आज सबसे पहले कुछ शीर्षक देखिए। इनमें यह तय करना मुश्किल है कि कौन सी महत्वपूर्ण है और कौन सी कम महत्वपूर्ण। पर इन खबरों से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश सरकार झूठा दावा कर रही है और परेशान लोगों को परेशानी पहले बताने के लिए परेशान कर रही है जबकि दूसरे कई महत्वपूर्ण काम नहीं हो रहे हैं। इसी तरह केंद्र सरकार ने ऑक्सीजन की कमी दूर करने और विकल्पों का ठीक से उपयोग करने संबंधी नियम बनाने में सात दिन लगाए। बंगाल की हिंसा को लेकर बिल्कुल परेशान है। निर्वाचित सरकार के शपथ ग्रहण तक भी इंतजार नहीं किया गया। वह भी तब जब ममता बनर्जी ने कहा है कि उन्हें उनका काम करने दिया जाए (और केंद्र सरकार अपना काम करे)। मेरा मानना है कि ममता बनर्जी या तृणमूल को हिंसा करनी ही हो या हिसाब बराबर करना हो तो अभी उसके पास पांच साल है। यह तृणमूल के लिए नहीं, भाजपा के लिए हिंसा करने का समय है और वह फर्जी खबरों के सहारे कर रही है।
द हिन्दू
- सुप्रीम कोर्ट तीसरी लहर से पहले ऑक्सीजन सप्लाई से संबंधित फॉर्मूला चाहता है
- निजी उपयोग के लिए आयात किए जाने वाले ऑक्सीजन कनसेनट्रेटर पर जीएसटी खत्म करने से मना करने पर हाईकोर्ट नाराज
- कोविड के मामले बढ़ने से राजधानी की चिकित्सा संरचना की पोल खुल गई है – हाईकोर्ट
- ऑक्सीजन की कमी की सूचना देने पर एफआईआर
- उत्तर प्रदेश के 15 जिलों में मरने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी
- अमेरिका के वैक्सीन पेटेंट प्लान पर यूरोपिय यूनियन में चर्चा होगी
हिन्दुस्तान टाइम्स
- ऑक्सीजन का कोटा पूरा हो जाए तो 9,000 बेड बढ़ाए जा सकते हैं
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा, केंद्र का ऑक्सीजन फॉर्मूला दोषपूर्ण है
- सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पूछा, बच्चों के लिए टीके की क्या योजना है
टाइम्स ऑफ इंडिया
- दिल्ली सरकार ने ऑक्सीजन के उपयोग के ऑडिट का विरोध किया, कहा आवंटन का अध्ययन हो
- ऑक्सीजन पर कर्नाटक हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ (केंद्र) सरकार सुप्रीम कोर्ट गई
- उद्यमियों के समूह ने पैसे जुटा कर अस्पतालों के लिए 950 कंसनट्रेटर मंगाए
इंडियन एक्सप्रेस
- जिला मुजफ्फरनगर की कहानी, यहां नर्सें डॉक्टर हैं, वार्ड ब्वाय नर्स हैं और परिवार के लोग वार्ड ब्वाय।
द टेलीग्राफ
आज भी सभी अखबारों से अलग है। सेंट्रल विस्टा परियोजना के काम के साथ दिल्ली के एक श्मशान में कोविड से मारे गए लोगों के अस्थिकलश की तस्वीरें छपी हैं। यही नहीं, आंकड़ों के सहारे यह भी दिखाया है कि पश्चिम बंगाल में ध्रुवीकरण की कोशिशें नाकाम रहीं। और जहां भाजपा या तृणमूल का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहा वहां भी ध्रुवीकरण नहीं हुआ। लीड के जरिए बताया गया है कि ममता बनर्जी ने सभी पीड़ितों को सहायता देने की घोषणा करके सबकी तकलीफ कम करने की कोशिश की है।
