पहला पन्ना: ममता-भाजपा भिड़ंत पर हेडलाइन मैनेजमेंट तो है पर सेवा भावना नहीं!

आज सभी अखबारों में प्रधानमंत्री की बैठक और उसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के शामिल नहीं होने की खबर प्रमुखता से है। इस खबर के जरिए भारतीय जनता पार्टी ने पूरी ताकत से ममता बनर्जी के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश की है। दूसरी ओर, कहा जाता है कि जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है। इसलिए, आज मैं कुछ पुरानी खबरों की याद दिलाऊँगा और बताउंगा कि प्रधानमंत्री की बैठक में शामिल नहीं होना कोई नया मामला नहीं है और नरेन्द्र मोदी भी ऐसा कर चुके हैं। अफसोसजनक यह है कि तब बैठक सांप्रदायिक तनाव और सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर थी और आज जब प्रधानमंत्री राज्यों को अधिकार देने की बात कर रहे हैं तब बंगाल का मामला खुद देखना चाहते हैं या दिल्ली से नियंत्रित करना चाहते हैं, बुरी तरह चुनाव हारने के बावजूद। दूसरी ओर उसी सोशल मीडिया को कसने की कोशिश में लगे हैं जिसपर 2013 की बैठक में शामिल नहीं हुए थे। बीच में सोशल मीडिया के उपयोग या दुरुपयोग की कहानी आप जानते हैं। आज जब पुराने सहयोगी आमने-सामने हैं तो यह सब याद करना महत्वपूर्ण है। हालांकि, पहले आज की खबर और उसकी प्रस्तुति देख लें। 

इंडियन एक्सप्रेस में आज यह खबर लीड है। टकराव और खराब हुआ फ्लैग शीर्षक के तहत मुख्य शीर्षक है, “तूफान पर प्रधानमंत्री की बैठक में ममता शामिल नहीं हुईं, (शुवेन्दु) अधिकारी ने हिस्सा लिया; केंद्र ने उनके शीर्ष अधिकारी का दिल्ली तबादला किया। भाजपा ने कहा, “मुख्यमंत्री ने नई ओछी हरकत की; टीएमसी ने कहा, अधिकारी की मौजूदगी संघवाद की हत्या है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह राजनीति है और इंडियन एक्सप्रेस ने एक्सप्लेन भी किया है, टकराव बढ़ रहा है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज इसी खबर के साथ यह भी छापा है कि नारदा मामले में गिरफ्तार तृणमूल नेताओं को आखिरकार जमानत मिल गई। शीर्षक में यह भी है, हाईकोर्ट ने सीबीआई से पूछा गिरफ्तारी अब क्यों? 24 मई की एक चिट्ठी जो कई दिनों से सोशल मीडिया पर थी उसे भी आज इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर छापा है और पूरा बंगाल एक साथ पहले पन्ने पर लीड है। यह पत्र कोलकाता हाईकोर्ट के एक जज का है। इसे उन्होंने अदालत के सभी जजों को लिखा है। इसमें उन्होंने हाईकोर्ट के कार्यवाहक जज के नेतृत्व वाली पीठ के निर्णय पर सवाल उठाया है और कहा है कि हमारा आचरण हाईकोर्ट के सम्मान के अनुकूल नहीं है। हम हँसी के पात्र बन गए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि यह अदालतों में राजनीति के प्रवेश की परिणति है। और यह सब क्यों कैसे हुआ समझना मुश्किल नहीं है। 

कोलकाता के अखबार द टेलीग्राफ ने भी आज इस खबर को लीड बनाया है। यहां शीर्षक है, बुरी तरह हारने वाले नहीं चाहते कि जीतने वाला राज करे। यहां भी तृणमूल नेताओं को जमानत मिलने की खबर है और शीर्षक में कहा गया है कि यह सीबीआई के लिए झटका है। अखबार की खबर बैठक और उसमें ममता बनर्जी के शामिल होने पर कम, इस कारण राज्य के मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय के तबादले पर ज्यादा है। उन्हें केंद्र सरकार से अटैच कर दिया गया है। वे मुख्यमंत्री के साथ थे और मुख्यसचिव के रूप में उनके साथ रहना उनकी जिम्मेदारी थी और प्रधानमंत्री की बैठक में शामिल नहीं होने के लिए कार्रवाई सेवा नियमावली का मामला होगा और ऐसे फैसले बदले भी जाते हैं लेकिन जिसकी लाठी उसकी भैंस में व्यवस्था या सिस्टम का नुकसान तो होता ही है और कई बार यह ठीकरा फोड़ने के काम आता है। आप देख चुके हैं। बाकी के तीनों अखबारों में यह खबर लीड नहीं है। 

