पहला पन्ना: ऑक्सीजन का ‘कोटा’ और ‘आवंटन’ कब-कैसे बढ़ेगा प्रधानमंत्री जी? 

प्रधानमंत्री के जिस संबोधन या संदेश को बाकी के अखबारों ने लगभग एक ही शीर्षक से लीड या सेकेंड लीड बनाया है उसे टेलीग्राफ ने सिंगल कॉलम में छापा है और शीर्षक है, "प्रधानमंत्री का लक्ष्य : देश को लॉकडाउन से बचाना।" यह शीर्षक उन लोगों को बताना जरूरी है जो कहते और समझते हैं प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी का विकल्प है ही नहीं। और यह उनके भाषणों का एक जैसा शीर्षक लगाकर साबित करने की कोशिश की जाती है।

कोविड-19 से एक दिन में 2007 लोग मर गए, 2, 93,534 नए मामले दर्ज किए गए और अभी तक 1,82,557 मौतें हो चुकी हैं। अभी तक एक करोड़ 56 लाख आठ हजार 423 लोग संक्रमित हुए हैं। आप कह सकते हैं कि संक्रमित होने वालों की कुल संख्या एक प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा है और मरने वाले तो अभी दो लाख भी नहीं हुए हैं। शायद इसीलिए यह खबर आज मेरे किसी भी अखबार में लीड नहीं है। द हिन्दू में यह खबर सिंगल कॉलम में है। हिन्दुस्तान टाइम्स और टीओआई ने इसे पहले पन्ने पर दो कॉलम में छापा है वरना प्रमुखता वहां भी सिर्फ राजधानी के मामले को है। देश की राजधानी दिल्ली का मामला कम दिलचस्प नहीं है। ऑक्सीजन की कमी बनी हुई है, कल 28,000 नए संक्रमण सामने आए। अकेले दिल्ली में कल 277 मौतें हुईं। अस्पतालों में जगह नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने छापा है कि कोविड के मरीजों के लिए सिर्फ सात वेंटीलेटर बेड बचे हुए। सबसे बड़ी बात है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से ऑक्सीजन की मांग कर रहे हैं और केंद्र सरकार कह रही है कि दिल्ली को पूरे कोटेकी आपूर्ति की जा चुकी है। टाइम्स ऑफ इंडिया में पेज दो पर छपी एक खबर के अनुसार, सरकार और आपूर्तिकर्ताओं के पास स्टॉक है और यह एक दिन के आवंटनके मुकाबले डेढ़ गुना है। 

इसमें कोटा और आवंटन जैसे शब्द गौर करने लायक हैं और इसी से पता चलता है कि स्टॉक की कमी को स्वीकार करने की बजाय कोटा और आवंटन का सहारा लिया जा रहा है। यहां जरूरत की कोई चर्चा ही नहीं है। मांग और पूर्ति के बुनियादी सिद्धांत को तो भूल जाइए। मुद्दा उद्योगों को ऑक्सीजन की आपूर्ति रोकने और इसे लोगों की जान बचाने के लिए लगाने का है। इससे संबंधित एक खबर का शीर्षक है, “हाईकोर्ट : क्या हम ऑक्सीजन की जरूरत वाले मरीजों से 22 अप्रैल तक इंतजार करने के लिए कह सकते हैं?” कहने की जरूरत नहीं है कि ऑक्सीजन की कमी है पर उद्योगों का ऑक्सीजन लोगों की जान बचाने के लिए लगाया जाए इसके लिए लोगों को अदालत की शरण लेनी पड़ी और अदालत ने केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि उद्योगों को ऑक्सीजन का उपयोग करने से रोका जाए और इस गैस को कोविड19 के मरीजों के उपयोग के लिए दिया जाए। द हिन्दू में यह खबर चार कॉलम में है। हिन्दू में चार कॉलम में यह खबर भी है कि दिल्ली के कुछ अस्पतालों में 4-5 घंटे के लिए ही ऑक्सीजन है। दिल्ली के अस्पताल में ऑक्सीजन की यह स्थिति और प्रधानमंत्री का संबोधन सिर्फ लॉकडाउन पर केंद्रित था। कुछ और होता तो हिन्दू ऑक्सीजन की दो खबरें छापने की बजाय उसे क्यों नहीं छापता। या दूसरे अखबारों में क्यों नहीं है। 

