पहला पन्ना: गुजरात में दो हज़ार मौतों पर ‘वाच डॉग’ मीडिया देश में दो लाख मौत पर ‘लैप डॉग’ बना!

इम्स ऑफ इंडिया में आज एक दिन में 3000 से ज्यादा लोगों की मौत और अभी तक कोविड से दो लाख लोगों की मौत की खबर है। गुजरात दंगों में 2000 लोगों की मौत की खबर के साथ ये खबरें रहीं कि मुख्यमंत्री की लापरवाही या ढिलाई के कारण इतनी मौतें हुई। उन्हीं के प्रधानमंत्री रहते कोविड मामले में ढिलाई और लापरवाही या व्यवस्था के कारण अथवा बावजूद एक साल में दो लाख मौतें पूरी होना निश्चित रूप से खबर है। खासकर तब जब आज सर्वसम्मत लीड जैसी कोई खबर नहीं थी। चार दिन के दंगे में 2000 मौतें और एक साल की महामारी में दो लाख मौतें आंकड़े की दृष्टि बहुत गंभीर हैं और इनकी चर्चा से बचना यथार्थ से मुंह मोड़ना है। 

बेशक इन मौतों की तुलना गुजरात से करना ठीक नहीं है। पर आंकड़े तो आंकड़े हैं। मुख्यमंत्री का प्रधानमंत्री या प्रधानसेवक बनना तो तथ्य है। उनके भाषण और बयान तो याद हैं। ऐसे में खबर और रिकार्ड के लिहाज से आज मीडिया ने बेशक एक बड़ी खबर को नजरअंदाज किया है। ऐसी  कि आज जब कोई सर्वसम्मत लीड नहीं थी तो यह सर्वसम्मत लीड बन जाती। वाच डॉग मीडिया और लैप डॉग मीडिया का यही फर्क है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसके साथ देश के डबल इंजन मुख्यमंत्रियों में से एक, हरियाणा वाले मनोहर लाल खट्टर का कहा छापा है। उन्होंने ज्ञान बघारा है कि कोविड से मरने वालों की संख्या पर बात करना व्यर्थ है क्योंकि जो मर गए वो वापस नहीं आएंगे। और फिर इसके नीचे खबर है, स्थानीय निकाय रोज 1000 अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहे हैं।

आज का दिन सर्वसम्मत लीड वाला नहीं है। इसलिए पांचों अखबार की लीड पांच अलग खबर हैं और ऐसा दिन इस लिहाज से बहुत दिलचस्प होता है कि कई खबरें जो एक अखबार में लीड होती है वह दूसरे अखबार में पहले पन्ने पर होती ही नहीं है। कई बार तो अखबार में। खबरों को लेकर सोच, समझ और विवेक का मामला काफी समय से ऐसा ही रहा है। आइए आज की लीड देखें और फिर दिल्ली हाईकोर्ट के लिए कोविड अस्पताल बनाने की खबर में हाईकोर्ट का आदेश गोलमोल होने का कारण समझें।

1.हिन्दुस्तान टाइम्स

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, राष्ट्रीय संकट को चुपचाप नहीं देख सकता 

2.इंडियन एक्सप्रेस

टीके की भिन्न कीमतों का आधार, तर्क स्पष्ट करें : सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा 

3.टाइम्स ऑफ इंडिया

अपना घर दुरुस्त करें, हम लोगों को मरने नहीं दे सकते, हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार से कहा

4. द हिंदू

हाईकोर्ट की फटकार के बाद चुनाव आयोग ने मतगणना वाले दिन विजय जुलूस पर प्रतिबंध लगाया

5. द टेलीग्राफ़

शिक्षकों को कोविड की मेहरबानी पर छोड़ दिया गया है

कहने की जरूरत नहीं है कि पांचों खबरें महत्वपूर्ण हैं और संभव है टेलीग्राफ की लीड किसी और अखबार में हो ही नहीं। लेकिन क्या यह खबर उन लोगों को राहत दिलवा सकेगी जो इसमें पीड़ित बताए गए हैं। टेलीग्राफ में ही एक और खबर है, मई में टीकों की स्थिति डरावनी है। बाकी अर्थियों की कतार शायद किसी अखबार में पहली बार दिखी हो। इसके साथ लिखा है, अपना डेड बॉडी उठाओ और उधर लाइन में जा के खड़े हो जाओ। यह अंदर पेज पांच की खबर का विवरण। 