टाइम्स ऑफ इंडिया में यह लीड के नीचे है और लीड है, “दिल्ली सोमवार से अनलॉकिंग शुरू करेगी, धीरे-धीरे शर्तों के साथ।” ममता-भाजपा भिड़ंत पर खबर का शीर्षक है, “प्रधानमंत्री की बैठक में दीदी देर से आईं, थोड़ी देर रहीं और जल्दी चली गईं, इसे लेकर विवाद हो गया।” कहने की जरूरत नहीं है कि इस शीर्षक से पूरी बात समझ में आती है और बैठक में देर से आना, जल्दी चले जाना दूसरी व्यस्तताओं के कारण हो सकता है और भाजपा नेताओं ने जो किया वह राजनीति भी है। दुखद यह है कि इसमें राज्यपाल को भी शामिल कर लिया गया है जो एक संवैधानिक पद है और राजनीति से ऊपर रहना चाहिए। वैसे ममता बनर्जी ने सब कुछ स्पष्ट किया है। उन्होंने बताया है कि उनकी कोई और बैठक पहले से तय थी और प्रधानमंत्री जो करना-देना चाहें कर सकते हैं। इसके लिए जरूरी नहीं है कि ममता बनर्जी मांग करें हालांकि उन्होंने जो विवरण दिए हैं उसमें मांग भी है और खबर यह भी है कि उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने तूफान राहत के लिए कोई मांग नहीं की। दूसरी ओर आप जानते हैं कि कुछ दिन पहले पश्चिमी तट पर आए ऐसे ही तूफान के लिए गुजरात को अलग से भारी सहायता दी गई। बंगाल को दूसरे राज्यों के मुकाबले कम देने की खबर पहले छप चुकी है। मैं यह रेखांकित करना चाहता हूं कि भाजपा की राजनीति कैसे चल रही है। 

हिन्दुस्तान टाइम्स ने तो पूरे मामले को ड्रामा लिख ही दिया है। शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, प्रधानमंत्री की बैठक में दीदी ने रिपोर्ट सौंपी और निकल गईं; बंगाल के मुख्यसचिव को दिल्ली बुला लिया गया। इस शीर्षक से भी साफ है कि वे बैठक में आईं। चर्चा थी कि 30 मिनट देरी से आईं। इंडियन एक्सप्रेस में खाली कुर्सी की फोटो है पर वह एचटी के शीर्षक में नहीं है तो इसीलिए कि इतनी बड़ी बात नहीं है। और भाजपा इसे जितना तूल दे रही है वह निश्चित रूप से ड्रामा है। प्रचारकों का हेडलाइन मैनेजमेंट एक समय बिल्कुल पंसदीदा और मारक शीर्षक छपवा लेता था लेकिन आज वो बात नहीं दिख रही है। इसके कई कारण हैं। एक कारण तो मोदी जी की पुरानी राजनीति भी है जिसकी चर्चा आगे है। अखबार ने खबर में राज्यपाल जगदीप धनखड़ के ट्वीट का भी जिक्र किया है। मेरा मानना है कि राज्यपाल की नियुक्ति भले सरकार करती है पर वह केंद्रीय मंत्रियों की तरह सरकार का प्रचारक नहीं हो सकता है। उससे ऐसा करवाना (अगर जबरन कर रहा हो तो मना किया जाना चाहिए) संवैधानिक व्यवस्था के साथ खिलवाड़ है। प्रचार के लिए केंद्र सरकार के पास पीआईबी से लेकर विज्ञापन का भारी भरकम बजट है।

