पहला पन्ना: संक्रमण के मामले शिखर की ओर, पर दावा कम होने का!

 

ऑक्सीजन से लेकर जीवनरक्षक दवाइयों की व्यवस्था नहीं कर पाने वाली सरकार अभी भी प्रचार के सहारे 

 

एक तरफ तो सरकार ऑक्सीजन से लेकर दवाइयों और श्मशान तक की पूरी (तथा जरूरतमंदों के लिए मुफ्त) व्यवस्था नहीं कर पा रही है दूसरी ओर, प्रचारक झूठ प्रचारित कर रहे हैं कि दूसरी लहर में मामले कम होने लगे हैं। आज हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर खबर छापी है कि मामले कम हो रहे हैं लेकिन द हिन्दू ने लिखा है कि दरअसल बढ़ने के संकेत हैं। अखबार ने लिखा है कि मामले कम होने की दलील के साथ जांच में वृद्धि के सबूत नहीं हैं। पिछले हफ्ते के दौरान संक्रमितों की संख्या में लगातार कमी आई है। आठ मई को 3.92 लाख संक्रमित हुए थे तो 15 मई को इनकी संख्या 3.41 लाख रही। यही नहीं, टेस्ट पॉजटिविटी रेट (टीपीआर यानी 100 टेस्ट में संक्रमित या पॉजिटिव पाए जाए वालों की संख्या) भी कम हुई है और इसी अवधि में 22.6 प्रतिशत से 19 प्रतिशत पर आ गई है। इन आंकड़ों से लगता है कि दूसरी लहर में मामले कम हो रहे हैं पर अखबार ने लिखा है कि जांच अभी भी वहीं है, 18 लाख प्रति दिन जबकि टीपीआर 8 मई को ही कम हो गई थी। 

यही नहीं, राज्यों में कोविड के मामले एक जैसे नहीं हैं। कुछ राज्यों में अगर वाकई मामले कम हुए हैं तो कुछ ने जांच की संख्या कम कर यह उपलब्धि पाई है। हाल में कम से कम 11 प्रमुख राज्यों ने जांच कम किए हैं। इनमें चार राज्यों में पॉजिटिव पाए जाने के मामले बढ़ रहे हैं। जांच कम करने का मतलब है संक्रमितों को पहचानने से चूकना। अखबार के अनुसार आंध्र प्रदेश, असम, कर्नाटक और राजस्थान में टेस्ट की संख्या कम हो गई है पर पॉजिटिव पाए जाने वालों की संख्या बढ़ गई है। दूसरी ओर, महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, गुजरात, गोवा और दिल्ली में टेस्टिंग और पॉजिटिविटी रेट दोनों कम हो रहे हैं। कायदे से जांच की दर कायम रखनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो कि पॉजिटिव मामले जांच कम होने से कम नहीं हो रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने सिंगल कॉलम में छापा है, नूंह में आंकड़े कम हो रहे हैं पर ना मौतें और ना लक्षण। फिर भी टीओआई ने दूसरी लहर में मामले कम होने की खबर तीन कॉलम में छापी है।

इस तरह, मामले कम होने की खबर भरोसेमंद नहीं है फिर भी उसका प्रचार किया जा रहा है तो साथ में यह प्रचार भी चल रहा है कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने नए दिशा निर्देश जारी किए हैं और गांवों में ऑक्सीजन वाले बेड उपलब्ध होंगे। इंडियन एक्सप्रेस की इस लीड खबर का उपशीर्षक है, “ब्लूप्रिंट : गांवों में 30 बेड का कोविड सेंटर, संबंध जिला अस्पताल से होगा।” कहने की जरूरत है कि यह योजना है और इसे जमीन पर आने में ढेरों बाधाएं हैं। पर प्रचार का अलग महत्व है। हालांकि, इंडियन एक्सप्रेस ने इसी खबर के साथ छापा है, ग्रामीण राजस्थान में ऑक्सीजन की कमी के साथ, वेंटीलेटर भी बेकार रखे हैं। यही नहीं, इंडियन एक्सप्रेस में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का दावा भी छपा है कि स्थिति नियंत्रण में है और तीसरी लहर के लिए तैयार हैं। कल ही इलाहाबाद की फोटो छपने के बाद यह दावा है। फोटो के आधार पर आप कह सकते हैं कि इलाज तो छोड़िए, इलाज बिना या बावजूद मर जाने वालों के लिए अंतिम संस्कार की व्यवस्था प्रर्याप्त नहीं है पर तीसरी लहर की तैयारी का दावा है। पहले पन्ने पर। मैं जो अखबार देखता हूं उनमें से किसी में भी यह हवा-हवाई खबर पहले पन्ने पर नहीं है। 

