कोरोना काल- महामारी ने वैश्वीकरण के झूठे दावों और राष्ट्रवाद के खोखलेपन को उजागर कर दिया

   धर्मराज कुमार

पूरी दुनिया में कोरोना महामारी ने वैश्वीकरण के झूठे दावे और राष्ट्रवाद की अवधारणा के खोखलेपन को उजागर कर दिया है. अतीत में, दुनिया में हुए विषाणु जनित रोगों से हुई मौतें मानव द्वारा चिकित्सा के क्षेत्र में हुए सीमित विकास को उजागर करती थीं. साथ ही, हर बड़ी महामारी यह सन्देश देकर जाती थी कि मानव प्रजाति को सुरक्षित रहने के लिए चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास करने की आवश्यकता है. जिसका प्रभाव धीरे-धीरे समाज और राजनीति में देखने को मिलता था.

लेकिन कोरोना वायरस महामारी एक ऐसी महामारी के रूप में उभरी है जहाँ लोग चिकित्सा के क्षेत्र में हुए उद्भव एवं पतन से अधिक चर्चा दुनिया के राजनीतिक स्वरूप पर करने को बाध्य हैं. इसका सबसे बड़ा कारण यह हो सकता है कि दुनिया में भले ही बड़ी-बड़ी महामारियाँ आईं जिसने लगभग दुनिया की आधी आबादी तक को प्रभावित किया, लेकिन एक ही समय में पूरी दुनिया को एक साथ समान रूप से प्रभावित करने वाली महामारी के रूप में कोरोना वायरस संभवतः पहला है.

इस वैश्विक आपातकाल को जन्म देने वाली कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में लोकप्रिय किये गए वैश्वीकरण के झूठे दावों और खोखले राष्ट्रवाद के नग्न स्वरूप को हमारे सामने रख दिया है, जो वर्तमान समय में एक गंभीर बहस का विषय है. इसका मुख्य कारण क्या है? इसे समझने के लिए हमें अपने वर्तमान पर एक सारगर्भित दृष्टि डालना होगा.

कोरोना महामारी से ठीक पहले की दुनिया

क्या आपको याद है कि पूरी दुनिया के लोग कोरोना महामारी के कारण घर में कैद होने के पहले कहाँ थे? आश्चर्य है कि इसका उत्तर दुनिया के तमाम हिस्सों के मद्देनज़र भी एक ही है! अगर पूरी दुनिया की घटनाओं पर एक विहंगम दृष्टिपात करेंगे तो भान होगा कि पूरी दुनिया के लोग एक-दूसरे के सामने राजनीतिक प्रतिद्वंदी के रूप में आमने-सामने खड़े थे, लड़ रहे थे, या संघर्ष कर रहे थे. दो राजनीतिक गुटों में बहुत बड़ी लड़ाई छिड़ी थी. भारत में जहाँ नागरिकता संशोधन कानून- 2019  का देशव्यापी विरोधी हो रहा था, जिसकी गूँज पूरी दुनिया में सुनाई देने लगी थी, जिसमें मुस्लिम समुदाय सीधे फासीवादी राजनीति के निशाने पर था.

वहीं चीन अपने विशाल जनसंख्या के मद्देनज़र रोजगार की अनिश्चितता को कम करने के लिए नए बाज़ार की तलाश कर रहा था. पाकिस्तान अपने देश के कर्ज को कम करने की जुगत में चीन की तरफ तेजी से बढ़ रहा था और नेपाल चीन की सहायता से एक सशक्त देश के रूप में खुद को उभारने की कोशिश में था. उत्तरी अमेरिका में जहाँ राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प अमेरिका को महाशक्ति के रूप में बनाए रखने का श्रेय लेते हुए चुनाव में पुनः जीत की तैयारी कर रहे थे, वहीं दक्षिण अमेरिका में एक बार फिर से जन मुद्दों पर जनता रोड पर आ चुकी थी, हाल में जिसका मुख्य केंद्र चिली बना.