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अंदर के पन्ने पर दिल्ली में ऑक्सीजन से संबंधित सारी खबरें एक साथ रखी हैं पर क्या आपके अखबार में इस खबर को महत्व मिला है? मेरी समझ यही है कि सरकार ने काम स्वयं समय पर नहीं किया होगा, लोगों और संबंधित संस्थाओं के कहने-निवेदन करने पर नहीं सुना होगा तभी मामला हाईकोर्ट में गया होगा। पर अखबारों की खबरों से ऐसा लगता है क्या? अदालत के आदेश की ही बात करूं तो आज अखबारों में छपा है कि उत्तर प्रदेश के पांच शहरों में लॉक डाउन लगाने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने स्टे कर दिया है। मैं फैसला, आदेश या स्टे पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि सब ठीक चल रहा होता तो लोग अदालत में क्यों जाते? और अदालत में या अखबारों में किन मामलों को प्राथमिकता मिल रही है। 

उत्तर प्रदेश के पांच शहरों में लॉकडाउन के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर उत्तर प्रदेश (सरकार) ने कहा कि यह उसके अधिकार क्षेत्र में दखल है, इससे डर फैलेगा। यह बात इंडियन एक्सप्रेस ने अपने शीर्षक में बताई है। मुझे याद आता है कि महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री के खिलाफ सीबीआई जांच के आदेश को इसी बिना पर चुनौती दी गई थी पर उसे नहीं माना गया। मुझे लगता है कि पाठकों की जानकारी और संदर्भ के लिए ऐसी सूचना दी जाती रहनी चाहिए। पर अब ऐसा नहीं होता है।   

दूसरी ओर, आज सभी अखबारों में प्रधानमंत्री के कल के संबोधन की खबर लीड या सेकेंड लीड है। पश्चिम बंगाल में दो चरण का मतदान रह गया है। इस बीच प्रधानमंत्री ने कल राष्ट्र को संबोधित किया तो उसकी खबर पहले पन्ने पर ही क्यों होनी है यह मैं नहीं समझ पाया फिर भी अखबारों में जो छपा है वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि पहले ही पन्ने पर इतनी प्रमुखता से छापा जाए। आज की खबर का सबसे लंबा शीर्षक इंडियन एक्सप्रेस का है। छह कॉलम में दो लाइन का। हिन्दी में होता तो कुछ इस तरह होता, “लॉकडाउन टालने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करने की आवश्यकता है, राज्यों को इसका उपयोग अंतिम उपाय की तरह ही करना चाहिए : प्रधानमंत्री देश से।इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, “निराश मत होइए, हम यह लड़ाई जीतेंगे। कुल मिलाकर, लड़ाई हम यानी प्रधानमंत्री, सरकार और देश सब जीतेंगे लेकिन जीतने या लड़ने के लिए राज्य लॉक डाउन अंतिम उपाय के रूप में ही लगाए। वैसे तो पीएम के साथ, टू नेशन (राष्ट्र से) लिखने की कोई जरूरत नहीं थी और ना ही ऐसा कोई रिवाज है पर पता नहीं जगह बच गई थी या अतिरिक्त सम्मान में अखबार ने बताया है कि प्रधानमंत्री ने यह बात मुख्यमंत्रियों से नहीं देश से कही है। आप जानते हैं कि पिछली बार 500 लोगों के संक्रमित होने पर ही प्रधानमंत्री ने अचानक लॉक आउट कर दिया था और बाद में पता चला कि इसके लिए उन्होंने किसी से सलाह नहीं ली थी। किसी बैठक आदि का कोई विवरण मांगने पर नहीं मिला। 