मुझे लगता है इन खबरों के बिना दूसरे अखबार फीके हैं। राजनीति की खबरों का आलम यह है कि बिना अनुमति या प्रोटोकोल का पालन किए बगैर प्रसारित वीडिया में दुनिया ने देखा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री से राज्य के लिए ऑक्सीजन की व्यवस्था करने की मांग की और प्रधानमंत्री कोई जवाब दिए बगैर उठ गए। उसके बाद से प्रचारकों की सरकार देश भर में ऑक्सीजन की कमी के लिए क्या कर रही है इसका प्रचार चल रहा है पर ऑक्सीजन की व्यवस्था पूरी नहीं हुई है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि आज इंडियन एक्सप्रेस की खबर का शीर्षक है, “ऑक्सीजन की कमी के लिए हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार को फटकारा : अगर आप नहीं संभाल सकते तो हम केंद्र से कहेंगे।

मौजूदा समय में केंद्र सरकार के खिलाफ खबरें नहीं के बराबर छपती हैं वरना एक खबर यह भी हो सकती थी, “केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार की अपील नहीं सुनी, अब उसे ही जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर के नीचे जो खबर छापी है, उसका शीर्षक है, ऑक्सीजन संकट: आपूर्ति से ज्यादा टैंकर और प्लांट लोकेशन मुख्य चुनौती है। यह खबर केंद्र सरकार का बचाव करती लगती है। मुद्दा यह  नहीं कि ऑक्सीजन संकट का कारण क्या है। मुद्दा यह है कि ऑक्सीजन का संकट है, लोग मर रहे हैं उसे सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाना चाहिए। आप उसका कारण बता रहे हैं कोई यह खबर जानकर क्या करेगा या जिसका रिश्तेदार मर गया उसे इस खबर से क्या आश्वासन मिलेगा

इंडियन एक्सप्रेस में ही एक और अच्छी खबर है।कोई कमी नहींवाले उत्तर प्रदेश में 12 घंटे का इंतज़ार  …. आप जानते हैं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दावा किया है कि राज्य में सब ठीक ठाक है और भ्रामक खबरें फैलाने पर कार्रवाई होगी (कुछ ऐसा ही। डर के मारे मैंने खबर पढ़ी नहीं क्योंकि उसपर यकीन ही नहीं था। सिर्फ संदर्भ के लिए उल्लेख कर रहा हूं वास्तविक स्थिति आप खुद जांच लें) ऐसे में यह खबर अगर सच है (या छापा ही है है तो) इसे प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी। बहुत छोटी सी खबर और बहुत छोटी तस्वीर है। हालांकि, इससे लगता है कि उत्तर प्रदेश में रिपोर्टिंग के लिए स्थिति सामान्य है। अगर आप उत्तर प्रदेश से रिपोर्टिंग करना चाहते हैं तो अपनी जोखिम पर करें, मेरी इस राय पर नहीं। 

इंडियन एक्सप्रेस ने कल पहले पन्ने पर खबर छापी थी, “अस्पताल में जगह के लिए संघर्ष कर रही दिल्ली, हाईकोर्ट ने अशोका होटल को अपना कोविड अस्पताल बनवाया। मल्लिका जोशी और सोफिया हसन की बाईलाइन वाली इस खबर से मुझे लगा था कि यह एक्सप्रेस की एक्सक्लूसिव खबर होगी। निश्चित रूप से यह एक प्रशंसनीय खबर है और उसके बाद जो हुआ वह भी स्वाभाविक भी हो तो प्रशंसनीय ही है। बात हाईकोर्ट की है। मैं उसपर टीकाटिप्पणी नहीं कर सकता। मैं सिर्फ खबरों की चर्चा कर रहा हूं और बताना चाहता हूं कि इन दिनों गोलमोल खबरें लिखने का रिवाज है और इस मामले में हाईकोर्ट के जुड़े होने के बावजूद खबर गोल-मोल ही है और एक पाठक के रूप में जो जानकारी मैं चाहता हूं वह नहीं मिली। मैं समझ गया सो अलग बात है।  

