डॉ.आम्बेडकर को ‘हिंदू समाज-सुधारक’ बताने की साज़िश के पीछे क्या है?

 

सुभाष गाताडे

 

बीसवीं सदी के महान लोगों की अज़ीम शख्सियतों में शुमार डा अम्बेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसम्बर 1956 ) को कौन नहीं जानता ?

हिन्दोस्तां की सरज़मीं पर राजनीतिक आज़ादी और सामाजिक मुक्ति के लिए जो सरगर्मी बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में चली, उसके अग्रणी कर्णधारों में शामिल डा अम्बेडकर का अपना झंझावाती जीवन – जिसमें विचार और आंदोलन का अदभुत संगम था – आज भी तमाम तमाम लोगों के लिए प्रेरणा-स्रोत बना हुआ है।

यह अलग बात है कि विगत तीन दशक से अधिक समय से जबसे हिन्दोस्तां की सियासी-समाजी सरगर्मियों में हिन्दुत्व की दक्षिणपंथी ताकतों का बोलबाला बढ़ा है वहीं हम यह भी देखते हैं कि बेहद सचेत तरीके से डा अम्बेडकर की एक अलग छवि गढ़ी जा रही है जो आपसी नफरत को बढ़ावा देने में मुब्तिला इन ताकतों के लिए मुफीद जान पड़े। और वह है ‘हिन्दू समाज सुधारक’ की छवि।

अपने एकांगी किस्म के अतिवादी विचारों के चलते इस मुल्क की गंगा-जमनी सभ्यता को तार-तार कर देनेवाली इन ताकतों ने अब घोषित कर दिया है कि वह एक समाजसुधारक खासकर हिन्दू समाज सुधारक थे। इसके पीछे बेहद सरलीकृत किस्म का तर्क है, जो टिका है ‘भारतीय धर्मो’ पर और ‘विदेशी धर्मों पर’। यह पूछा जाता है कि आखिर क्यों नहीं डा अम्बेडकर ने इस्लाम या ईसाइयत स्वीकार की? इस प्रश्न का खुद ही उत्तर दिया जाता है क्योंकि वह ‘भारतीय’ धर्म के साथ ही जुड़े रहना चाहते थे। इस समूची बहस में यह बात पूरी तरह गायब की जाती है कि अम्बेडकर अपने लेखन में बार-बार ब्राह्मणी संस्कृति के खिलाफ चले श्रमण संस्कृति के संघर्ष की ओर लौटते हैं, बार-बार वह महात्मा बुद्ध के क्रान्तिकारी अवदानों की बात करते हैं।

किसी के लिए यह सुन कर आश्चर्य लग सकता है कि अपने लेखन एवम भाषणों से हिन्दू राज्य के खतरे के प्रति लोगों को निरन्तर आगाह करनेवाले, विषमता एवम चातुर्वर्ण्य पर टिकी उसकी मानव-द्रोही नैतिकता के लिए उस पर लगातार हमले करनेवाले और यह ऐलान कर उस पर अमल भी करनेवाले कि ‘मैं भले ही हिन्दू के तौर पर जनमा हूं, लेकिन हिन्दू के तौर पर मरूंगा नहीं’ डा अम्बेडकर, किस तरह अलसुबह हिन्दू समाज-सुधारक में रूपान्तरित हो सकते हैं।

अगर ऐसी शख्सियत को हम हिन्दू समाजसुधारक घोषित कर दें तो हमें महात्मा बुद्ध को भी – जिन्होंने ब्राह्मणी संस्कृति के दबदबे के खिलाफ बग़ावत की और एक अलग धर्म की नींव डाली – हिन्दू समाज सुधारक की कतारों में शामिल करना पडे़गा क्योंकि किसी समय उन्होंने भी किसी हिन्दू परिवार में जन्म लिया था।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टिशन आफ इण्डिया, पेज 358’ पर डा अम्बेडकर ने साफ कहा था कि- ‘अगर हिन्दू राज हक़ीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतंत्राता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है। उस आधार पर वह लोकतंत्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’

यह वही ताकतें हैं जिन्होंने मनुस्मृति के प्रति अपने अतिरिक्त प्रेम को कभी छिपाया नहीं है। जब स्वाधीन भारत के कर्णधार व्यक्तिगत अधिकारों को सर्वोच्च प्राथमिकता की बुनियाद पर तथा सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों के लिए विशेष अवसरों के आधार पर नये संविधान की रचना कर रहे थे, तब इन्हीं ताकतों ने जोरदार हिमायत की कि आखिर क्यों नहीं मनुस्मृति को भारत का संविधान बनाया जाये।