हिन्दुस्तान टाइम्स में भी सरकार के ग्रामीण एसओपी की खबर है। इसके जरिए यह बताने की कोशिश की जा रही है कि सरकार को अब यह महामारी गांवों में फैलती नजर आ रही है और सरकार ने उसके उपाय किए हैं। सच्चाई यह है कि नदी में मिल रहे शव महानगरों के नहीं होंगे। फिर भी सरकारी घोषणाओं को सिर-माथे लेने का मीडिया का अंदाज गजब है। इस खबर में राज्यों को केंद्र सरकार के निर्देशों के बारे में जानकारी दी गई है जबकि हम जानते हैं कि पिछले साल जब मामले बहुत कम से थे, केंद्र सरकार सारा मामला खुद देख रही थी और उसमें ताली थाली बजवाना, बत्ती बुझाकर दीया जलाने जैसे खेल थे और अब जब मामले नहीं संभल रहे हैं राज्यों को निर्देश दिए जा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी सरकारी और प्रचारात्मक खबरें वास्तविक खबरों की जगह खा जाती हैं।   

वैसे, “मोदी जी, हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया?” – लिखे पोस्टर लगाने वालों की गिरफ्तारी का मामला प्रचारकों के हाथ से निकल गया लगता है। पहले दिन इंडियन एक्सप्रेस ने यह खबर डराने के अंदाज में छापी। आज द हिन्दू में इससे संबंधित खबर का शीर्षक है, कांग्रेस ने दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की निन्दा की। खबर के साथ एक तस्वीर है जिसमें कांग्रेस नेता जयराम रमेश के घर पर पोस्टर लगा दिखाया गया है। द टेलीग्राफ में इस खबर का शीर्षक है, राहुल गांधी ने पोस्टर अपलोड करके कहा, मुझे गिरफ्तार करो। टाइम्स ऑफ इंडिया में आज इस खबर का शीर्षक है, पोस्टर विवाद, पुलिस ने आम आदमी पार्टी पर आरोप लगाया। टाइम्स की खबर यह बताने की कोशिश करती है कि (अभी तक) इससे कांग्रेस का संबंध नहीं था और आम आदमी की पार्टी ने लॉक डाउन का उल्लंघन करके पोस्टर लगवाए इसलिए कार्रवाई की जा रही थी। अब इसमें राहुल गांधी कूद पड़े हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक है, मोदी से सवाल पूछने वाले पोस्टर पर दिल्ली में गिरफ्तारी से राजनीतिक तू-तू मैं-मैं। 

 

इंडियन एक्सप्रेस में आज एक खबर है, “ऑटो केंद्र में चिन्ता : प्लांट बंद हैं, मजदूरों की रवानगी में कितनी देरी? लॉकडाउन और महामारी के बीच यह एक बड़ी चिन्ता है। वैसे भी, इस सरकार की कई ‘उपलब्धियों’ ने रोजगार-कारोबार का बुरा हाल कर रखा है। कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के पैसे पीएम केयर्स में लेने की विशेष व्यवस्था है और आम लोगों के लिए भोजन तक का इंतजाम ठीक नहीं है। इस मौके पर यह याद दिलाया जा सकता है कि पिछले छह-सात साल में 14800 एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) बंद हुए, 5.43 लाख कथित शेल कंपनियां बंद हुईं, 27 सरकारी बैंकों को घटा कर 12 कर दिया गया है, दो बैंकों के ग्राहक सरेआम लुट-पिट गए, कम से कम 31 बैंक डीफॉल्टर देश छोड़ कर भाग गए (2018 की स्थिति)। एक दो नहीं, 6.8 लाख कंपनियां बंद हुई हैं, 10 हजार फर्मों ने स्वेच्छा से परिचालन बंद कर दिया हैं। फिर भी टीके की कमाई से एक पूरे परिवार की इतनी कमाई हुई कि तीन पीढ़ियां लंदन शिफ्ट हो गई हैं।  जो देश में हैं उनके लिए बेरोजगारी और लाचारी चरम पर है। सरकार को वैसे ही इन स्थितियों से निपटने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए थी पर कोरोना से निपटने की ही व्यवस्था नहीं हुई है या जो हुई है वह अपर्याप्त है। फिर भी मीडिया सब ठीक है का दावा करता है और करने वालों को प्रश्रय दे रहा है।  

आज सब लिख लेने के बाद ध्यान गया विज्ञापन पर। पांचों अखबार में एक ही विज्ञापन है। यह दुर्लभ संयोग या प्रयोग है। हिन्दुस्तान टाइम्स में एक विज्ञापन ज्यादा है पर एलआईसी का विज्ञापन सबमें है। यह आपदा में अवसर है और एक सरकारी कंपनी को यह सीख  खून में व्यापार वाले प्रधानमंत्री ने ही दी है। जब लोग मर रहे हैं जो जीवन बीमा निश्चित रूप से जरूरी है और बताना जनसेवा। यह सेवा उस देश में मुफ्त मिल रही है जहां गरीब के पास खाने के पैसे और पहनने के कपड़े नहीं हों तो भी उससे मास्क नहीं लगाने पर दो हजार रुपए वसूले गए हैं।  कुल मिलाकर सरकार (या सत्तारूढ़ पार्टी की) नीतियों, प्राथमिकताओं पर अधिकारों के उपयोग पर चर्चा होनी चाहिए। वह कहीं नहीं है। एक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष देश की बुनियादी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिए जाने के बावजूद।  


लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

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