ब्राज़ील में दक्षिणपंथी राजनीति हावी होने के फलस्वरूप अमेजन के जंगलों में आग लगा दी गई, जिसका विश्व स्तर पर विरोध हो रहा था. यूरोप के देशों में भी लगभग ऐसे ही हालात थे. जर्मनी में कुछ नव-फासीवादी संगठनों का उभार हुआ तथा अन्य यूरोपीय देशों में इन संगठनों की छोटी-छोटी रैलियाँ भी निकाली जा चुकी थीं. हालाँकि, दक्षिण अमेरिका के देशों और यूरोपीय देशों में बहुत बड़े स्तर पर नारीवादी आंदोलनों का अकल्पनीय प्रसार देखने को मिला. मध्य एशिया के देशों में हमेशा की तरह अमेरिकी हस्तक्षेप से बढ़ते-घटते राजनीतिक उठापटक बरक़रार था जिसमें मध्य एशियाई देशों के लोगों की जान बदस्तूर जा रही है.

संभव है कोरोना महामारी से पहले की ये वैश्विक परिघटनाएं आपकी नज़रों से ओझल हो गईं हो लेकिन पूरी दुनिया में कोरोना के होने वाले वैश्विक प्रभाव को समझने के लिए उनका स्मरण आवश्यक है क्योंकि दुनिया में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक पटल पर ऐसा दृश्य फिर से उभरा है जब पूरी दुनिया में सत्ता पर कट्टर दक्षिणपंथी काबिज़ हैं. हालाँकि, अन्य विद्वानों का यह भी मत है कि ऐसी परिस्थिति द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उभरी है. लेकिन मेरी दृष्टि में यह प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ऐसा हुआ है क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय या तुरंत बाद फासीवादी, पूंजीवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों से लड़कर प्रगतिशील रूस का उभार हो चुका था.

द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरंत बाद उभरे नए महाशक्ति के रूप में अमेरिका के साम्राज्यवादी विस्तार को वियतनाम और क्यूबा जैसे देश आकार में छोटे होने के बावजूद पूरी शक्ति से रोकने में अनुकरणीय मिसाल पेश कर रहे थे. ध्यातव्य है कि इन साम्राज्यवादी ताकतों के उभार के पीछे जिस राजनीतिक अवधारणा की भूमिका थी, वह राष्ट्रवाद की ही भावना थी. यह गहन चिंतन का विषय है कि जब कभी राष्ट्रवाद की भावना को व्यापक स्तर पर हवा दी गई है मानव प्रजाति का अस्तित्व संकट में आया है. कोरोना से पहले, पूरी दुनिया में इसी घातक राष्ट्रवाद की हवा चल रही थी. कोरोना वायरस इस राष्ट्रवाद के हवा के सामने दीवार बनकर आ खड़ी हुई है. कैसे? आइये इसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझें.

भारत में पलायन करते छात्र और मजदूर और पलायन करता राष्ट्रवाद

याद कीजिए 2016 का मार्च महीना जब पूरे देश में एक भारतीय केन्द्रीय विश्वविद्यालय (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) को सत्ता समर्थित मीडिया द्वारा ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की उपाधि देकर आतंक का पर्याय बना दिया गया. भाजपा जैसे कट्टर दक्षिणपंथी दल के जीतने के लगभग तुरंत ही आखिर जेएनयू को ही इस राजनीति का शिकार क्यों होना पड़ा? इसका उत्तर न तो भाजपा सरकार से मिल सकता है न जेएनयू से. इस उत्तर को समझने के लिए हमें विश्वविद्यालय से निकलकर पूरी दुनिया में चल रहे जनवादी संघर्षों को समझना होगा. हमें समझना होगा कि दरअसल विश्वविद्यालय के आतंरिक ढाँचे का आधार उसके भीतर नहीं, बल्कि सामाजिक परिवेश और उसकी राजनीति में होता है.

