शीतल पी सिंह
हमारा प्राचीन व मध्यकालीन अतीत जो आज का भूगोल है उसके विपरीत रहा है।
सांस्कृतिक तौर पर हम कभी एक जैसे थे, कभी विविधता को समझते समावेश करते भी मिलते थे पर भूगोल कभी आज जैसा एक नहीं रहा । निरंतर आपसी युद्ध इसमें फेरबदल (कभी कभी संपूर्ण बदलाव )करते रहे। ऐसा सिर्फ़ हमारे यहाँ ही नहीं हुआ दुनियाँ भर में हुआ, कहीं कहीं अपवाद स्वरूप आजकल भी होता रहता है/ हो रहा है (मसलन युक्रेन)।
पिछले क़रीब सत्तर साल हमने विविधता में एकता बनाए रखने के प्रयास में गुज़ारे जबकि हमसे अलग हुए हमारे ही टुकड़े (पाकिस्तान) ने इसे नष्ट करने की लाइन पकड़ी और अब वह खुद नष्ट होने की राह पर हमसे बहुत आगे है । इधर हमने भी वही रास्ता पकड़ लिया है।
केंद्रीय सत्ता में 2014 में आए सत्ताधारियों ने यह जंग छेड़ दी । पहले उन्होंने नारा दिया कि उन्हें कांग्रेस मुक्त भारत चाहिए जो धीरे धीरे अघोषित तौर पर विपक्ष मुक्त भारत में बदल गया। वे अपने ही देश के विपक्ष को क्यों मिटाना चाहते हैं? नतीजा यह है कि कई विपक्षी राज्यों में प्रधानमंत्री से वहाँ के मुख्यमंत्री/ सरकारें किसी आक्रांता की तरह पेश आते हैं । बंगाल तेलंगाना तमिलनाडु झारखंड और चंद दिनों पहले के महाराष्ट्र में यही स्थिति थी। दिल्ली और पंजाब भी दिल से प्रधानमंत्री के प्रति सम्मान का भाव रखते नहीं मिलते।
2014 में जो परिवर्तन आया वह डिजिटल गुंडा वाहिनी साथ लाया । धीरे-धीरे सभी दलों को इस डिजिटल गुंडा वाहिनी की दरकार हो गई जिन्हें तकनीकी शब्दावली में ITcell कहते हैं । ये वाहिनियाँ विरोधी को शत्रु की तरह लेती हैं और उसे नेस्तनाबूद करने के लिये फ़िलहाल तक प्रचलित हर नियम क़ायदे को रौंद डालने को तत्पर रहती हैं।
देश में आंतरिक युद्ध का सबसे बड़ा एजेंडा हिंदू बनाम अन्य है। अन्य में सबसे बड़ा हिस्सा मुसलमानों के हिस्से आता है और बीच बीच में इसाई और सिक्ख भी चांदमारी के बीच फँसे मिल जाते हैं। मुसलमान 2011 की जनगणना के अनुसार पंद्रह फ़ीसदी से कुछ कम हैं। उन पर अनवरत आरोप है कि वे एक अजेंडे के तहत जनसंख्या बढ़ा रहे हैं और हिंदू धर्म के असंख्य भाष्यकारों ने उनके हिंदुओं से अधिक हो जाने की अलग-अलग डेटलाइन घोषित कर रक्खी हैं जिनमें वे सुविधानुसार परिवर्तन भी करते रहते हैं। ये डेटलाइन 2027 से शुरू होकर 2050 तक फैली हुई हैं। ऐसा नहीं है कि मुसलमानों की जनसंख्या तुलनात्मक रूप में हिंदुओं से ज़्यादा नहीं बढ़ रही है लेकिन विभिन्न जनगणनाओं के अध्ययन बतलाते हैं कि उसकी विकास दर लगातार कम हो रही है और वह निकट भविष्य में (बीस तीस साल में ) आवश्यक वृद्धि दर तक या उसके नीचे भी आ सकती है। ईसाईयों के बारे में बहुत सारे भ्रम हैं, उत्तर पूर्व में और आदिवासियों में उनकी अनवरत सक्रियता मौजूद है लेकिन पंजाब और आंध्र प्रदेश में उनकी विस्तारवादी सफलता के बारे में विवादास्पद परसेप्शन प्रचलित हैं जो जनगणनाओं में नज़र नहीं आते । सिक्ख समाज की आबादी को लेकर फिलवक्त कोई विवाद प्रचलन में नहीं है।