अब उसी प्रधानमंत्री का सिर्फ यह कहना कि लॉक डाउन बहुत जरूरी हो तभी किया जाए कितने बड़े ज्ञान की बात है या कितनी बड़ी सूचना है कि इसे इतनी प्रमुखता मिली है। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री के पास कोई योजना नहीं है ना कुछ करने की इच्छाशक्ति या क्षमता, फिर भी वे सारे मामले को नियंत्रण में होना बताना चाहते हैं और लॉकडाउन से होने वाली परेशानी को मुख्यमंत्रियों के सिर डालने की कोशिश में यह बयान दिया है जिसे प्रचारकों ने छह कॉलम में तान दिया है। इस खबर से लग रहा है कि प्रधानमंत्री को कुछ करना ही नहीं है। सारा मामला राज्यों को देखना है और वे देख लेंगे, बस निर्देश की जरूरत थी वह पूरी हो गई। यह स्थिति तब है जब पिछली बार ताली-थाली भी प्रधानमंत्री बजवा रहे थे और 21 दिन में कोरोना की लड़ाई जीतने का दावा भी किया था। लेकिन प्रचार सक्षम चौकीदार न देश में कोरोना के प्रवेश के लिए जिम्मेदार माना जाता है और न ही फैसलों में देरी या अराजकता जैसी स्थिति के लिए। जो फैसले लिए उनसे जो कबाड़ी हुआ वह तो अलग ही है। यही हमारा मीडिया है जो बिना इमरजेंसी लगाए शायद झुकने के लिए कहने पर रेंगने लगा है।

प्रधानमंत्री के जिस संबोधन या संदेश को बाकी के अखबारों ने लगभग एक ही शीर्षक से लीड या सेकेंड लीड बनाया है उसे टेलीग्राफ ने सिंगल कॉलम में छापा है और शीर्षक है, “प्रधानमंत्री का लक्ष्य : देश को लॉकडाउन से बचाना।” यह शीर्षक उन लोगों को बताना जरूरी है जो कहते और समझते हैं प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी का विकल्प है ही नहीं। और यह उनके भाषणों का एक जैसा शीर्षक लगाकर साबित करने की कोशिश की जाती है। द टेलीग्राफ की दूसरी खबर का शीर्षक है, सरकार योजना बनाने में नाकाम रही। प्रवासी फिर मुश्किल में। इसके साथ अखबार ने बताया है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री को याद दिलाया है कि उन्होंने राज्य के गरीबों के लिए टीके खरीदने की अनुमति 24 फरवरी को ही मांगी थी। ममता बनर्जी ने इस संबंध में चिट्ठी लिखी है। यह खबर इंडियन एक्सप्रेस में है पर विपक्षके हवाले से।

 

 

देश में अभी 45 साल से कम के लोगों को टीका लगना शुरू नहीं हुआ है और टीके की कमी के साथ कोरोना की दवा की कमी से संबंधित खबरें भी छप रही हैं। कल के अखबारों में खबर छपी थी कि 18 साल से ऊपर के सभी लोगों को एक मई से टीका लगना शुरू होगा और कल ही पता चला कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस के भतीजे तन्मय ने कल टीके की दूसरी खुराक लगवा ली। वे सिर्फ 21 साल के हैं। कल सोशल मीडिया पर इसकी खूब चर्चा थी लेकिन आज अखबारों में यह खबर दिखी क्या? इंडियन एक्सप्रेस में फोटो के साथ पहले पन्ने पर है। यह साधारण नहीं है कि भाजपा नेता ऐसे काम करते हैं और कार्रवाई तो छोड़िये खबर या फॉलो अप भी नहीं होता है। गुजरात भाजपा अध्यक्ष के पास दुर्लभ इंजेक्शन की अत्यधिक मात्रा होने की खबरों के बाद देवेंद्र फडनवीस के बारे में भी ऐसी खबरें थीं फिर गिरफ्तार अधिकारी के बचाव में थाने जाने और अब भतीजे को पहले ही टीका लग जाने जैसी खबरों पर किसी कार्रवाई की सूचना आपको मिली क्या? मास्क नहीं लगाने पर कार्रवाई की खबरें खूब आ रही हैं।  

आज अगर अस्पतालों में ऑक्सीजन के कोटे और आवंटन की बात हो रही है तो निश्चित रूप से कल श्मशान में लकड़ी की बात भी होगी। मैं इंतजार कर रहा हूं जब किसी अखबार में छपेगा कि फलाने साब या पार्टी की सक्रियता से इतने दिनों तक रोज इतनी लाशें जलीं पर लकड़ी की कमी नहीं हुई। निश्चित रूप से ऑक्सीजन का कोटा और आवंटन का मामला अगर है तो उसे बहुत पहले ठीक हो जाना चाहिए था और यह कोई तर्क नहीं है कि कोटा भर आवंटन हो चुका है मरीज मरते हैं तो मरें। हालांकि, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ऑक्सीजन की बर्बादी पर चिन्ता जताने वाला एक ट्वीट कर चुके हैं।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध आलोचक हैं।

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