मतलब यह कि जेएनयू पर हमला इसलिए किया गया क्योंकि वहाँ समाज और उससे संचालित शोषणकारी राजनीति पर खुलकर चर्चा होती रही है. वहाँ उन तमाम लोगों की स्थिति के बारे में चिंतन किया जाता है जिसके बिना हमारा अस्तित्व संभव नहीं है. वहाँ छात्र और मजदूर के बारे में बात की जाती है. उस छात्र और मजदूर की असीम संघर्ष की शक्ति को हर रोज याद किया जाता है जिसमें शोषणयुक्त समाज को बदलने की क्षमता होती है. अतः, हिन्दूवादी राष्ट्रवाद के नाम पर आम लोगों के संघर्ष को कुचला गया था, न कि जेएनयू को. दरअसल, इतिहास गवाह है कि जब कोई भी संस्था या व्यक्ति का समूह या व्यक्ति मानवता के मूल्यों की बात करता है तो उसे चरमपंथी राष्ट्रवाद की आड़ में कुचल देते हैं. इस राष्ट्रवाद का एक नाम भी होता है. हिटलर के समय इस राष्ट्रवाद का नाम आर्य राष्ट्रवाद था, भारत में इसका नाम हिन्दू राष्ट्रवाद है.

ऐसा नहीं है भारत में ऐसा पहली बार हो रहा है. बल्कि इसकी अनुगूँज स्वतंत्रता के पहले भी सुनाई देती थी, जिसका पुरजोर वैचारिक खंडन रविंद्रनाथ टैगोर और डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे चिंतकों ने किया. जब-जब मानवीय मूल्यों की भौतिक जरूरतों को राष्ट्रवाद की आड़ में कुचलने की कोशिश होती है, उसी वक़्त ऐसी परिस्थिति का भी निर्माण होता है जब खोखले राष्ट्रवाद की शिनाख्त अवश्यम्भावी हो जाती है.

कोरोना महामारी ने एक ऐसी ही वैश्विक परिस्थिति का निर्माण किया है. हाल के कुछ वर्षों में, जिस राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण की शक्ति की दुहाई दी जा रही थी, वह फिलहाल लाचार है. पूरी दुनिया अपने छोटे रूप में सिमट जाना चाहती है. रोचक विरोधाभास है कि जिस वैश्वीकरण और राष्ट्रवाद के अंतर्गत भव्यता और व्यापकता का बवंडर खड़ा किया जाता रहा है, आज वह सिर्फ एक खोखला नारा बनकर रह गया है.

यह जानकारी आम हो चुकी है कि अमेरिका में कोरोना से बचने के लिए खर्च की जानेवाली राशि के वितरण में क्षेत्र और नस्ल के आधार पर भेदभाव की चर्चा हो रही है. पूरी दुनिया में लोगों के बीच संबंधों में अपने और पराये की भावना एकदम अन्दर तक घर कर गई है. हर देश अपने यहाँ के आये सैलानियों को मनुष्य समझने के बजाय देश पर बोझ समझ रहा हैं. कल तक जो सैलानी किसी देश के लिए अर्थव्यवस्था का श्रोत होता था, आज वह अचानक से बोझ लगने लगा है.

दरअसल, आपातकाल में मनुष्य ऐसे ही बर्ताव करता है. पूरी दुनिया में अभी यही स्थिति है. इसलिए मानव समुदाय को निरंतर एक ऐसे समाज के निर्माण में लगे रहने की आवश्यकता है जो आपातकाल में एक दूसरे को बोझ समझने के बजाय साथ खड़ा हो सके.