युद्ध हमेशा हथियारों से लड़े जाते हैं, जीतते वे हैं जिनके पास सबसे आधुनिक हथियार हों और उनकी सेना में लड़ने का जज़्बा हो। केंद्रीय सरकार पर क़ाबिज़ पार्टी के पास दोनों हैं। आज युद्ध के तौर-तरीके बदल गये हैं। मीडिया/ सोशल मीडिया/ राजनैतिक फंड पर नब्बे प्रतिशत से भी ज़्यादा क़ब्ज़ा रखने के कारण बीजेपी सबसे ताकतवर राजनीतिक गठजोड़ है। उसके सामने खड़ी विपक्षी सेनाओं में भारी असहमतियाँ हैं और उनकी सेनाओं के तमाम सेनापति बीच बीच में अपनी सेना छोड़कर पाला बदल ले रहे हैं जिससे विपक्ष दिनों-दिन और कमज़ोर हो रहा है। हमारे मध्यकालीन अतीत में हिंदू के तौर पर सोचने वालों के लिए बहुत कुछ अपमानजनक मौजूद है (पैदा किया जा सकता है/किया जा रहा है) और यही सब देश के मुसलमान समाज में एड्रिनलिन का भी काम करता है। नतीजा यह है कि हिंदू बारहवीं सदी से पहले के इतिहास में लौटने के लिए तत्पर मिलते हैं और मुसलमान को बारहवीं सदी के बाद के इतिहास से ही मतलब है यह अंतर्द्वंद्व आज की हमारी देशी राजनीति की प्रमुख अंतर्वस्तु है। इसके आगे दूसरे सभी ज़रूरी मुद्दे गौण हो चुके हैं।
फिलवक्त के युद्ध में वे सबसे ज़्यादा निशाने पर हैं जो इसकी आधुनिक समसामयिक व्याख्या करने का जोखिम उठाते हैं। सही बात को लोगों तक पहुँचाने की कोशिश करते हैं, उत्पीड़ितों के लिए न्याय तलाशने की कोशिश करते हैं, चांदमारी के पहले शिकार वे हैं। भीमा कोरेगाँव मामले में निरुद्ध किये गये बंदी, जेएनयू के छात्र अध्यापक और खुद जेएनयू, जुबैर, तीस्ता सेतलवाड, डाभोलकर, कालबुरगी, गौरी लंकेश आदि आदि। तमाम ऐसे विचार के लोगों की नौकरियां छिन गई हैं उन्हें कोई काम देने से डरता है, कई पुराने मुक़दमों में पुनर्जीवन पैदाकर जेलों में हैं ( संजीव भट्ट आदि) और असंख्य ख़ामोश हो गए हैं।
अपने हथियारों से विपक्ष भी लड़ने की कोशिश करता दीखता है पर कभी बग्गा को पकड़ने में और कभी रोहित रंजन के मामले में इसके हिस्से की पुलिस को केंद्रीय सरकार और उसकी राज्य सरकारों की ताक़त औकातबोध करवाती रहती है। केंद्रीय सरकार की एजेंसियों ने विपक्ष की नसों में कमजोरी तलाश कर और पैदा करके उसकी पाँतों में भगदड़ पैदा कर दी है। सबसे बड़े प्रहसन का शिकार हो रही है न्यायपालिका। मौजूदा तंत्र उसका बेदर्दी से इस्तेमाल कर रहा है, वह सेमिनारों में विलाप कर रहा है परन्तु कोर्ट में आर्डर लिखवाते समय उसकी पैंट गीली हुई मिल रही है।
दुनिया इसको दर्ज ही नहीं कर रही है बल्कि अब खुलकर सामने भी रखने लगी है! संयुक्त राष्ट्र समेत पश्चिम की वे सभी संस्थाएँ जो मानवाधिकारों पर नज़र रखती हैं और उनका मीडिया इसे लगातार सामने रख रहा है। सरकार लंबे समय से देश और विदेश में प्रेस कॉन्फ़्रेंस करने की हिम्मत खो चुकी है।
तो संक्षेप में ये कि देश में एक तरह के गृहयुद्ध की शुरुआत की जा चुकी है। पीओके और अक्साई चिन वापस ले आने के शिगूफ़ों पर तालियाँ खर्च कर चुके लोगों यह देखो कि किस लोकल युद्ध में कब बिना तुम्हारी सहमति / स्वीकृति के तुम लड़ाई के मैदान में होगे / या हो सकता है आलरेडी लड़ना शुरू कर चुके हो कम से कम सोशल मीडिया पर!
पाकिस्तान के अनुभव से हमने कुछ नहीं सीखा जिसके पहले ही दो टुकड़े हो चुके हैं और मौजूदा भूगोल पुनः ख़तरे में है!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह उनकी फ़ेसबुक टिप्पणी है। साभार प्रकाशित।