने पूरी कर दी. अब कार्टूनिस्ट धड़ल्ले से इन सोशल साइट्स पर अपना कार्टून अपलोड कर सकते थे और यही हुआ भी. देखते ही देखते सभी सोशल साइट्स कार्टूनों से लद गए.

एक और मजेदार बात हुई. इन सोशल साइट्स ने पहली बार कार्टूनिस्टों को किसी अखबार या उसके सम्पादकीय नीतियों से भी आजादी दिलवाई. कभी एक वक्त था जब अखबार कहते थे कि उन्हें कार्टून या कार्टूनिस्टों की जरूरत नहीं है. आज कार्टूनिस्ट कह रहे हैं कि अब उन्हें अपने कार्टूनों के लिए किसी अखबार की जरूरत नहीं है. शायद इसी को Poetic justice कहते हैं.

 

कैसे होंगे आने वाले दिन?

इसका सही जवाब शायद बीजन दारूवाला के पास था पर प्राकृतिक वजहों से उनकी राय का मिलना अब मुमकिन नहीं. बहरहाल पिछले कुछ वर्षों के दमनकारी शासन व्यवस्था और उसकी जनविरोधी नीतियों ने इतना तो सिद्ध कर दिया है कि कार्टून अपने आप में केवल एक फोटो के न छाप पाने के मजबूरी का प्लान ‘बी’ नहीं है. किसी भी समय विशेष में कार्टून और व्यंग्य, दमनकारी सत्ता से आम इंसान के लड़ने का सबसे मुकम्मल हथियार होता आया है. तो क्या कार्टून का भविष्य सोशल साइट्स हैं?

जवाब है, नहीं. सोशल साइट्स ने कार्टून को अख़बारों से बेशक आजादी दिलवाई है पर यह आजादी अधूरी है क्योंकि आज भले ही इस विधा को व्यापक लोकप्रियता हासिल है उसे आज भी एक प्रोफेशन के रूप में न देख कर एक ‘शौक’ के रूप में देखा जाता है. इस हिसाब से आज के सन्दर्भ में कार्टून काफी हद तक उस Alternative media जैसा है जिसे लोग पढना तो चाहते हैं उसकी अहमियत भी समझते हैं पर उन खबरों या लेखों का मूल्य नहीं चुकाना चाहते.एक आम पाठक के लिए सोशल साइट्स के वैकल्पिक समाचार माध्यम आज किसी व्यक्ति विशेष के शौक से कम नहीं हैं. ऐसे में केवल वैकल्पिक प्लेटफार्म बनने से काम नहीं चलने वाला. आने वाले दिनों में हमें वैकल्पिक पाठक भी तैयार करने होंगे जो वैकल्पिक कला ( Alternative art) के ग्राहक और स्पांसर भी बनेंगे. यानी किसी वैकल्पिक मिडिया के लिए पाठक पैसे भी देंगे. फिलहाल के दौर में सोशल साइट्स पूंजीवादी मॉडल के बाजार का एक उत्पाद है जिसका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है. परेशानी यह है कि एक मॉडल के रूप में पूंजीवाद न केवल अपनी हद को जता चुका है बल्कि यह भी जता चूका है कि एक व्यवस्था के रूप में मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था खुद अपने शरीर को खा कर जिन्दा है. दूसरी और किसी ‘समाजवादी’ मॉडल की बात करना भी बेमानी है क्योंकि यहाँ किसी मुनाफाखोर व्यापारी की जगह पर एक दकियानूस और निरा मूर्ख व्यक्ति की तानाशाही है जिसे ‘पार्टी सेक्रेटरी’ कहते हैं. यहाँ तानाशाही का ये आलम है कि ‘पार्टी के अखबार’ कभी भी कार्टून नहीं छापते. हँसना मना है भाई!

बेशक हमें आज ट्वीटर, फेसबुक, इन्स्टाग्राम जैसे सोशल साइट्स ने कार्टून को नया जीवनदान दिया है पर केवल इन्ही के भरोसे बैठना भारी भूल होगी क्योंकि सोशल साइट्स अपने आप में पूंजीवाद और जनतंत्र के घपले पर आधारित हैं. यह देखने में भले ही बड़े जनतान्त्रिक लगें पर जहां मुनाफे घटने या बाजार खोने का खतरा होता है यह तुरंत सत्ता के कदम चूमने लगते हैं और रातों रात किसी मंजुल को नौकरी से निकाल दिया जाता है या संपादकों/पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है.आज की डेट में कोई भी अखबार, मिडिया हाउस किसी भी पत्रकार/कार्टूनिस्ट को भला एक नोटिस पर कैसे निकाल सकता है? क्योंकि हमने आर्थिक और सामाजिक बराबरी को अपनाये बगैर राजनैतिक बराबरी का भरम पाल लिया. यह मॉडल अपने आप में एक ‘मरमेड’ या ‘नरसिंह-अवतार’ से कम खतरनाक नहीं.

डा. अम्बेडकर ने इसी ओर इशारा किया था.

 

लेखक कार्टूनिस्ट और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

*सभी कार्टून सोशल मीडिया से साभार।

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