भारत में तो यह स्थिति और भी भयावह है. दरअसल, कोरोना महामारी के बाद भारत में जैसे ही प्रधानमन्त्री ने सम्पूर्ण भारत बंद (लॉकडाउन) की घोषणा की, वैसे ही हम चाहे कुछ भी रहे हों, लेकिन भारतीय का बहुत बड़ा अंश घटकर क्षेत्रीयता ने ले लिया. राष्ट्रवाद का स्थान देश को बनाने वाले मजदूरों के विस्थापन ने ले लिया. अब मजदूरों की भारतीय नागरिकता घटकर क्षेत्रीय अस्मिता तक रह गई. छात्रों की भी यही स्थिति हुई. कहाँ है भारत और भारतीय नागरिक?

भारत की राष्ट्रीय अस्मिता पर छद्म राष्ट्रवादियों का हमला

पूरे भारत के राज्यों के मुख्यमंत्री में यह अब विवाद का विषय हो गया है कि किस प्रदेश का मुख्यमंत्री अपने प्रदेश से पलायन करने वाले मजदूरों और छात्रों को वापस बुला रहा है? पूरे भारत में यह विवाद एक राजनीतिक हथियार का रूप ले चुका है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जहाँ एक तरफ राजस्थान के कोटा में फंसे उत्तरप्रदेश के विद्यार्थियों को लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन कर बस से वापस बुला कर अपने प्रदेश प्रेम का ढोंग रच रहे हैं, वहीं भारत के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दबी जुबान से दूसरे राज्य से आये हुए मजदूरों और छात्रों को इस आपातकाल में सहायता से देने में निर्लज्जता का प्रदर्शन कर रहे हैं.

दरअसल, सरकार का यह रुख जनता द्वारा चुनी सरकार का नहीं है, बल्कि पूंजीपतियों के प्रश्रय में पलते उस फासीवादी राजनीति का है जिसे लोकतंत्र के कारण जनता का शासन माना जा रहा है. ध्यान रहे कि अतीत में फासीवादी सरकारों की स्थापना भी इस लोकतांत्रिक प्रणाली से हुई थी. बहरहाल, कोरोना महामारी के दौरान सम्पूर्ण भारत बंद में फँसे मजदूरों और छात्रों की लाचार स्थिति पर जो अन्य राज्यों में फंसे होने की दुहाई दी जा रही है, उससे भारत की संकल्पना आहत हो रही है.

कोरोना महामारी से उपजे आपातकाल में भारतीय मजदूर और छात्र अब बिहारी, यूपी, राजस्थानी, उड़िया, बंगाली, पंजाबी, इत्यादि प्रादेशिक अस्मिताओं में कैद कर दिए गए हैं. मजदूरों और छात्रों के मुद्दे पर भारत और समग्र और एकीकृत भारतीय अस्मिता का लोप हो गया है. राज्य के मुख्यमंत्री जो दूसरे प्रदेश के विस्थापित मजदूरों की मदद कर रहे हैं वो निरंतर इसका एहसान भी जता रहे हैं. वे साबित करने की जुगत में हैं कि वे कुछ महान या अतिरिक्त जिम्मेदारी वहन कर रहे हैं.

इस आपातकाल में मजदूरों और छात्रों को उनके तथाकथित राज्यों की याद दिलाई जा रही है. वे यह भूल चुके हैं कि अंततः हम सबकी पहचान भारतीय के रूप में ही होनी चाहिए. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर भारत है कहाँ? क्या हमारे भारतीय होने का कोई विशेष मुहूर्त है कि बस उसी समय हम भारतीय होते हैं, शेष समय सिर्फ और सिर्फ किसी राज्य के निवासी? जब भारत के मजदूर को उनके राज्यों में वापस भागने पर मजबूर किया जा रहा है तो उनका देश कहाँ है? जब छात्रों को उनके सम्बंधित राज्यों में भागने पर मजबूर किया जा रहा है तो उनका देश कहाँ है?