इंडियन एक्सप्रेस की पहली खबर पूरी तरह सही थी और शुरू में ही साफसाफ लिखा है, “दिल्ली हाईकोर्ट के आग्रह पर ….।”  जाहिर है कि दिल्ली हाईकोर्ट को ऐसा आग्रह नहीं करना चाहिए पर किया गया है और इसीलिए खबर थी। एक्सप्रेस ने कल यह भी बताया था दिल्ली हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल मनोज जैन ने फोन नहीं उठाया और ना ही टिप्पणी मांगने वाले इंडियन एक्सप्रेस के लिखित संदेशों का जवाब दिया। जाहिर है, उन्हें पता होता, उन्होंने आग्रह किया होता तो जवाब देते। हालांकि, फोन नहीं उठाने का मतलब हमेशा यही नहीं होता है। मैं यह कहना चाह रहा हूं कि इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी ओर से कोई कोशिश नहीं छोड़ी थी। और जनहित में खबर जरूर थी, इसलिए हुई। 

इसपर प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक हुई। हाईकोर्ट ने संज्ञान लिया और टाइम्स ऑफ इंडिया की आज की खबर के अनुसार दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने आदेश को वापस लेने के निर्देश जारी कर दिए। पर प्रचारकों ने इसमें राजनीति का मौका नहीं छोड़ा। हालांकि वह अलग मुद्दा है। लेकिन मुख्य बात मालूम नहीं हुई और यही पत्रकारिता का हाल है। मैं समझता था कि पत्रकार नालायक हो गए हैं लेकिन अब शक सिस्टम पर भी होता है। मुद्दा यह है कि हाईकोर्ट से अनुचित आग्रह किसने कैसे किया और बिना आग्रह के आदेश कैसे जारी हो गया और जब आग्रह नहीं था तो आदेश में ऐसा लिखा क्यों है। और खबर पूरी क्यों नहीं है। 

 

 

मुझे आदेश की प्रति मिल गई और मामला आदेश से ही साफ है पर यह खबर में नहीं है। आदेश के अंत में लिखा (होता) है, डीडीएमए / डीएम, नई दिल्ली जिला की पूर्व मंजूरी से जारी। खेल इसी में है। साफ है कि आग्रह के संदर्भ में ही मंजूरी मिली या दी अथवा ली गई होगी और आग्रह या उससे संबंधित सबूत मंजूरी देने वाले के पास होगा। आज टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा है, …. इससे पहले (मनीष) सिसोदिया ने यह पता करने की कोशिश की कि आदेश कैसे जारी हो गया। खबर के अनुसार सिसोदिया या दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री को भी इस आदेश की जानकारी नहीं थी। आदेश की प्रतिलिपि भी इन मंत्रियों को नहीं भेजी गई है। 

इतने से लगता है कि मामला एलजी के स्तर का है और सरकार को पता ही नहीं चला। डीडीएमए का मतलब है दिल्ली आपदा प्रबंधन प्राधिकार और इसके मुखिया है दिल्ली के लाट साब। हाल में उनकी शक्ति बढ़ाई गई और उन्होंने उसका उपयोग किया। यह संभव है कि उनसे कहा कुछ गया हो और वे समझ कुछ और रहे हों पर आग्रह के बारे में पत्रकारों को इनसे भी (ही) पूछना चाहिए था क्योंकि मंजूरी इन्हीं की थी। इंडियन एक्सप्रेस में यह खुलासा जाने क्यों नहीं है। यहां भी अदालत का पक्ष मजबूती से रखा गया है कि अदालत ने आग्रह नहीं किया। लेकिन जिसने अदालत को इस स्थिति में पहुंचाया उसका पता शायद जांच से लगे। 

क्या जांच होगी? अदालत ने कहा है कि यह आदेश हमे खुश करने के लिए जारी हुआ है। ऐसे में यह पता चलना जरूरी है कि यह कोशिश कौन कर रहा था। क्या निर्वाचित सरकारें ऐसा करती हैं? या अब करने लगी हैं। मीडिया इस मामले में नाकाम रहा है। खबरों के अनुसार, दिल्ली सरकार के वकील राहुल मेहरा ने कहा कि मीडिया संदिग्ध भूमिका निभा रहा है तो अदालत ने मीडिया का बचाव किया और कहा कि खबर करना गलत नहीं है। यह आदेश गलत है। मीडिया ने अपना पूरा काम नहीं किया, फिर भी अदालत ने मीडिया का बचाव किया। यह कम दिलचस्प नहीं है।  इंडियन एक्सप्रेस की एक्सक्लूसिव खबर और आज गोलमोल रिपोर्ट से लगता है कि मुख्य मकसद दिल्ली सरकार को बदनाम करना था और वह हो गया। वरना जिसकी मंजूरी से आदेश जारी हुआ उससे बात क्यों नहीं की गई

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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