महामारी से मुक़ाबिल चित्रकारों की कूचियों में लिपटे इतिहास के स्ट्रोक

‘समय और चित्रकला ‘शीर्षक से प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक की लेख शृंखला की यह  दसवीं कड़ी पहली बार 21 जून 2020 को मीडिया विजिल में प्रकाशित हुई थी। कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की  यह साप्ताहिक शृंखला लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं।  इस बार लगातार दस दिन तक यह शृंखला प्रकाशित की गयी- संपादक।

 

महामरियों के लम्बे इतिहास में राजा हो या रंक, कोई भी इससे अप्रभावित नहीं रह सका। राजपुरुषों, धर्मगुरुओं और समाज के शीर्ष पर आसीन विशिष्ट लोगों को भी महामारियों ने ठीक उसी तरह प्रभावित किया जिस तरह आम इंसानों को। इन महामारियों ने कई बार अनेक प्रतिभावान साहित्यकारों, रंगकर्मियों और संगीतकारों के साथ ही तमाम शीर्षस्थ चित्रकारों को भी अपनी चपेट में लिया है।

जोर्जिने (1477-1510) का नाम इटली के पुनर्जागरण काल के एक महत्वपूर्ण चित्रकार के रूप में लिया जाता है (चित्र 1)। चित्रकला इतिहास में उन्हें दो महत्त्वपूर्ण अवदानों के लिए याद किया जाता है। पुनर्जागरण काल की वैज्ञानिक चेतना से उन्होंने रंग के बारीक कणों (पिगमेंट्स) को तेल और रेज़िन में घोल कर कपड़े के कैनवास पर रंग करने की पद्धति की शुरुआत की। जोर्जिने से पूर्व लम्बे अरसे तक यूरोपीय कला ईसाई विषयों पर धार्मिक चित्रों और राजपुरुषों के शबीहे बनाने तक ही सीमित रही थी पर जोर्जिने ने कला को इस जड़ता से मुक्त किया और आम आदमी को चित्रित करने वाली परंपरा की नींव रखी।

चित्र-1

उदाहरण के लिए ‘बूढ़ी औरत’ के चित्र (चित्र 2) को देखा जा सकता है। जोर्जिने का निधन 1510 में यूरोप में फैली प्लेग महामारी के समय हुआ था। जोर्जिने के समकालीनों में ही टीशियन (1488 -1576) थे ( चित्र 3) जिन्होंने वेनिस में साथ साथ काम किया था और जोर्जिने की मृत्यु के बाद उनके कई अधूरे रह गए चित्रों को पूरा भी किया था। सन 1576 में इटली प्लेग महामारी के प्रकोप से बच नहीं सका और इसकी चपेट में आ जाने से टीशियन की मृत्यु हुई। मृत्यु के समय टीशियन ‘पीयेता’ (Pieta) शीर्षक से एक विशाल कृति (चित्र 4) का निर्माण कर रहे थे और दुर्भाग्यवश यह चित्र भी अपूर्ण रह गया। उनकी मृत्यु के बाद उनके सहयोगी और सुयोग्य पुत्र ओराज़िओ ने इस काम को पूरा किया। दुखद संयोग ये रहा कि उनकी मृत्यु भी प्लेग से ही हुई।

चित्र 2

चित्र 3

चित्र 4

विश्व की सबसे महत्त्वपूर्ण 10 कृतियों की अनेक सूचियाँ उपलब्ध हैं। जिन कला समीक्षकों ने अपने अपने नज़रिए से यह सूची बनाई है उनके मूल्यांकनों का आधार भी भिन्न रहा होगा हालाँकि उनके द्वारा बनाई गई इन सूचियों में ज्यादा अंतर नहीं दिखता। ऐसी सूचियों में हम गुस्ताव क्लिम्ट ( चित्र 5) के चित्र ‘ द किस ‘ या चुम्बन ( चित्र 6 ) और एडवर्ड मुंख (1863-1944) के चित्र ‘द स्क्रीम’ या चीख को अनिवार्य रूप से पाते हैं। गुस्ताव क्लिम्ट (1862-1918) ऑस्ट्रिया के आधुनिक कला आंदोलन के प्रमुख चित्रकारों में से एक थे जिन्होंने आधुनिक प्रतीकवादी कला धारा में काम किया। क्लिम्ट जापान की कला शैलियों से प्रभावित रहे और उन्होंने नारी शरीर के सौंदर्य को अपने चित्रों में अभूतपूर्व ढंग से चित्रित किया।