विदित हो कि मजदूरों और छात्रों को न सिर्फ भगाया जा रहा है, बल्कि उनके भागने के लिए भी किसी प्रकार की यातायात की व्यवस्था नहीं की जा रही है. फलतः पूरे देश में करोड़ों मजदूर सपरिवार भारत के राष्ट्रीय राजमार्गों पर कई दिनों से न जाने कितने हज़ारों मीलों की पैदल यात्रा कर अपने तथाकथित घर के लिए चल चुके हैं. पूरे देश से हृदयविदारक घटनाएँ सुनने-पढ़ने को मिल रही है कि फलां मजदूर हजारों किमी चलकर अपने घर से ठीक पचास किमी पहले भूख और थकान से दम तोड़ दिया. हाल के दिनों में एक ज़ोमैटो कर्मचारी भूख से परेशान होकर दिल्ली से घर के लिए चला और रास्ते में ही दम तोड़ दिया. ऐसी हजारों घटनाएँ पूरे देश में निरंतर घट रही है और सरकारों को अभी तक होश ही नहीं कि वे सारे लोग इसी देश के निवासी थे.

असल में, हमें यह समझा दिया गया है कि कब मजदूरों का अपना देश होता है और वे कब देशविहीन हो जाते हैं! हमें समझा दिया गया है कि जो मजदूर पिछले चालीस वर्षों से दिल्ली महानगर निर्माण में, पिछले पचास वर्षों से पंजाब के खेतों में, तेलंगाना के खेतों में, महाराष्ट्र और गुजरात के फैक्ट्री में, दक्षिण भारत के राज्यों में या इन्हीं राज्यों के मजदूर किसी भी राज्य में पचास साल से बिना थके-हारे काम करके गाँव से महानगर बनाया, वही महानगर इन मजदूरों को महज पचास दिन सिर्फ दो जून की रोटी की व्यवस्था न कर सका. सम्मान की बात ही अलग है.

भारत के जो छात्र राजस्थान के कोटा में पढने गए और वहाँ की अर्थव्यवस्था को अभी तक वर्षों से बनाए हुए थे, उसी कोटा के लोगों ने छात्रों को भागने पर मजबूर कर दिया! गौरतलब है कि हम सामान्य काल में जो भारतीय होने के नाम पर अपने राष्ट्रवादी होने का स्वांग रचते हैं, उस खोखले राष्ट्रवाद को कोरोना ने महज दस-पंद्रह दिनों में उजागर कर दिया.

हालाँकि, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. यह चुनाव के समय अक्सर होता है. स्मरण रहे कि इसी दिल्ली चुनाव के ठीक पहले केजरीवाल ने अपनी शासकीय कुशलता के भोंडे प्रदर्शन के नाम पर कहा था कि बिहार और यूपी के लोग दिल्ली के अस्पतालों में सिर्फ पाँच सौ रूपये लेकर आते हैं और लाखों का इलाज की सुविधा लेकर चले जाते हैं. ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि वे दिल्ली के जिन अस्पतालों का हवाला देते हैं वह दिल्ली के नहीं है, पूरे भारत के हैं. भारत के हर संसाधन पर भारत के हर नागरिक का बराबर अधिकार है की बात जब भारत की राजधानी दिल्ली के शिक्षित मुख्यमंत्री के ज़ेहन से यूँ ही फिसलती रहती है तो अन्य सरकार के लोगों से क्या उम्मीद करना!

और हाँ, जब इस कोरोना आपातकाल में भारत के छात्रों और मजदूरों के लिए ‘भारत एक देश’ का अर्थ ही गौण हो चुका है तो फिर क्या केंद्र और क्या प्रधानमन्त्री!

ऐसे में भारी मन और व्यथित ह्रदय से एक ही बात आती है कि इस छद्म और नग्न राष्ट्रवाद के भोंडे प्रदर्शन के खिलाफ़ अपनी करनी कर गुजरो, जो होगा देखा जाएगा.


लेखक जवाहर नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी कर चुके हैं एवं समसामयिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं.

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