पहला पन्ना: कार्टून में उलझकर कार्टून बनती मोदी सरकार!

केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है, मजाक को ‘सिविल’ होना चाहिए। मुझे नहीं पता इससे उनका क्या तात्पर्य है। लेकिन सच यह है कि सरकार कार्टून में उलझ गई है और उसका अच्छा कार्टून बन रहा है। बहुमत वाली सरकार का ऐसे कार्टून हो जाना वाकई निराशाजनक है।

अभिव्यक्ति की आजादी और सरकार का विरोध करने वालों के खिलाफ जबरन कार्रवाई के दो मामलों को टेलीग्राफ ने कल लीड बनाया था। मैंने लिखा था कि प्रचारक मीडिया नागरिकों पर अत्याचार की ख़बर नहीं देता। इसमें मैंने बताया था कि एक टेलीविजन चर्चा में “जैव हथियार” कहने के लिए लक्ष्यद्वीप की फिल्म निर्माता आयशा के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज कराया गया है। अखबार अगर पहले की तरह खबर कर रहे होते तो संबंधित पार्टी (सत्तारूढ़ होती तो भी) बदनामी के डर से अपने कार्यकर्ता से कहती कि एफआईआर वापस ले या कार्रवाई खत्म करने के लिए कदम उठाती। पर अभी स्थिति बदली हुई है और मीडिया गोदी में तो बदनामी की कोई गुंजाइश ही नहीं है। (बाकी को कसने की कोशिशें जारी हैं) इसलिए सरकार बेपरवाह हैं और अखबार फॉलो अप भी नहीं करते। 

आज हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर खबर है कि इस मामले में लक्ष्यद्वीप भाजपा के स्थानीय नेताओं ने विरोध स्वरूप इस्तीफा दे दिया है। वे इसे गलत, अनुचित और द्वीप की भावना के खिलाफ मानते हैं। किसी भी दल से कार्यकर्ता, नेता, मुख्यमंत्री और राज्यसभा सांसद तक आयात कर लेने वाली पार्टी के कार्यकर्ता अगर किसी मुद्दे पर पार्टी छोड़ते हैं तो यह अपने आप में खबर है। लक्ष्यद्वीप भले ही दिल्ली से दूर है पर एक पर्यटल स्थल है और वहां के घटनाक्रम में सबकी दिलचस्पी होना स्वाभाविक है। फिर भी आज ना तो यह खबर और ना ही कोई फॉलोअप किसी अन्य अखबार में पहले पन्ने पर है। विज्ञापन की मजबूरी मैं समझ सकता हूं पर क्या अंदर के पन्नों पर आपको ऐसी कोई खबर मिली? इस सरकार ने देश के एक अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थल कश्मीर का वैसे ही बुरा हाल कर रखा है अब लक्ष्यद्वीप को बर्बाद किया जा रहा है। लेकिन अखबारों में ऐसा कुछ नहीं है। टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर यह खबर होने की सूचना जरूर है। इस खबर में बताया गया है कि वहां पहले भी ऐसा होता रहा है और एक बैनर के लिए राजद्रोह की एफआईआर हो चुकी है। इधर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है, मजाक को सिविल होना चाहिए। मुझे नहीं पता इससे उनका क्या तात्पर्य है। लेकिन सच यह है कि सरकार कार्टून में उलझ गई है और उसका अच्छा कार्टून बन रहा है। बहुमत वाली सरकार का ऐसे कार्टून हो जाना वाकई निराशाजनक है। इस स्थिति के लिए निश्चित रूप से गोदी मीडिया भी जिम्मेदार है पर वे इसे बताने की बजाय छिपा रहे हैं।

 