कहने की जरूरत नहीं है कि अखबारों की खबरों की इस सूची का कोई आधार नहीं है और ना ही अखबारों की कोई प्राथमिकता। जो शीर्षक पहले दिख गए वो बाद वाले अखबार में नहीं है और मकसद यह बताना है कि सारी खबरें महत्वपूर्ण है न कि यह बताना कि किसने क्या छापा क्या नहीं। आज मैं यह बताना चाह रहा हूं कि ऑक्सीजन और कोविड-19 से जुड़ी इन प्रमुख खबरों के बीच टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर है, “हिन्सा से संबंधित फर्जी खबरों का खुलासा करने के लिए बंगाल पुलिस ने एफआईआर दाखिल की जबकि हिन्दुस्तान टाइम्स ने छापा है कि केंद्र सरकार ने बंगाल हिंसा का पता लगाने के लिए तथ्यान्वेषण समिति भेजी।” यह सब तब है जब हिंसा शपथग्रहण से पहले हुई। सोशल मीडिया की खबरों में ज्यादातर फर्जी हैं और इतवार को चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद मंगलवार तक राजनीतिक हिंसा में 17 मौतें होने के आरोप हैं। भाजपा ने कहा है कि उसके नौ कार्यकर्ता मारे गए, तृणमूल के छह और संयुक्त मोर्चा के दो। इस तरह, ऐसा भी नहीं है कि भाजपा के मारे गए कार्यकर्ताओं की संख्या बहुत ज्यादा है।
दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव के बाद भी हिंसा की खबरें हैं पर उसकी चर्चा नहीं के बराबर है। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार कम से कम पांच लोग उत्तर प्रदेश में भी मारे गए हैं। लेकिन प्रदेश के भाजपा नेता बंगाल की हिंसा के खिलाफ धरना दे रहे हैं। यह सब तब जब ममता बनर्जी ने केंद्र से कहा है, जनादेश को स्वीकार कीजिए और हमें काम करने दीजिए। आप समझ सकते हैं कि एक तरफ जब लोग ऑक्सीजन की कमी से मर रहे हैं और दिल्ली के मुख्यमंत्री ने 23 अप्रैल की बैठक में प्रधानमंत्री के समक्ष ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा उठाया था। तबसे अभी तक करीब 15 दिन या आधा महीने में क्या हुआ है उसका पता ऊपर के शीर्षक से लगता है। चूंकि अभी भी लोग ऑक्सीजन के लिए परेशान हैं और अस्पतालों में जगह नहीं मिल रही है इसलिए कहा जा सकता है कि ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मौतें नहीं रुकी हैं। लेकिन ऊपर की खबरों में एक खबर है, “ऑक्सीजन की कमी की सूचना देने पर एफआईआर।” यह डबल इंजन वाले यानी उत्तर प्रदेश के भाजपा सरकार की कहानी है। सरकार अगर इतनी ही छुई मुई है तो उसे बताना चाहिए कि ऑक्सीजन की कमी होने पर क्या करना है। अगर बताया गया होता को अस्पताल ऐसा काम क्यों करेंगे कि एफआईआर हो जाए।
सरकार ने कह रखा है कि राज्य में किसी चीज की कोई कमी नहीं है और गलत सूचना देने वालों के खिलाफ कार्रवाई होगी। इसके तुरंत बाद श्मशान घाट को टीन की चादरों से घेर दिया गया और (गोरखपुर में) फोटो खींचने वालों के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी लिखवा दी गई। इसके बावजूद तस्वीरें छपीं पर सरकार की पहली प्राथमिकता खबरें रोकना ही लगता है। इसलिए यह तय नहीं है कि सूचना गलत है या सही – यह कौन तय करेगा? किसी अस्पताल में ऑक्सीजन कम है और उसे नए मरीज लेना चाहिए कि नहीं, यह कौन तय करेगा? और अगर तय करने में कोई इरादतन या भूलवश गलती कर दे तो इस मुश्किल समय में अस्पताल के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई करना ही सरकार का काम है? तब अस्पताल कैसे चलेंगे? सरकारी की छवि अस्पताल के मुकाबले क्षण भंगुर क्यों है?