चित्र-5

चित्र 6

प्रथम विश्वयुद्ध के ठीक बाद लगभग पूरे विश्व में ‘स्पेनिश फ्लू’ नामक महामारी फ़ैल गयी थी। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। गुस्ताव क्लिम्ट भी इस रोग से प्रभावित हुए और 1918 में उनका निधन हो गया। गुस्ताव क्लिम्ट के बाद जो पीढ़ी सक्रिय हुई उनमें एगॉन शीले (चित्र 7) बेहद प्रतिभाशाली चित्रकार थे। एगॉन शीले (1890-1918) भी ऑस्ट्रिया निवासी और गुस्ताव क्लिम्ट के ही शिष्य थे। बीसवीं सदी के प्रमुख आकृतिमूलक या फिगरेटिव चित्रकारों में शुमार होने वाले एगॉन शीले ने महज अट्ठाइस वर्ष के अल्प जीवन काल में बहुत से चित्र बनाये। 1918 के स्पेनिश फ्लू से यूरोप में दो करोड़ लोगों की मौत हुई थी। इस महामारी ने वियना शहर को भी अपने चपेट में ले लिया। इस बीमारी से एगॉन शीले की पत्नी एडिथ, जो उस समय अंतःसत्त्वा (गर्भवती) थीं; का निधन हो गया। शीले, जो स्वयं भी बीमार चल रहे थे, अपनी पत्नी की मृत्यु से बेहद आहत हुए। तीन दिन बाद एगॉन शीले को भी इसी फ्लू ने निगल लिया। पत्नी की मृत्यु के बाद के इन तीन दिनों में उन्होंने एडिथ के कई चित्र बनाने के अलावा ‘द फैमिली’ (चित्र 8) शीर्षक से भी एक चित्र बनाया था।चित्रकला इतिहास के मार्मिक चित्रों में शामिल ‘द फैमिली’ एगॉन शीले पूरा नहीं कर सके थे। यह चित्र मानो एगॉन शीले के जीवन का प्रतिरूप हो जो चित्र की ही भाँति अपूर्ण रह गया। चित्र की संरचना में पुरुष, स्त्री और बच्चे एक दूसरे से संलग्न दिखाई देते हैं। शीले का यह चित्र हमें उनके गुरु गुस्ताव क्लिम्ट द्वारा निर्मित ‘मृत्यु और जीवन’ ( चित्र 9 ) की भी याद दिलाता है।

चित्र 7

चित्र 8


चित्र 9

विश्व के बहुचर्चित चित्रों में अन्यतम ‘द स्क्रीम’ या ‘चीख़’ (चित्र 10) के चित्रकार एडवर्ड मुंख (चित्र 11) शुरू से ही अनास्थावादी थे और उन्होंने अपने चित्रों में ऐसे ही मनोभावों को चित्रित करने की कोशिश की। 1918 की महामारी से वे भी पीड़ित हुए और लम्बे समय तक बीमार रहने के बाद स्वस्थ हुए। इस दौरान उन्होंने अपने कई पोर्ट्रेट बनाये ( चित्र 12 और 13 ) जिसमें लम्बी बीमारी से जूझते व्यक्ति की थकान और आशंकाओं को चित्रित किया गया है।