जीएसटी कम करने का प्रचार 

आज सभी अखबारों में जब कोविड के लिए आवश्यक चीजों पर जीएसटी कम करने का प्रचार है तो यह भी बताया गया है कि एम्बुलेंस पर टैक्स 28 प्रतिशत था जिसे कम करके अब 12 प्रतिशत कर दिया गया है। जी हां, अभी भी एम्बुलेंस पर टैक्स 12 प्रतिशत है, शून्य या न्यूनतम 5 प्रतिशत नहीं। और आप चाहें तो खुश हो सकते हैं कि उसे चलाने के लिए आवश्यक तमाम चीजों में पेट्रोल या डीजल पर टैक्स 50 प्रतिशत से ऊपर टैक्स है। पार्किंग, टोल टैक्स भी होगा ही। यह एक देश एक टैक्स या एक देश एक चुनाव के भारी-भरकम प्रचार के बावजूद है कि एम्बुलेंस पर टैक्स 12 प्रतिशत और पेट्रोल या डीजल पर 50 प्रतिशत से ज्यादा हैं। और सभी अखबारों में खबर है कि सरकार ने जीएसटी में राहत दी। जीएसटी कम करने की सूचना देने वाली ज्यादातर अखबारों की लीड का मतलब भले यह प्रचारित करना हो कि सरकार ने जनता पर भारी अहसान किया है लेकिन तथ्य यह है कि एम्बुलेंस पर 12 प्रतिशत टैक्स का मतलब हुआ 10 लाख का एम्बुलेंस 11 लाख 20 हजार रुपए में मिलेगा। एक लाख 20 हजार रुपए टैक्स की इस राशि से तीन-चार हजार रुपए के कोई 30-40 हाथ ठेले या साइकिल वाले रिक्शे खरीदे जा जा सकते जिनका सहारा अंततः देश का आम आदमी लेता है। टैक्स की राशि से कम से कम एक बैट्री से चलने वाली गाड़ी भी आ सकती है जिसका उपयोग कोरोना काल में मरीजों को अस्पताल पहुंचाने के लिए किया गया। सरकारी पैसों से टैक्स देकर खरीदे जाने वाले एम्बुलेंस किसी सांसद के बंगले की शोभा बढ़ाते रहेंगे और शिकायत करने वाला गिरफ्तार किया जाता रहेगा। यह खबर आज छपने वाली नहीं है। 

जीएसटी कम करने वाली इस खबर की खास बात यह भी है कि टीके पर टैक्स कम नहीं किया गया है। इस बारे में विद्वान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा है कि सरकार जो भी वैक्सीन खरीदेगी उसपर जीएसटी देगी लेकिन जनता को फ्री मिल रहा है इसलिए उनपर जीएसटी का कोई असर नहीं होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि मुद्दा जनता पर असर होने का नहीं, सरकार ही टैक्स ले और सरकार ही दे का है। पर वह ना अखबार पूछेंगे और ना मंत्री बताएंगी। वैसे भी 25 प्रतिशत लोगों को तो पैसे देकर टीका लगना है उनसे टैक्स लिया जाएगा। और कहने की जरूरत नहीं है कि ज्यादातर इन्हीं लोगों के टैक्स से बाकी के लोगों को मुफ्त टीका लगेगा जो ना सरकार का है ना भाजपा का ना पीएम केयर्स के नाम पर उगाहे गए सीएसआर फंड का। 

कोविड से जुड़े आवश्यक आयटम पर जीएसटी की यह कटौती अस्थायी है फिर भी सिर्फ दो दवाइयों पर टैक्स शून्य किया गया है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक ही दवाई का नाम लिखा है। दूसरी दवाई वह है जो मिल नहीं रही थी जिसपर ब्लैक चल रहा था। मुझे नहीं पता इस दवाई का स्टॉक मंगाने का क्या हुआ। अगर टैक्स शून्य कर दिया जाए और दवा सामान्य तौर पर मिले ही नहीं या कालेबाजार में मिले। सैनिटाइजर जैसे जरूरी आयटम पर अभी तक 18 प्रतिशत टैक्स था जिसे अब 5 प्रतिशत किया गया है। संक्षेप में जिन आयटम पर टैक्स पांच प्रतिशत था (सिर्फ दो या एक दवाई) उसपर टैक्स शून्य किया गया है बाकी पर 12 या 18 से 5 प्रतिशत किया गया है और एम्बुलेंस पर 28 से 12 प्रतिशत किया गया है। कहने की जरूररत नहीं है कि यह कमी किसी जनहितैषी सरकार ने स्वेच्छा से की हो ऐसा नहीं लग रहा है और साफ है कि मजबूरी में आपदा में अवसर का ध्यान रखते हुए न्यूनतम कमी से अधिकतम लाभ लेने का प्रयास है। देश के मीडिया ने अभी तक इसपर शोर नहीं मचाकर सरकार का साथ दिया था आज इसे कमी बताकर प्रचार कर रहे हैं जबकि अभी जो टैक्स है वह भी कम नहीं है। 