मेरे ख्याल से पत्रकारीय तौर पर इसका जो जवाब दिया जा सकता है वह इंडियन एक्सप्रेस ने आज अच्छे से दिया है। एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर मुजफ्फरनगर की एक तस्वीर छापी है। इससे पता चलता है कि ऑक्सीजन भरवाने के लिए लाइन लगी हुई है। जाहिर है, ऑक्सीजन की कमी है और मरीज के तीमारदारों को लाइन लगनी पड़ रही है। क्या यह कमी साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है? अगर ये सब वो मरीज हैं जिन्हें अस्पताल में जगह नहीं मिली तो क्या अस्पतालों में जगह की कमी नहीं है? खबरें छपती रही हैं फिर भी उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्रवाई राज्य सरकार की गलत प्राथमिकता बताता है।
द हिन्दू में भी (अंदर के पन्ने पर) खबर के साथ फोटो है, जिसमें लोग फ्री ऑक्सीजन लेने के लिए सिलेंडर के साथ लाइन में खड़े हैं। अगर ऑक्सीजन फ्री में बंट रही है और लाइन लग रही है तो जाहिर है अस्पतालों में जगह नहीं है। और ऑक्सीजन के लिए लाइन भी क्यों लगना पड़े? मुझे लगता है ऐसी हालत में साफ–सीधी खबर होनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश सरकार लोगों को धमका रही है और झूठ बोल रही है। राज्य सरकार ने पहले कह दिया था कि आप सोशल मीडिया पर सहायता या सुविधा भी नहीं मांग सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि यह तानाशाही वाला रवैया है और इसमें कोई दो राय नहीं है कि अखबारों में वैसी खबरें नहीं हो रही हैं जैसी होनी चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस ने आज जरूर अच्छी शुरुआत की है।
आज की इन खबरों से स्पष्ट है कि केंद्र सरकार ऑक्सीजन कनसेनट्रेटर पर जीएसटी छोड़ने को तैयार नहीं है जबकि कनसेनट्रेटर से ऑक्सीजन की मांग काफी हद तक कम हो सकती है। इन्हीं खबरों में एक खबर है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, केंद्र का ऑक्सीजन फॉर्मूला दोषपूर्ण है। कहने की जरूरत नहीं है कि सबको पर्याप्त ऑक्सीजन मिलनी चाहिए, व्यवस्था सरकार को ही करनी है। पर स्थिति यह है कि सरकार ने जरूरत भर मशीनों का आयात कर मुफ्त वितरण जैसा कोई काम इस संकट में भी नहीं किया, दान में जो मशीनें और सामान आए उनके लिए एसओपी बनाने में सात दिन लगे, कारोबारियों ने जो मशीनें मंगाई उनपर जीएसटी और नहीं बिके तो जमाखोरी का आरोप। यानी सरकार काम कम कर रही है अड़चन ज्यादा डाल रही है। ऐसी हालत में सरकार ऑक्सीजन के उपयोग का ऑडिट करवा रही है जबकि दिल्ली और देश के बड़े शहरों में हवा इतनी प्रदूषित है कि अगर ऑक्सीजन लीक हो जाए या वायुमंडल में उड़ा दिया जाए तो बर्बाद नहीं होगी। वायुमंडल थोड़ा साफ जरूर हो जाएगा।
वायु प्रदूषण को अभी भुला ही दिया गया है पर वह टीके से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। टीके से संबंधित नियम साफ नहीं हैं, या हैं ही नहीं जबकि इसमें पर्याप्त देरी हो चुकी है और ऐसा नहीं है कि भारत सरकार यह तय कर ले कि वह अपने नागरिकों को टीके नहीं लगवाएगी। वैसी हालत में जो देश टीके लगवा चुके हैं उनके नागरिकों के भी संक्रमित होने का खतरा रहेगा और इसलिए सबको टीका लगना ही है। लेकिन अभी 18 साल से ऊपर वालों को 900 रुपए में टीका लग रहा है। इस दर पर देश में कितने लोग टीका लगवा पाएंगे? और बाकी का क्या होगा, अभी कुछ पता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट बच्चों के लिए भी पूछ रही है तो महत्वपूर्ण है।
यह कम दिलचस्प नहीं है कि ऑक्सीजन पर कर्नाटक हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ (केंद्र) सरकार सुप्रीम कोर्ट गई है। आप समझ सकते हैं कि केंद्र सरकार (एक राज्य सरकार की चर्चा पहले कर चुका हूं) अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए कितना परेशान है। एक तरफ तो जरूरत भर आपूर्ति नहीं, कोटे के अनुसार आपूर्ति और कोटा ठीक नहीं होने का आरोप। हाईकोर्ट ने जरूरत भर ऑक्सीजन देने को कहा तो सुप्रीम कोर्ट की शरण। आखिर सरकार किस मर्ज की दवा है। वह ऑक्सीजन की कमी दूर नहीं कर पा रही है तो उसे कितने दिन सत्ता में बने रहने का अधिकार है। और अखबार यह सब सीधे क्यों नहीं कह रहे हैं। उन्हें भी भाजपा और सरकार की तरह बंगाल हिंसा की चिन्ता क्यों है और क्यों नहीं बता रहे हैं कि बंगाल हिंसा की कितनी खबरें फर्जी हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।