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यूरोप के युद्ध चित्रों की सुदीर्घ परंपरा से हम सभी परिचित होंगे। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन ने अमेरिकी चित्रकार जॉन सिंगर सार्जेंट (चित्र 14) से युद्ध स्थल में जाकर चित्र बनाने के लिए अनुबंध किया था। सार्जेंट एक स्थापित कुशल चित्रकार थे और उन्होंने युद्ध भूमि पर सैनिकों के साथ लम्बा वक़्त बिताया। उन्होंने असंख्य छोटे बड़े ऐसे स्केचेज बनाए जिनमें मृत और घायल सैनिकों की भंगिमाओं को बेहद बारीकी से दर्शाने का कठिन श्रम स्पष्ट दिखाई देता है। अपने विशाल चित्र ‘गैस्ड’ (चित्र 15) में उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी द्वारा इस्तेमाल की गई कुख्यात मस्टर्ड गैस के दुष्प्रभाव को बड़ी मार्मिकता से उजागर किया है। आज इस चित्र की गणना विश्व के उल्लेखनीय युद्ध चित्रों में होती है। यह चित्र बनाते हुए जॉन सिंगर सार्जेंट महामारी की चपेट में आ गए थे और इस कारण उन्हें सीमा पर अस्थाई रूप से तम्बुओं में बनाए गए अस्पताल में चिकित्सा के लिए रखा गया। इस दौरान सार्जेंट ने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए जल रंग से एक चित्र बनाया था (चित्र 16, लेख की शुरुआत में सबसे ऊपर मुख्य चित्र)। इस साधारण नज़र आने वाले चित्र का भी इतिहास में अपना महत्त्व है क्योंकि अगर यह महामारी की चपेट में आ चुके चित्रकार सार्जेंट का अंतिम चित्र सिद्ध होता तो दुनिया ‘गैस्ड’ जैसे कालजयी चित्र से वंचित रह जाती।

चित्र 14

चित्र 15

हालाँकि यह आलेख मुख्य रूप से कुछ प्रतिष्ठित चित्रकारों और महामारियों से प्रभावित उनके जीवन पर केन्द्रित रहा, किन्तु इन महामारियों ने जाने कितने साहित्यकार, संगीतकार और नाटककार हमसे असमय छीन लिए। यदि ये रचनाकार महामारियों की चपेट में न आकर पूरा जीवन जी सके होते तो कला की दुनिया कितनी समृद्ध होती। इन कलाकारों के असमय अवसान से जो ऐतिहासिक क्षति हुई है, उसका अनुमान लगा पाना असंभव है।



 

अशोक भौमिक हमारे दौर के विशिष्ट चित्रकार हैं। अपने समय की विडंबना को अपने ख़ास अंदाज़ के चित्रों के ज़रिये अभिव्यक्त करने के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं।

जनांदोलनों से गहरे जुड़े और चित्रकला के ऐतिहासिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर लगातार लेखन करने वाले अशोक दा ने इतिहास के तमाम कालखंडों में आई महामारियों के चित्रकला पर पड़े प्रभावों पर मीडिया विजिल के लिए एक शृंखला लिखना स्वीकार किया है। उनका स्तम्भ ‘समय और चित्रकला’, हर रविवार को प्रकाशित हो रहा है। यह दसवीं कड़ी है। पिछली कड़ियाँ आप नीचे के लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

 

पहली कड़ी  धर्म, महामारी और चित्रकला !

दूसरी कड़ी- महामारियाँ और धार्मिक चित्रों में मौत का ख़ौफ़ !

तीसरी कड़ी- महामारी के दौर मे धर्मों और शासकों का हथियार बनी चित्रकला !

चौथी कड़ी- धर्म, मृत्युभय और चित्रकला : पीटर ब्रॉयगल का एक कालजयी चित्र

पाँचवीं कड़ी- महामारी में यहूदियों के दाह का दस्तावेज़ बनी चित्रकला !

छठवीं कड़ी – अपोलो का ‘प्लेग-कोप’, पंखों वाला मृत्युदूत और चोंच वाला डॉक्टर !

सातवीं कड़ी-  मध्ययुगीन चित्रों में दर्ज महामारी और वैज्ञानिक अनुसंधान

आठवीं कड़ी- भयाक्रांत समाज में मूर्तियों के शिल्प से शक्ति पाता अंधविश्वास

नौवीं कड़ी- महामारी, ‘कोरियोमेनिया’ और कोरोनामाई!



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