यही नहीं, पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री और जीएसटी कौंसिल के सदस्य अमित मित्रा ने कहा है कि यह पूरी तरह जनविरोधी निर्णय है जिसे जीएसटी कौंसिल में हम पर थोपा जा रहा है …. हमारे पास बेरहम किस्म के इन निर्णयों को उचित ठहराने का कोई तरीका नहीं है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने वित्त मंत्री के साथ अमित मित्रा का यह कोट प्रमुखता से छापा है। हालांकि, ऊपर वाला वित्त मंत्री का कोट द हिन्दू का है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने वित्त मंत्री का जो कोट छापा है वह यही है कि मंत्रियों के समूह की सिफारिश काफी दमदार थी और जीएसटी कौंसिल ने ज्यादातर सिफारिशें मान लीं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर कोई कोट नहीं छापा है सिर्फ सूचना दी है कि अंदर के पन्नों पर अमित मित्रा का दावा है कि आवाज दबा दी गई। इस लिहाज से इंडियन एक्सप्रेस की खबर छोटी सी है। तस्वीर ज्यादा तथ्य कम। प्रचारात्मक शीर्षक के बावजूद उपशीर्षक में बताया गया है कि अमित मित्रा ने कहा कि उनकी आवाज दबा दी गई। द टेलीग्राफ में यह खबर लीड है। इसमें बताया गया है कि कौंसिल की मीटिंग में उन्हें बोलने नहीं दिया गया और उनकी आवाज दबा दी गई।  

अमूमन पांच कॉलम में प्रचार छापने वाले इंडियन एक्सप्रेस में आज एक ही खबर की जगह है। बाकी में विज्ञापन है। और इस एक खबर की जगह में आज चार खबरें हैं और दो कॉलम की फोटो के साथ एक खबर। इसका शीर्षक है, एसी, फ्रीज के साथ सिंघु (बॉर्डर पर) किसान दिल्ली की गर्मी से मुकाबले की तैयारी कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि शीर्षक में एसी चौंकाता है। और खबर में एयर कूलर या एयरकंडीशनर लिखा है जो शीर्षक में एसी हो गया है और तस्वीर में कूलर के आकार का एसी हो तो मैं कह नहीं सकता। लेकिन अस्थायी झोपड़ी में अगर इतना बड़ी एसी लगा है तो वह भी खबर है और उसका भी विवरण होना चाहिए था। अखबार के इस जर्नलिज्म ऑफ करेज के बारे में मेरे पाठक जानने लगे होंगे।         

वैसे तो केंद्र सरकार ना अपनी गलती मानती है और ना कोई उससे कहता है ना ही गलतियां करने से अभी तक उसपर कोई फर्क पड़ा है। ऐसे में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने भी आज अपने साप्ताहिक कॉलम में देश की टीका नीति की चर्चा की है। इसमें कहा गया है, राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के लिए टीकों के अलग-अलग दाम तय करके सरकार ने भारी गलती की है। दामों में इस भारी अंतर का नतीजा यह हुआ कि निजी अस्पतालों को टीकों की आपूर्ति सरकारी अस्पतालों की कीमत पर हो रही है और इससे सरकारी अस्पतालों में टीकों की कमी हो गई। टीकों की कमी के कारण ही कुछ राज्यों में टीकाकरण बंद कर दिया गया है। अब भी विवाद इसलिए बना हुआ है क्योंकि सरकार ने निजी अस्पतालों को कोविशील्ड के लिए सात सौ अस्सी, स्पूतनिक के लिए एक हजार एक सौ पैंतालीस और कोवैक्सीन के लिए एक हजार चार सौ दस रुपए प्रति खुराक के हिसाब से दाम तय कर दिए हैं। पंजीकरण और टीकाकरण के लिए कोविन ऐप का सरकार का आग्रह भेदभाव भरा है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि कोविन ऐप के आग्रह ने डिजिटल खाई पैदा कर दी है और यह भेदभावपूर्ण है। इसके बावजूद जीएसटी कौंसिल की बैठक में विपक्ष को बोलने नहीं देना और अखबारों में उसकी चर्चा नहीं होने देना – बताता है कि यह स्थिति अभी चलेगी। और हमें ऐसी ही तैयारी करनी चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और  प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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