अगर हम बारीकी से देखें तो स्त्रियों को राजनीतिक-सामाजिक सक्रियताओं में उतारने की, उन्हें अधिकारों से लैस करने की चिन्ता हमें उनके समूचे जीवन में दिखती है।

अगर हम 50 के दशक में नेहरू मंत्रिमण्डल से उनके इस्तीफे पर गौर करें तो क्या वजह समझ में आती है। जहां वे इस बात के प्रति क्षुब्ध है कि अनुसूचित जातियों एवम जनजातियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के प्रति सरकार पर्याप्त गम्भीरता का परिचय नहीं दे रही हैं वहीं वे इस बात को विशेष तौर पर रेखांकित करते हैं कि उनके इस निर्णय लेने के पीछे ‘हिन्दु कोड बिल’ को लेकर नज़र आती सरकार की आनाकानी का मसला अहम था।

‘हिन्दू कोड बिल’ आख़िर था क्या?  दरअसल हिन्दू कोड बिल के जरिये आपसी सम्बन्ध-विच्छेद एवम जायदाद के मामले में हिन्दू महिलाओं को अधिकार दिए जा रहे थे। सभी जानते हैं कि उसके पहले हिन्दुओं में बहु-पत्नीप्रथा कायम थी, यहां तक कि तलाक या सम्पत्ति के मामले में उन्हें कोई अधिकार नहीं प्राप्त थे। हिन्दू कोड बिल को लेकर डा अम्बेडकर को जो जद्दोजहद करनी पड़ी वह अपने आप में एक रोचक इतिहास है। स्त्रियों को अधिकार-सम्पन्न कर ‘हिन्दू संस्कृति एव परम्परा को ध्वस्त करने’ की कोशिश करने के लिए कई बार उनके घर पर प्रदर्शन भी हुए। इस बिल को लेकर हिन्दुत्ववादी संगठनों का विरोध था बल्कि तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी के अन्दर मौजूद रूढिवादी/सनातनी तत्वों ने भी उनके इस कदम की लगातार मुखालिफ़त की थी।

इसमें भी कोई दो राय नहीं कि जब इन ताकतों का उतना बोलबाला नहीं था तब भी उनकी जो छवि अधिक चर्चित रही है, वह उनके विराट व्यक्तित्व और उनके महान योगदान के साथ मेल नहीं खाती रही है।

एक बात जो लगभग हमारे सहजबोध (कामन सेन्स) का हिस्सा बन गयी है, जो डा. अम्बेडकर के बारे में कही जाती है, कि वह ‘दलितों के मसीहा’ थे। दिलचस्प है कि समूचे राजनीतिक स्पेक्ट्रम में यह बात स्वीकार्य है। अपने आप को उनका सच्चा वारिस घोषित करनेवालों के लिए भी यह बात सुनकर कोई बेआरामी नहीं होती।

अगर उनके इस चित्रण को सही मान लें तो उनके लगभग चालीस साला राजनीतिक-सामाजिक जीवन के कई अहम पहलुओं पर चुप्पी साधनी पड़ती है। और यही बात स्वीकारनी पड़ती है कि मनु के विधान की स्वीकार्यतावाले हमारे समाज में – जिसने शूद्रों-अतिशूद्रों-स्त्रिायों की विशाल आबादी को तमाम मानवीय हकों से वंचित किया था- उन्होंने अतिशूद्रों के अधिकारों के लिए कुछ संघर्ष किया एवम कुछ रियायतें हासिल कीं।

फिर इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन हो जाता है कि क्या वे स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत नहीं रहे या क्या किसानों-मजदूरों की समस्या की ओर उनकी दृष्टि नहीं गयी, क्या जनता के आर्थिक सवालों से वह बेख़बर रहे या क्या वह शूद्रों-अतिशूद्रों का नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर करनेवाली जाति/जातियों के खिलाफ थे या उस मानसिकता के खिलाफ थे जिसने इस स्थिति का निर्माण किया था?

एक गुलाम मुल्क में उपनिवेशवादियों के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलनों के साथ एक सुविधा रहती हैं कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, समूचे जनसमुदाय का उन्हें समर्थन प्राप्त रहता है लेकिन बाबासाहेब की अपनी जद्दोजहद का अच्छा खासा हिस्सा समाज की अपनी बीमारियों, परम्पराओं, संस्थाओं के खिलाफ, उपनिवेशवादियों के आगमन से पहले से चली आ रही उस सामाजिक-धार्मिक निज़ाम के खिलाफ था। उनके सामने खड़ी चुनौती को आसानी से समझा जा सकता है जहां उन्हें उन लोगों को भी निशाने पर लेना पड़ रहा था जो खुद साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित थे या उसके विरोध में संघर्ष के लिए तैयार थे मगर जो खुद भारतीय समाज की उस मंज़िलनुमा बनावट के खिलाफ खडे़ होने के लिए तैयार नहीं थे।