आप इसे संयोग मानें या प्रयोग पर है दिलचस्प कि टाइम्स ऑफ इंडिया ने जिन खबरों को ऊपर नीचे छापा है उन्हीं दो खबरों को द हिन्दू ने बिल्कुल नीचे अगल-बगल में एकदम बराबरी पर छापा है। शायद केंद्र सरकार के दो सक्षम विरोधियों और उनकी राजनीति को बराबर महत्व देने की कोशिश की गई है। अभी मैं यह कहने की स्थिति में नहीं हूं कि इसे भाजपा से मीडिया को मोहभंग के रूप में देखना चाहिए कि नहीं? आपकी क्या राय है। खासकर कल की खबरों या शुक्रवार के पहला पन्ना के मद्देनजर। यह सब इसलिए कि राहुल गांधी ने कल प्रधानमंत्री को इवेंट मैनेजर कहा था। पर वह खबर आज कहीं दिखी नहीं। मतलब उस प्रमुखता से कि मोहभंग की बात मान ली जाए। राहुल गांधी ने डिजिटल संवाददाता सम्मेलन में कहा था, ‘‘कोरोना संकट को लेकर हमने एक के एक बाद सरकार को सलाह दी, लेकिन सरकार ने हमारा मजाक बनाया है। प्रधानमंत्री ने समय से पहले यह घोषित कर दिया कि कोरोना को हरा दिया गया है। सच्चाई यह है कि सरकार और प्रधानमंत्री को कोरोना समझ नहीं आया है और आज तक समझ नहीं आया है।’’  

 

सोशल मीडिया का दुरुपयोग

अब आइए पुरानी खबर पर – देशव्यापी लॉकडाउन और 21 दिन में कोरोना से जीतने की घोषणा के बुरी तरह फ्लॉप होने के बाद मई 2020 में खबर छपी थी, राज्यों को अधिकार देने के पक्ष में पीएमओ, लॉकडाउन पर राज्य अपने हिसाब से लें फैसला।” तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, जो मुख्यमंत्री इस बैठक में शामिल नहीं हो पाए हैं, वो 15 मई तक अपने सुझाव दे सकते हैं और मुख्यमंत्रियों को दिए गए उन्हीं अधिकारों के बाद अब कहा जा रहा है कि राज्यों को विदेश से टीका खुद खरीदना है। दूसरी ओर, देश के पूर्वी हिस्से में आए समुद्री तूफान से बंगाल को पहुंचे नुकसान का आकलन करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से शुक्रवार को कलाइकुंडा एयरफोर्स बेस पर बैठक बुलाई गई थी। इसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शामिल नहीं हुईं। वे राज्य के मुख्य सचिव अलापन बंद्योपाध्याय के साथ आधे घंटे देर से वहां पहुंचीं और प्रधानमंत्री से अलग से मुलाकात की। ममता ने चक्रवात से बुरी तरह प्रभावित हुए बंगाल के दीघा व सुंदरवन इलाकों के विकास के लिए पीएम मोदी से 10-10 हजार करोड़ रुपये का पैकेज मांगा। इसके बाद दीघा में प्रशासनिक बैठक का हवाला देते हुए वे तुरंत वहां से निकल गईं। आप जानते हैं कि बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद यह पहला मौका था, जब पीएम मोदी और सीएम ममता का आमना-सामना हुआ था। और बैठक में प्रधानमंत्री ने तृणमूल से भाजपा में शामिल हुए शिवेन्दु अधिकारी को भी बुला रखा था जो अभी ममता बनर्जी को हराकर विधायक बने हैं। पहले तृणमूल के विधायक थे। 

इससे पहले 23 सितंबर 2013 को राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई थी। बीबीसी की खबर के अनुसार इसमें उन्होंने कहा था कि राज्य सरकारों को हिंसा भड़काने वाले तत्वों पर सख़्त कार्रवाई करनी चाहिए चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल या विचार के हों। मुज़्ज़फ़रनगर दंगों के दौरान सोशल मीडिया पर जारी एक वीडियो का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करना होगा कि देश-विरोधी ताक़तें सोशल मीडिया का दुरुपयोग न करें। इस बैठक में बीजेपी के सिर्फ़ एक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शामिल हुए थे। उस समय के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बैठक के बाद कहा था कि मोदी जैसे नेता को ऐसी बैठक में जरूर आना चाहिए था। शिंदे ने यह भी कहा था कि कई मुख्यमंत्री नहीं आए सभी मुख्यमंत्रियों ने अपने प्रतिनिधि भेजे हैं। शिंदे ने खासतौर पर मोदी पर चोट किया था। लेकिन राष्ट्रीय एकता विषय ही अलग है। यह बैठक जल्दबाजी में नहीं बुलाई गई थी। यह बैठक दो साल से नहीं हुई थी और इसके फैसले के बाद राज्यों को पांच से छह दिन का वक्त दिया गया था।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं.

 

 

 

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