लेकिन जहां तक उपनिवेशवाद को लेकर उनका रूख था, वह स्पष्ट था। डा अम्बेडकर द्वारा शुरू किए ‘जनता’ अख़बार में प्रसारित प्रारम्भिक वक्तव्य इसी की ताईद करता है।

राजनीतिक मामलों में ‘जनता’ स्वराज्यवादी है, यह बताने की जरूरत हमें नहीं लगती। इतनी स्वराज्य हासिल करने की हमारी इच्छा सहज और स्वाभाविक है। स्वराज्य हासिल होना मतलब सत्ता हाथ में आना। ऐसे ‘स्वराज्य’ की अर्थात स्वसत्ता की पददलित और पिछड़ी जनता को ही सबसे अधिक जरूरत है। पूंजीशाहों या उनके ब्राहमण आदि समुदायों से जुड़े अग्रणी तबके के हाथों स्वराज्य अर्थात राजनीतिक सत्ता रहने से महज उसका राजनीतिक महत्व बढ़ेगा ..अंग्रेजों के हाथ से सत्ता फिसलते हुए वह यहां के सेठों-पुरोहितों के हाथ में आयी तो इसका अर्थ ‘स्वराज्य प्राप्ति’ हुई, इस किस्म का स्वराज्य का सरलीकत अर्थ करने लायक जनता अब बेवकूफ नहीं रही.. विदेशी लोगों के हाथों से फिसलती सत्ता पददलित और अन्याय से पीड़ित और जनता के असली प्रतिनिधियों के हाथों जिन-जिन साधनों या उपायों से सीधे पहुंच सके, ऐसे साधनों और उपायों की हिमायत करना ‘जनता’ का राजनीतिक रूख होगा।

डा अम्बेडकर के जीवन के सबसे पहले ऐतिहासिक संघर्ष को ही देखें जब 1927 में महाड के चवदार तालाब पर सत्याग्रह करने वह पहुंचते हैं (19-20 मार्च) जिसके बारे में मराठी में हम कहते हैं कि जब ‘उन्होंने पानी में आग लगा दी।’

मालूम हो कि महाराष्ट्र के कोकण नामक इलाके के महाड नामक क्षेत्र के सार्वजनिक तालाब पर हजारों की संख्या में दलितों ने अन्य तमाम समानविचारी लोगों डॉ बाबासाहेब आम्बेडकर के नेतृत्व में एक सत्याग्रह किया था। यूँ तो कहने के लिए यह महज पानी पीने का हक था लेकिन इसकी विशिष्टता इसी में निहित थी कि सदियों से उच्च-नीच-अनुक्रम पर टिके, प्रदूषण एवम शुद्धता पर आधारित समाज के उत्पीड़ित-जनों ने अपने विद्रोह का एक संगठित हुंकार भरा था।

इस अवसर पर आयोजित सम्मेलन के प्रस्ताव गौर करनेलायक हैं। प्रस्तुत सम्मेलन में कई सारे महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गये। जंगल की जमीन दलितों को खेती के लिये दी जाय, उन्हें सरकारी नौकरियां मिलें, सरकार न केवल शिक्षा को अनिवार्य करे बल्कि 20 साल के छोटे लड़कों तथा 15 साल से छोटी लड़कियों की शादी पर भी पाबन्दी लगाये आदि विभिन्न आर्थिक सामाजिक मसलों पर प्रस्ताव मंजूर हुए । सरकार से अपील की गयी वह शराबबन्दी लागू करे तथा मरे हुए जानवरों का मांस खाने पर पाबंदी लगा दे । सम्मेलन में उच्चवर्णीयों से भी आवाहन किया कि वे अछूतों को उनके नागरिक अधिकार दिलाने में सहायता करें, उन्हें नौकरियां दें, अपने मरे हुए जानवरों को खुद दफनायें।

सत्याग्रह के दूसरे चरण में उन्होंने शुचिता तथा प्रदूषण के आधार पर उनके अपमान को जायज ठहराने वाले पवित्रा कहलानेवाले मनुस्मृति नामक ग्रंथ को भी आग के हवाले किया था। (25 दिसम्बर 1927)

सम्मेलन के अपने शुरूआती वक्तव्य में बाबासाहेब ने प्रस्तुत सत्याग्रह परिषद का उद्देश्य स्पष्ट किया:

‘‘अन्य लोगों की तरह हम भी इन्सान हैं, इस बात को साबित करने के लिए हम तालाब पर जाएंगे। अर्थात यह सभा समता संग्राम की शुरूआत करने के लिए ही बुलायी गयी है। आज की इस सभा और 5 मई 1789 को फ्रांसीसी लोगों की क्रांतिकारी राष्ट्रीय सभा में बहुत समानताएं हैं । .. इस राष्ट्रीय सभा ने राजा-रानी को सूली पर चढ़ाया था, सम्पन्न तबकों के लिए जीना मुश्किल कर दिया था, उनकी सम्पत्ति जब्त की थी। 15 साल से ज्यादा समय तक समूचे यूरोप में इसने अराजकता पैदा की थी, ऐसा इस पर आरोप लगता है। मेरे खयाल से ऐसे लोगों को इस सभा का वास्तविक निहितार्थ समझ नहीं आया।.. इसी सभा ने ‘जन्मजात मानवी अधिकारों को घोषणापत्रा जारी किया था.. इसने महज फ्रान्स में ही क्रान्ति को अंजाम नहीं दिया बल्कि समूची दुनिया में एक क्रांति को जनम दिया ऐसा कहना अनुचित नहीं होगाl’  उन्होंने अपील की थी इस सभा को फ्रेंच राष्ट्रीय सभा का लक्ष्य अपने सामने रखना चाहिए।

डा अम्बेडकर के जीवन और संघर्षों की व्यापकता जानना हों तो तीस का दशक कई मायनों में अहम दिखता है जिसमें वह सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर भी नयी जमीन तोड़ते प्रतीत होते हैं वहीं वह राजनीतिक-आर्थिक मसले पर भी एक अलग रास्ता अख्तियार करते नज़र आते हैं।

आम तौर पर तीस के दशक की कुछ घटनाओं के बारे में अधिक चर्चा होती है, जैसे पूना पैक्ट का प्रसंग हो या 2 मार्च 1930 से लेकर 3 मार्च 1934 तक नाशिक के कालाराम मन्दिर में दलितों के प्रवेश के लिए चला ऐतिहासिक सत्याग्रह हो – जो अन्ततः असफल हुआ – या इस सत्याग्रह की असफलता के बाद येवला, नाशिक की सभा (13 अक्तूबर 1935) में बाबासाहब द्वारा ‘धर्म परिवर्तन’ की गयी यह घोषणा हो, आदि। यह बात इतिहास हो चुकी है कि ‘मुक्ति कौन पथे’ ( मुक्ति किस रास्ते ?) शीर्षक से मई 1936 में मुम्बई इलाका महार सम्मेलन में दिये गये भाषण में धर्म परिवर्तन की भूमिका भी स्पष्ट की गयी थी।

इस झंझावाती दौर में जहां एक तरफ वह ‘चातुर्वर्ण्य और विषमता की बुनियाद पर टिके हिन्दू धर्म के खिलाफ’, ‘पिछड़े लोगों को मानवीय विकास का अवसर प्रदान न करने देने की नैतिकता’ के खिलाफ अपनी बग़ावत को आगे बढ़ा रहे हैं, ‘मैंने भले ही हिन्दू के तौर पर जन्म लिया, लेकिन हिन्दू के तौर पर मरूंगा नहीं’ -ऐसा ऐलान कर रहे हैं, लेकिन उसी के समानान्तर यह स्थिति भी दिखती है कि वह किसानों-मजदूरों के हक में कुछ निर्णायक कदम बढ़ाते है। जैसे अगस्त 1936 में उनकी अगुआई में ‘स्वतंत्रा मजूर पक्ष’ अर्थात ‘इण्डिपेण्डट लेबर पार्टी’ की स्थापना होती है ; जनवरी 1938 में स्वतंत्रा मजूर पक्ष, कम्युनिस्ट पार्टी आदि की पहल पर बम्बई विधानमण्डल पर खोत प्रथा ( एक तरह की जमींदारी प्रथा) के खिलाफ 25 हजार किसानों का लड़ाकू प्रदर्शन आयोजित किया जाता है या फरवरी 1938 में ही मनमाड, महाराष्ट्र में जी.आई.पी रेलवे के दलित वर्ग कामगार सम्मेलन में डा अम्बेडकर अपना ऐतिहासिक भाषण पेश करते हैं जिसमें वह भारतीय श्रमिक आन्दोलन की दशा-दिशा के बारे में एक अलग परिप्रेक्ष्य रखते हैं और दलित कामगारों को सम्बोधित करते हुए उन्हें उनके दो दुश्मनों ‘ब्राह्मणवाद’ और ‘पूंजीवाद’ के बारे में आगाह करते हैं।


सुभाष गाताड़े मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक-पत्रकार हैं

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